Top Best Famous Moral Stories In Hindi
1. शिक्षा का अहंकार
यह प्राचीन समय की एक घटना है। व्यास नदी के तट पर एक आश्रम बना हुआ था। उस आश्रम में ऋषि अंगद अपने शिष्यों के साथ रहते थे। वे स्वभाव से बहुत ही शांत थे।
वे अपने आश्रम में बहुत शिष्यों को शिक्षा दिया करते थे। आश्रम के बहुत सारे शिष्यों में से दो शिष्य ऐसे थे जो बहुत प्रतिभावान और गुणी थे।
वे दोनों ही बहुत मेहनती थे। वे शिष्य कई सालों तक कठिन साधना करते रहे। उनकी मेहनत और कई सालों की कठिन साधना रंग ले लाई और दोनों ही शिष्य अपने विषय में बहुत बड़े विद्वान बन गए।
धीरे-धीरे उनके अंदर विद्वता का ऐसा नशा चढ़ता गया कि दोनों हद से ज़्यादा घमंडी, अभिमानी एवं ईर्ष्यालु बन गए।
अहंकार और घमंड में डूबे होने के कारण दोनों आश्रम का काम भी सब के साथ मिल-जुलकर करना पसंद नहीं करते थे।
जब एक दिन ऋषि स्नान करके आश्रम वापस लौटे तो उन्होंने दोनों शिष्य आपस में झगड़ते देखा।
ऋषि ने दोनें से इस झगड़े का कारण जानना चाहा तो दोनों ही अपने गुणों का स्वयं ही बखान करके स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ बताने लगे।
ऋषि अंगद ने झगड़ा बढ़ते देख उन्होंने बड़े प्रेम से उनसे कहा -"तुम दोनों बिलकुल ठीक कह रहे हो। इतने बड़े विद्वान और महान श्रेष्ठजन हो जाने के बाद यह सफ़ाई जैसा छोटा काम तुम दोनों को शोभा नहीं देता। परंतु आगे से मैं स्वयं ही आश्रम की सफ़ाई का काम करूँगा।"
ऋषि द्वारा ऐसी बातें सुनकर दोनों बहुत ही शर्मिंदा हुए।
जैसे ही उन्होंने ऋषि को झाड़ू उठाते देखा, वैसे ही दोनों ने उनके हाथ से झाड़ू ले लिया और अपने द्वारा किए व्यवहार के लिए उनसे क्षमा माँगने लगे।
ऋषि ने उन्हें क्षमा कर दिया और उन्हें बड़े प्रेम से समझया कि हमें अपने ज्ञान, अपनी विद्या पर कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए।
2.इंसानियत
प्राचीन समय में एक राजा हुआ करते थे। अपनी प्रजा से वे बेहद प्रेम करते थे और प्रजा का हाल जानने के लिए प्रति रात एक राजा प्रतिदिन रात के समय पहरा देते हुए घूमते थे।
वे अपने राज्य में किसी को दुखी नहीं देखना चाहते थे। साथ ही हर समय यही चिंता उन्हें सताती रहती थी कि राज्य का कोई अधिकारी प्रजा को दुःख तो नहीं पहुँचा रहा है।
यही सोचकर वे रोज़ रात राज्य में पहरा देते। एक रात पहरा देते हुए वे नदी के एक किनारे पहुँचे। उन्हें उम्मीद थी कि यहाँ उन्हें कोई चोर या बदमाश ज़रूर मिलेगा और वे उसे मौके पर पकड़ लेंगे।
वे यही सोच कर वे आगे बढ़ रहे थे।
तभी उन्होंने देखा कि किनारे पर कोई युवक लेटा हुआ है।
राजा ने उसके पास जाकर उससे पूछा, "तुम कौन हो?"
युवक घोड़े पर अजनबी को देखकर पहले तो डर गया ।
फिर थोड़ी हिम्मत जुटाकर वह राजा से बोला, "मैं इस राज्य में रहने वाली लक्ष्मी का दामाद हूँ और अपनी पत्नी को लेने अपनी सुसराल जा रहा हूँ, पर मुझे इतने ज़ोर का बुखार चढ़ा है कि एक कदम भी चल नहीं सकता।"
राजा ने उसके माथे पर हाथ रखा तो वास्तव में बुखार के मारे वह तप रहा था।
राजा ने उस युवक से कहा, "इस सुनसान इलाके में इतनी ठंड में अकेले रुकना ठीक नहीं है। आओ, मेरे साथ मैं तुम्हें तुम्हे मंजिल तक छोड़ आऊँ।"
राजा ने वेश बदला हुआ था इस कारण वह युवक उन्हें पहचान नहीं सका।
राजा उसे उठाकर घोड़े पर बिठाते हुए बोले, "तुम बीमार हो, इसलिए इस घोड़े पर बैठ जाओ।"
सहारा देकर उन्होंने बीमार हो घोड़े पर बैठा दिया और लक्ष्मी के घर की ओर चल दिए।
युवक से बातचीत करते हुए उन्होंने यह तो पता कर लिया कि वह महल में काम करने वाली एक महिला लक्ष्मी का दामाद है।
राजा ने उस युवक को लेकर राजमहल की सेविका लक्ष्मी के घर पर पहुँच गए। दरवाज़े पर दस्तक देते हुए उन्होंने उस सेविका लक्ष्मी को आवाज लगाई।
दरवाजा खोलते ही लक्ष्मी ने जो देखा, उस देखकर लक्ष्मी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ । वह उसी समय राजा के पैरों में गिर कर और उनसे क्षमा माँगने लगी।
राजा ने लक्ष्मी से कहा, "लक्ष्मी, तुम यह मत भूलो कि मैं पहले इंसान हूँ और राजा बाद में हूँ। इंसान के नाते इंसानियत मेरा पहला धर्म है। यह थे जम्मू-कश्मीर के राजा प्रताप सिंह।" राजा अपनी प्रजा से बहुत प्रेम करते थे और इंसानियत को अपना पहला धर्म मानते थे।
3.ज्ञान का प्रकाश
काशी में गंगा के किनारे एक संत रहते थे। संत वहीं एक आश्रम बना कर रहते थे।
एक बार संत के एक शिष्य ने उनसे एक प्रश्न किया, "गुरुदेव हम इस संसार में रहकर गुरुजनों से जो शिक्षा ग्रहण करते हैं, उस शिक्षा का मूल क्या है ?"
संत ने शिष्य का प्रश्न सुनकर उसे मुस्कुरा कर उससे कहा, "वत्स, एक दिन यह बात तुम खुद ही जान जाओगे।" उस समय के लिए यह बात आई गई हो गई।
बहुत दिन यूँ ही बीत गए। एक रात संत ने शिष्य को अपने पास बुलाकर कहा, "पुत्र, ज़रा मेरे कमरे में रखे तख्ते पर इस पुस्तक को रख आना।"
शिष्य ने संत से पुस्तक ली और उसे उनके कमरे में रखने चला गया किंतु वह डरा हुआ, काँपता हुआ तत्काल ही वहाँ से वापस लौट आया।
उसकी ऐसी स्थिति देखकर संत ने उससे से पूछा, "क्या हुआ पुत्र ? ऐसा क्या हुआ कि तुम इतना डर गए ?"
शिष्य थोड़ा सामान्य होते हुए डरते-डरते बोला, " गुरुवर आपके कमरे के अंदर एक सर्प है।"
संत ने शिष्य को समझते हुए कहा, "पुत्र, तुम्हें जरूर कोई गलती लगी है। साँप, मेरे कमरे में साँप कहाँ से आएगा। सुनो, पुत्र एक बार फिर तुम उस कमरे में जाओ और अंदर किसी मंत्र का जप करो। यदि साँप वहाँ हुआ तो वो मंत्र शक्ति के प्रभाव से वहाँ से भाग जाएगा।"
शिष्य संत के कहे अनुसार पुनः उस कमरे में गया और वहाँ जाकर उसने मंत्र जाप शुरू किया साँप को देखकर। परंतु मंत्र जाप की भी कोई प्रभाव उस साँप नहीं पड़ा और वह उस स्थान से हिला भी नहीं, उस स्थान को छोड़कर वह वहाँ से गया भी नहीं ।
शिष्य डरा,सहमा वापस बाहर लौट आया और आकर संत से बोला, "गुरुवर, साँप वहाँ से जाने का नाम नहीं ले रहा है। वह बिलकुल भी अपनी जगह से हिला नहीं, वह जा ही नहीं रहा वहाँ से है।"
संत ने शिष्य से कहा, " डरो नहीं। तुम इस बार अपने साथ एक दीपक लेकर अंदर जाओ। अगर साँप वहाँ होगा तो वह दीपक की लौ देखकर वहाँ से चला जाएगा।"
"शिष्य ने संत की कहे अनुसार ही कार्य किया। वह इस बारी अपने साथ एक जलता हुआ दीया लेकर कमरे के अंदर गया। दिये की रोशनी में उसने अंदर जाकर देखा कि वहाँ साँप नहीं बल्कि रस्सी का टुकड़ा लटक रहा है।"
साँप के स्थान पर वहाँ एक रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था। उस समय बहुत अधिक अंधकार से रस्सी का वह टुकड़ा उसे साँप जैसा प्रतीत हुआ।
शिष्य ने बाहर आकर संत से कहा, "गुरुवर उस कमरे में साँप नहीं था बल्कि एक रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था। घने अँधेरे के कारण मैंने उस रस्सी को साँप समझ लिया था।"
संत ने शिष्य को समझते हुए कहा, "वत्स, यह एक प्रकार की भ्रम की स्थिति है। व्यक्ति जैसा सोचता है वैसा होता नहीं है। सारा जगत ऐसी तरह की भ्रम स्थिति के अंधकार में जकड़ा हुआ है। इस अज्ञानता को केवल ज्ञान के प्रकाश द्वारा ही दूर किया जा सकता है। पुत्र, ऐसा कई बार होता है कि हम अज्ञानता वश अपने जीवन,अपने दिमाग में बहुत सारे भ्रम पाल लेते हैं और ज्ञान के प्रकाश द्वारा उसे देखने का कभी प्रयत्न ही नहीं करते हैं। हमें इस अंधकार से बाहर निकलना होगा। तभी सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होगी।