HINDI BLOG : मणि की चोरी - पौराणिक कथा

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Monday, 27 May 2024

मणि की चोरी - पौराणिक कथा


मणि की चोरी

बहुत समय पहले द्वारिका पुरी में कृष्ण के राज्य में सत्रजित नाम का एक यादव नायक था। वह द्वारिका में सबसे धनवान व्यक्ति था। उसका भवन अत्यंत वैभवशाली था और उसके घोड़े और गायें सर्वोत्तम थीं। सबसे बड़ी बात थी कि प्रभास तीर्थ के देवता भगवान सूर्य की उस पर विशेष कृपा थी। वह भगवान सूर्य का अनन्य उपासक था। भगवान सूर्य ने अपनी कृपा के चिह्न स्वरूप उसे स्यमंतक नाम की मणि प्रदान की थी। स्यमंतक मणि एक ऐसा चामत्कारिक रत्न था जिसकी समुचित पूजा करने पर वह निकृष्ट धातुओं को भी स्वर्ण में परिवर्तित कर देता था।

स्यमंतक मणि की सहायता से सत्रजित ने अकूत संपत्ति एकत्र कर ली थी और वह अभिमानी एवं अहंकारी हो गया था। सत्रजित कृष्ण से घोर शत्रुता रखता था और उन्हें अन्य यादव नायकों की तरह भगवान मानने को तैयार नहीं था। वह अपनी संपत्ति वैभव-विलास में उड़ा रहा था। दूसरी ओर कृष्ण उसकी संपदा का बड़ा भाग राज्य हित में लगाना चाहते थे, जिसके लिए सत्रजित बिलकुल तैयार नहीं था।

यादवों की धर्म रक्षा हेतु कृष्ण सत्रजित से मिलने उसके भवन गए। सत्रजित ने गले में स्यमंतक मणि धारण कर रखी थी। सूर्य के प्रकाश में मणि भव्यता के साथ दमक रही थी। ऐसा लगता था मानो एक छोटा सूर्य अपने प्रभा-मंडल के साथ उग आया हो। कृष्ण की दृष्टि मणि पर टिकी थी ऐसा सत्रजित को लग रहा था। कृष्ण ने सौहार्द्रपूर्ण ढंग से यादवों की रक्षा हेतु संपत्ति की माँग का प्रश्न उठाया पर अहंकारी सत्रजित ने उनकी एक बात भी नहीं मानी। उसे लगा कि कृष्ण उसकी मणि हथियाना चाहते हैं।

कृष्ण को नीचा दिखाने के लिए सत्रजित ने एक षड्यंत्र रचा। उसने मणि अपने भाई प्रसेनजित को देकर उसे जंगल में सूर्य देवता की पवित्र गुफा में रख देने के लिए कहा। प्रसेनजित के जाने के बाद सत्रजित ने पूरी द्वारिका में इस बात का प्रचार कर दिया कि कृष्ण ने उसकी स्यमंतक मणि चुरा ली है। कृष्ण छली और कपटी है। कृष्ण के लिए यह आरोप असहनीय था। वे नहीं चाहते थे कि यादवों का उनमें विश्वास टूट जाए। इसके लिए स्वयं को निरपराध सिद्ध करना आवश्यक था और स्यमंतक मणि को खोज लाना भी बहुत ज़रूरी था। अतः कृष्ण ने घोषणा की कि वे स्यमंतक मणि ढूँढ़ कर लाएँगे या आत्मघात कर लेंगे।

दुर्भाग्य से प्रसेनजित जब जंगल में जा रहा था तो उसका सामना भयंकर सिंह से हो गया। सिंह मणि की चमक से आकर्षित हो गया था। प्रसेनजित ने बहादुरी से सिंह का मुकाबला किया किंतु आखिर में उसके हाथों मारा गया। मणि लेकर सिंह कुछ दूर ही गया था कि उसकी मुठभेड़ एक विशालकाय रीछ से हुई। रोछ अत्यंत बलवान और शक्तिशाली था। सिंह रीछ के हाथों मारा गया और रीछ वह मणि लेकर अपनी गुफा में चला गया।

उधर सत्रजित अपने भाई के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था कि तभी उसे समाचार मिला कि प्रसेनजित जंगल में सिंह के हाथों मारा गया है। सत्रजित पर मानो वज्रपात हुआ। उसका अहंकार, आत्मविश्वास, यादवों पर आधिपत्य जमाने की महत्त्वाकांक्षा, सब ध्वस्त हो गया।

स्यमंतक मणि की खोज में शिकारी वेश में श्रीकृष्ण उसी जंगल में पहुँचे जहाँ प्रसेनजित गया था। बहुत खोजने पर उन्हें एक स्थान पर प्रसेनजित का मृत शरीर पड़ा मिला पर उसके पास स्यमंतक का कोई नामो निशान नहीं था, केवल उस जंजीर का कुछ भाग गले में लटका था जिसमें कृष्ण ने मणि को सत्रजित के गले में देखा था। कृष्ण को विश्वास हो गया कि मणि प्रसेनजित के ही पास थी।

कुछ दूर आगे चलने पर उन्हें झाड़ी के पास सिंह का मृत शरीर दिखाई दिया। सिंह के पंजे में प्रसेनजित के वस्त्र का टुकड़ा फँसा हुआ था। यह वही सिंह था जिसने प्रसेनजित को मारा था। सिंह के पास किसी विशालकाय रीछ के बड़े-बड़े पैरों के निशान थे। ये निशान एक दिशा में जा रहे थे। कृष्ण ने उन पदचिह्नों का पीछा किया तो वे एक गुफा के सामने पहुँच गए। कृष्ण को विश्वास था कि रीछ मणि लेकर इसी गुफा में गया है।

कृष्ण गुफा में प्रवेश कर गए। बड़ी अद्भुत थी वह गुफा। उसमें एक लंबा रास्ता था जो अंत में एक विशाल कक्ष में जाकर समाप्त हुआ। कृष्ण ने वहाँ कुछ रीछ बालकों को उस मणि के साथ खेलते देखा। संभवतः वह रीछों की गुफा थी।

तभी गुफा में घोर गर्जना हुई। श्रीकृष्ण ने देखा कि एक विशालकाय रीछ तेज़ी से उनकी ओर बढ़ा आ रहा है। कृष्ण के पास अवसर न था। अतः दोनों गुत्थमगुत्था होकर युद्ध करने लगे। दोनों एक दूसरे के वार को बचाने का प्रयास कर रहे थे। काफ़ी देर तक दोनों इसी प्रकार लड़ते रहे। रीछ वृद्ध होते हुए भी बड़ा शक्तिशाली था। अंत में कृष्ण ने रीछ को दोनों हाथों से उठाकर गुफा के फर्श पर पटक दिया।

रीछ के अचरज की सीमा न थी। उसे आज तक कोई हरा नहीं सका था। वास्तव में वह रीछ और कोई नहीं, रामायण काल का जांबवान था। जांबवान ने गौर से कृष्ण की ओर देखा। उसे श्रीकृष्ण में अपने प्रभु श्रीराम की छवि दिखाई दी। तुरंत जांबवान को प्रभु का दिया वायदा याद आ गया कि मैं द्वापर युग में एक बार तुमसे फिर मिलूँगा।

जांबवान श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा माँगने लगा। उसने अपने प्रभु राम को तुरंत क्यों नहीं पहचान लिया, इसका उसे बड़ा दुख था। उसके नेत्रों से अश्रु बहने लगे, शरीर पुलकित हो उठा। उसके आनंद की सीमा न रही। उसका जीवन सुफल हो गया था।

श्रीकृष्ण से जंगल में आने का कारण और गुफा तक पहुँचने की पूरी कहानी सुनने के बाद जांबवान ने वह मणि आदरपूर्वक कृष्ण को सौंप दी। अपने प्रभु के दर्शन पाने के लिए उसने लंबी प्रतीक्षा की थी। हर्षातिरेक में उसका कंठ अवरुद्ध हो गया। कृष्ण उसकी दशा समझ रहे थे।

जांबवान और उसके परिवार को आशीर्वाद देकर कृष्ण मणि लेकर गुफा से बाहर आ गए और सत्रजित से मिलने चल दिए।

स्यमंतक को दुबारा पाकर सत्रजित की खुशी का ठिकाना न था। उसकी आँखों से मोह व अहंकार का परदा हट गया था। श्रीकृष्ण के चरणों में गिरकर उसने अपने पापों के लिए क्षमा माँगी। कृष्ण को भी इस बात की खुशी थी कि द्वारिका पुरी के समस्त नागरिकों में अपने प्रति विश्वास को बचाने में वे सफल रहे थे। उन्होंने स्वयं को मणि की चोरी के आरोप से मुक्त कर लिया था। 





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