HINDI BLOG : बरसात की आती हवा kavita 'श्री हरिवंश राय बच्चन' /सप्रसंग व्याख्या

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Thursday, 11 August 2022

बरसात की आती हवा kavita 'श्री हरिवंश राय बच्चन' /सप्रसंग व्याख्या

  बरसात की आती हवा

1.       बरसात की आती हवा 

           वर्षा धुले आकाश से, 

           या चंद्रमा के पास से, 

           या बादलों की साँस से, 

            मंद-मुसकाती हवा, 

            बरसात की आती हवा। 


 शब्दार्थ :वर्षा = बरसात । आकाश = आसमान । मुसकाती= हँसते हुए। 

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक में संकलित 'बरसात की आती हवा' नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता 'श्री हरिवंश राय बच्चन' हैं। इन पंक्तियों में कवि ने बरसात के बाद में बहने वाली हवा का बड़ी सुंदरता से वर्णन किया है। 

व्याख्या / भावार्थ- इन पंक्तियों में कवि को बरसात होने के बाद आने वाली हवा का अहसास हो रहा है । वह अनुमान लगाते हैं कि यह हवा कहाँ-कहाँ से होकर ज़मीन  पर आती है। कवि कहते हैं कि यह वर्षा से धुले हुए आकाश से या चंद्रमा के पास से आती प्रतीत होती है। ऐसा लगता है जैसे यह हवा बादलों की साँस ही है। यह बरसाती हवा मधुरता लिए मस्त होकर बहने वाली हवा है। 


2. यह खेलती है ढाल से

   ऊँचे शिखर के भाल से, 

आकाश से पाताल से, 

झकझोर लहराती हवा, 

बरसात की आती हवा।  

शब्दार्थ: भाल = मस्तक । ढाल = ढलान / उतार । शिखर-पहाड़ । पाताल = ज़मीन के नीचे।  झकझोर- ज़ोर-ज़ोर। 

व्याख्या / भावार्थ- इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि बरसात की हवा ऊँच-ऊँचे पर्वतों के ढलान से और उनके मस्तक रूपी शिखरों से खेलती है। यह बरसात की हवा आकाश से पाताल तक सबको ज़ोर-ज़ोर से  हिलाकर लहराती हुई खेलती हुई आती है। 


3.   यह खेलती तरुमाल से, 

     यह खेलती हर डाल से, 

     हर एक लता के जाल से, 

     अठखेलती-इठलाती हवा, 

     बरसात की आती हवा। 

शब्दार्थ : तरुमाल = पेड़ों की कतार । डाल = पेड़ की डाली । लता = बेल । जाल = घनी । अठखेलती = खुशियों के साथ । इठलाती = इतराती । 

व्याख्या / भावार्थ : इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि बरसात की हवा पेड़ों की कतार में उसकी हर डाल के साथ खेलती है। यह घनी कोमल बेलों के साथ खुश होकर इतराती हुई खेलती हुई आती है। 

 

4. यह शून्य से होकर प्रकट, 

     नव हर्ष से आगे झपट, 

     हर अंग से जाती लिपट, 

    आनंद सरसाती हवा 

    बरसात की आती हवा। 

 शब्दार्थ: शून्य = आकाश । प्रकट = उत्पन्न् । नव = नया । हर्ष = खुशी , प्रसन्न । झपट = 

   बढ़ना । अंग = शरीर , मनुष्य। आनन्द = खुशी । सरसाती = फैलाती । 

 व्याख्या / भावार्थ - कवि कहते हैं कि बरसात की हवा खुले आकाश से मानो शून्य से प्रकट    

             होकर नयी खुशी के साथ आगे की ओर बहती है और सबसे लोगों के शरीरों से 

              लिपटी हुई खुशी के साथ बहती चली आती है। 



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