HINDI BLOG : सप्रसंग व्याख्या KAVITA यह धरती कितना देती है कवि- सुमित्रानंदन पंत

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

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Wednesday, 10 August 2022

सप्रसंग व्याख्या KAVITA यह धरती कितना देती है कवि- सुमित्रानंदन पंत

  


'यह धरती कितना देती है' कविता की सप्रसंग व्याख्या। 


1. मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे,

    सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,

    रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी 

    और फूल फलकर, मैं मोटा सेठ बनूँगा। 

    पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा, 

    बंध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला !

    मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,

    ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था !

प्रसंग: प्रस्तुत पंक्तियों के रचियता 'श्री सुमित्रानंदन पंत' जी हैं। इन पंक्तियाँ के माध्यम से कवि यह बताना चाहते हैं कि अज्ञानता व लोभवश बचपन में बोए पैसों से एक भी अंकुर न फूटने पर  उन्हें यह पता चल गया कि यह धरती स्वार्थी नहीं, परमार्थी है। वह परमार्थ की सुनहली फसलें उगती है। 

व्याख्या: पन्त जी कहते हैं कि मैंने बचपन में घरवालों से छिपाकर धरती में कुछ पैसे इस आशा के साथ दबा दिए थे कि इन पैसों से सुंदर तथा प्यारे-प्यारे पेड़ उगेंगे। जिन पर चमकीले तथा चाँदी के समान सुंदर रुपयों की फसलें उगेंगी और जब हवा का  झोंका आएगा तब ये रुपये पेड़ पर खनकेंगे। उन रुपयों को तोड़कर मैं इकठ्ठा करूँगा और थोड़े ही दिनों में मैं मोटा सेठ बन जाऊँगा। पर दुर्भाग्यवश उस बंजर ज़मीन पर पैसों का एक भी अंकुर नहीं निकला। कवि कहते हैं कि मैं अज्ञानी था, नासमझ था। मैंने अपनी नासमझी के कारण ही धरती में गलत बीज बोये थे।ऐसे बीजों से पेड़ उगने की आशा करना मूर्खता थी।  मैंने उन बीजों को अपनी ममता और प्रेम से बोया पर उसे सींचा अपने लोभ से था। 


2. अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे !

     मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की 

     गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर 

     बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे । 

     भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिए हों !

      मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को,

      और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!

      किन्तु, एक दिन जब मैं संध्या को आँगन में 

      टहल रहा था, तब सहसा, मैंने देखा, 

      उसे, हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से । 


व्याख्या : कवि कहते हैं कि पैसों के बीज बोने की घटना को बीते पचास वर्ष हो चुके हैं। उसके जीवन की अर्धशती लहराती हुई निकल गयी है।  तब से न जाने कितनी बार  ऋतुएँ आई और देखते देखते बीत गयी। कवि कहते हैं कि उसके जीवन में पुनः एक बार वर्षा ऋतु का आगमन हुआ, जब काजल की तरह काले-काले बादल हृदय में गहरी लालसा लेकर पृथ्वी पर बरस पड़े थे, तब कवि ने उत्सुकतावश अपने घर के  आँगन के कोने की गीली मिटटी की परत को उँगली से सहलाकर कुछ सेम के बीजों को मिटटी के नीचे दबा दिया था। कवि कहते हैं कि उन सेम के बीजों को बोना उन्हें ऐसा ही लगा जैसे मानों उन्होंने धरती के आँचल में मणि और माणिक्य के दानों को बो दिए हों। कवि कहते हैं कि उन बीजों को बोकर मैं भूल गया था क्योंकि यह घटना ऐसी नहीं थी कि जिसे मैं मन में रखता या याद रखता। लेकिन एक दिन जब में शाम के समय अपने आँगन में टहल रहा था, तब अचानक मेरे नज़र उस पर पड़ी और मैं ख़ुशी से झूम उठा।  


3.  देखा आँगन के कोने में कई नवागत 

     छोटी-छोटी छाता ताने खड़े हुए हैं। 

     छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,

     या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-

     जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे 

     पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे- 

     डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से !


व्याख्या-  कवि कहते हैं कि मैंने आँगन के कोने में जहाँ सेम के बीज बोये थे, उसमें सेम का अंकुर देखा। कवि उन आनंद की कोई सीमा नहीं रही। कवि ने देखा कि आँगन में अनेक नए-नए पौधे छोटे-छोटे छातों को तानकर खड़े हो गए हैं। यहाँ कवि पत्तों को छाते की तरह मान रहे हैं। कवि को लगता है कि जैसे वे अंकुरित पौधे अंडा तोड़कर निकले हुए पक्षियों के बच्चे हों, जो छोटे- छोटे पंखों को फैलाकर उड़ने का प्रयास कर रहे हैं। आशय यह है कि सेम के छोटे-छोटे पौधे जीवन की नई उड़ान भरने के लिए उत्सुक दिखाई दे रहे हैं।  



4. तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे 

    अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ, 

    हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे ! 

    बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा, 

    और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का 

    हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को, 

     मैं अवाक् रह गया- वंश कैसे बढ़ता है !

    झुंड-झुंड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी। 

    आह!  इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाईं, 

    कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ ! 


व्याख्या: कवि कहते हैं कि इन अंकुरित बीजों से निकल रहे पौधों की पलटन को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे सब एक साथ आगे बढ़ रही हैं। एक साथ फैली हुई बेलों ने अब झाड़ी का रूप ले लिया है। कवि उन्हें देखकर हर्षित मन से कहते हैं कि अनगिनत पत्तों की हरी-भरी बेल देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी ने आँगन में शामियाने टाँग दिए हैं। कवि ने उन बेलों को आगे बढ़ता देखकर उनके लिए अपने आँगन में बाँस की छोटी-सी छत बना दी। जिसका सहारा लेकर अनेक अंकुर उस पर फूटने लगे, आगे बढ़ने लगे। कवि इस प्रकार इनकी वंश वृद्धि को देखकर काफी हैरान हो जाते हैं।  सेम की लताएँ फूलों और तारों के समान बहुत ही सुंदर लग रही हैं। कवि बहुत प्रसन्न होते हुए कहते हैं कि इन सेम की बेलों पर इतनी फलियाँ लगी कि कवि ने पूरी सर्दियाँ उन फलियों को खाया। कवि कहते हैं कि सेम में इतनी अधिक फलियाँ निकली कि सुबह-शाम, पास-पड़ोस के लोग भी उन्हें खाते-खाते उब गए थे।


5.  यह धरती कितना देती है ! धरती माता 

     कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को ! 

     नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्त्व को, 

     बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बो कर ! 

     कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को ! 

     नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्त्व को, 

     बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बो कर ! 

     रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ। 

     इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;

     इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है, 

     इसमें मानव-ममता के दाने बोने है;

     जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें 

     मानवता की, जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ 

     हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे। 


व्याख्या: धरती माता की उदारता पर वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह धरती कितनी दानी है। यह अपने प्यारे पुत्रों को कितना स्नेह प्रदान करती है। अपने पुत्रों को कितना देती है। कवि अपनी लोभ प्रवृति और पैसा बोने वाली घटना को स्मरण कर उसकी  निंदा करते हुए कहते हैं कि बचपन में अज्ञानतावश जब उन्होंने गलत बीज मिट्टी में बो दिए थे, तब वे इस मिट्टी का, इस धरती का महत्त्व नहीं समझ पाए थे। वे अनजान थे, नहीं जानते थे कि धरती में कौन से बीज बोने चाहिए। कवि ने समय बीतने के साथ यह बात अच्छी तरह जान ली थी कि यह धरती तो रत्न उत्पन्न करती है इसमें लालच को नहीं बोया जाता। अगर इसमें हमें मानवता की सुनहरी फसलें उगानी है तो हमें सद्भावना, सहयोग, परिश्रम और प्रेम के बीज बोने होंगे। प्रकृति का नियम है जैसा बोयेंगे वैसा ही पाएँगे। 

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