राजकवि 'भारवि'
संस्कृत साहित्य में ' भारवि' का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। वे संस्कृत के श्रेष्ठ कवि थे। इन्होंने केवल एक रचना से ही जितना यश अर्जित किया, उतना सैकड़ों रचनाओं द्वारा भी नहीं किया जा सकता।
भारवि अपने माता-पिता की अकेली संतान थे। इनके पिता भी बहुत बड़े विद्वान थे। इनका परिवार बहुत निर्धन था। भारवि अपनी युवावस्था से ही विद्वानों में आदर पाने लगे थे। वे कोई भी रचना लिखते, उनके पिता उसमें कमियाँ निकाल देते। पूरे नगर में भारवि के कवित्व का डंका बज गया था। जब भी कोई व्यक्ति भारवि के पिता से भारवि की प्रशंसा करता, तभी वे उसे डाँटकर कह देते, "अभी वह अबोध है। उसके जैसी कविताएँ तो ग्वाले भी लिख सकते हैं।"
अपने पिता के इस व्यवहार से भारवि परेशान थे। उन्होंने सोचा, 'मेरे पिता मेरी प्रसिद्धि से द्वेष करते हैं। उन्हें मेरी उन्नति से ईर्ष्या होने लगी है। किसी भी पिता को ऐसा नहीं करना चाहिए। संसार का कोई भी पिता अपने पुत्र की उन्नति से ईर्ष्या नहीं करता। यदि उन्होंने अपने स्वभाव में परिवर्तन नहीं किया तो एक दिन मैं उनका वध कर दूँगा ।'
समय बीतता गया । भारवि के पिता ने उनकी कविताओं में कमियाँ निकालना बंद नहीं किया। सबके सामने वे भारवि की कविता में दोष निकाल देते थे। अब भारवि न रहा गया। एक दिन उन्होंने अपने पिता का वध करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। चाँदनी रात का समय था । भारवि नंगी तलवार लेकर अपने पिता के कक्ष की ओर चल पड़े। भारवि के पिता और माँ बातें कर रहे थे। भारवि ने सोचा, इन्हेंसो जाने दूँ। इसके बाद ही कार्य का निपटारा करूँगा।
भारवि की माँ ने कहा, "आप भारवि की कविताओं में इतनी कमियाँ क्यों निकालते हैं?" भारवि के पिता बोले, “मैं जानता हूँ, मेरा भारवि एक दिन श्रेष्ठ कवि बनेगा। जब लोग आकर उसकी प्रशंसा करते हैं तो मेरी प्रसन्नता की सीमा नहीं रहती । कभी-कभी तो अधिक प्रसन्नता के कारण मेरा गला भर आता है। मैं यह सोचकर उसकी कमियाँ निकालता हूँ कि कहीं उसे अभिमान हो गया तो वह श्रेष्ठ कवि नहीं बन सकेगा, इसलिए मैं उस पर अंकुश लगाने का प्रयास करता हूँ।"
यह सुनकर भारवि काँप उठे। उन्हें अपनी गलती पर पश्चाताप हो रहा था। उन्होंने आकर अपने पिता से क्षमा माँगी और दंड की माँग की। उनके पिता ने कहा, "इसके लिए तुम्हें छह माह तक जंगल में रहकर तपस्या करनी होगी ।"
भारवि ने अपनी पत्नी से प्रायश्चित्त के विषय में बताया। उसने कहा, "आपके जाने के बाद छह माह तक घर का खर्च कैसे चलेगा?" भारवि ने आधा श्लोक लिखकर दिया और कहा, “इसे राजा को सौ स्वर्ण मुद्राओं के बदले बेच देना। इससे कम में मत बेचना। छह माह बाद लौटकर मैं राजा के पास जाकर इसे पूरा कर दूँगा।”
भारवि की पत्नी ने वह आधा श्लोक राजा को सौ स्वर्ण मुद्राओं में बेच दिया। राजा को उसने बता दिया कि छह माह बाद मेरे पति आकर इसे पूर्ण कर देंगे। राजा ने वह श्लोक अपने शयन कक्ष में लगा दिया।
एक दिन राजा शिकार पर गया। वहाँ से लौटने में उसे कई दिन लग गए। दोपहर के समय जब राजा ने अपने शयन-कक्ष में प्रवेश किया तो उसने देखा कि रानी किसी युवक के साथ सोई हुई थी। राजा ने उन दोनों की हत्या करने के लिए म्यान से तलवार निकाल ली। उसी समय उसकी दृष्टि दीवार पर टँगे हुए उस श्लोक पर पड़ गई। उस पंक्ति का अर्थ था, 'बिना सोचे-विचारे अचानक कोई कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि अविवेक विपत्तियों का मुख्य कारण है।'
उसे पढ़कर राजा क्षण-भर के लिए रुक गया। उसने रानी को जगाया। रानी के साथ सोया हुआ युवक कोई और नहीं, बल्कि राजा का पुत्र था। उसे देखकर राजा के हाथ से तलवार गिर गई। वह काँप रहा था। राजा मन-ही-मन सोच रहा था, 'यदि उसने दोनों को मार दिया होता तो जीवन-भर प्रायश्चित्त न कर पाता।' छह माह बाद भारवि ने राजा के पास पहुँचकर श्लोक को पूरा कर दिया।
श्लोक की दूसरी पंक्ति का अर्थ था, 'विचार करके कार्य करने वाले व्यक्ति को संपत्तियाँ व सफलताएँ स्वयं मिल जाती हैं।' राजा ने भारवि को अपना राजकवि बना लिया।
प्रत्येक कार्य सोच-विचारकर करना चाहिए।
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