HINDI BLOG : October 2023

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Sunday, 29 October 2023

पतझर में टूटी पत्तियाँ CLASS 10 FULL EXPLANATION

               पतझर में टूटी पत्तियाँ 

                                             गिन्नी का सोना, झेन की देन                                                           


                                                                                          लेखक : रवींद्र केलेकर

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                                                         गिन्नी का सोना

पहला प्रसंग हमें उन लोगों से परिचित कराता है जिनके कारण यह समाज जीने और रहने योग्य बना हुआ है। लेखक ने तीन प्रकार के लोगों का जिक्र इस पाठ में किया है : आदर्शवादी, व्यावहारिक तथा व्यावहारिक आदर्शवादी व्यक्ति और इन्हें स्पष्ट करने के लिए लेखक ने शुद्ध सोने और गिन्नी के सोने का उदाहरण दिया है।


प्रसंग का सारांश


शुद्ध सोने और गिन्नी के सोने में अंतर :


लेखक का मानना है कि शुद्ध सोना गिन्नी के सोने से भिन्न होता है। शुद्ध सोने को मजबूत और चमकदार बनाने के लिए उसमें थोड़ी मात्रा में ताँबा मिलाया जाता है। इससे वह सोना काम में लाने योग्य बन जाता है किंतु उसकी शुद्धता में थोड़ी कमी आ जाती है।


आदर्शवादिता और व्यावहारिकता :


लेखक ने शुद्ध सोने को शुद्ध आदर्शवादी लोगों का प्रतीक बनाया है और गिन्नी के सोने को व्यावहारिक आदर्शवादी लोगों का। जिस प्रकार आदर्शवादी लोग अपने आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिए उसमें व्यावहारिकता मिला लेते हैं ताकि उनके आदर्श समाज व देश के हित में प्रयोग में लाए जा सकें, उसी प्रकार शुद्ध सोने में ताँबा मिलाकर उसको प्रयोग में लाया जाता है।


प्रैक्टिकल आइडियलिस्ट के रूप में गांधीजी परिचय का :


लेखक ने गांधीजी का उदाहरण देते हुए बताया है कि वे व्यावहारिक आदर्शवादी व्यक्ति थे। अपने विलक्षण आदर्शों को चलाने के लिए व्यावहारिकता का महत्व भी समझते थे किंतु उन्होंने इस बात का हमेशा ध्यान रखा कि आदशों का स्तर नीचे न गिरे बल्कि व्यावहारिकता आदर्शों के स्तर पर पहुँच जाए। यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व में हमेशा सोना ही आगे आ रहा । ताँबे की चमक उस पर हावी नहीं हो सकी।


समाज में आदर्शवादी लोगों की भूमिका :


लेखक का मानना है कि हमारा समाज केवल आदर्शवादी लोगों के कारण ही जीने योग्य बना हुआ है। आदर्शवादी लोगों के कारण ही शाश्वत मूल्य जीवित हैं । व्यवहारवादी लोगों ने तो सदा उसे नीचे गिराने का ही काम किया है। यह सच है कि व्यवहारवादी लोग हमें सफल होते हुए, आगे बढ़ते हुए नजर आते हैं किंतु खुद आगे बढ़ें और दूसरों को भी साथ लेकर चलें, यही वास्तविक सफलता है।


झेन की देन        

यह दूसरा प्रसंग बौद्ध दर्शन में प्रचलित ध्यान की एक पद्धति को केंद्र में रखकर लिखा गया है। कहने को यह एक टी-सेरेमनी है, किंतु इसका वास्तविक उद्देश्य तनावग्रस्त व्यक्ति को तनावमुक्त करना है। लेखक ने ध्यान की इस प्रक्रिया को ही 'झेन की देन' नाम दिया है। झेन बौद्ध दर्शन की एक ऐसी परंपरा है जिसके माध्यम से जापान के लोग तनाव से भरे जीवन में कुछ चैन भरे पल पा जाते हैं, इसीलिए इसे देन कहा गया है।


जापान में मानसिक रोगों की अधिकता


जापान के अधिकांश लोग मानसिक रूप से रोगी हैं। इसका कारण है उनका भाग-दौड़ भरा जीवन। जापान जनसंख्या और भौगोलिक दृष्टि से छोटा देश है जबकि वह बड़े-बड़े देशों से आगे निकलने की कामना करता है। इसकी सारी जिम्मेदारी उस देश के नागरिकों के कंधों पर होती है। ऐसे में उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से जरूरत से ज्यादा काम करना पड़ता है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा व आर्थिक-सामाजिक दबावों के कारण उनके मस्तिष्क में तनाव पैदा होता है। यही तनाव मानसिक रोगों का रूप ले लेता है। तनाव मानसिक रोग के रूप में सामने आता है। हम इससे पूरी तरह सहमत है कि जब दिमाग पर ज़रूरत से बोझ डाला जाता है, तो एक सीमा के बाद वह काम करना बंद कर ही देता है और व्यक्ति को मनोरुग्ण बना देता है।


स्पीड का इंजन


जापान के लोग अपने देश को अन्य देशों से आगे निकालने की होड़ में अपने दिमाग से कहीं अधिक काम लेने की कोशिश करते हैं। हमारा दिमाग वैसे भी बहुत तेज़ गति से चलता है। जब उसे जानबूझकर बहुत तेज़ चलाया जाए, उससे जरूरत से ज्यादा काम लिया जाए तो वह ऐसी स्थिति होती है मानो किसी मशीन पर उसकी क्षमता से ज्यादा बोझ डाला जाए तो वह खराब हो जाती है। ऐसे ही दिमाग को अत्यधिक तीव्र गति से चलाएँ तो वह तनावग्रस्त हो जाता है और यही तनाव मानसिक रोगों का रूप ले लेता है।


जापान की विशेष टी-सेरेमनी


लेखक के मित्र उन्हें एक टी-सेरेमनी में ले गए जो वास्तव में ध्यान की एक विधि थी। इसका आयोजन एक इमारत की ऊपरी मंजिल पर किया गया था। पूर्ण प्राकृतिक वातावरण देने की कोशिश की गई थी। वहाँ पर आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल न करते हुए चाय अँगीठी पर बनाई जा रही थी। चाय बनाकर पिलाने वाला व्यक्ति चाजीन अपने सभी छोटे-बड़े कार्य बड़े सुव्यवस्थित ढंग से कर रहा था । वहाँ एक समय में केवल तीन लोगों को ही प्रवेश दिया जाता था ताकि वातावरण में शांति बनी रह सके।



Sunday, 22 October 2023

आत्मत्राण (प्रार्थना गीत) भावार्थ CLASS 10

आत्मत्राण (प्रार्थना गीत)


पाठ का भावार्थ व संदेश 


रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित यह प्रार्थना गीत परंपरागत प्रार्थना गीतों से अलग है क्योंकि कवि इसमें ईश्वर से जीवन के हर मार्ग को, विपत्ति को या कष्ट को सरल करने या हरण करने की प्रार्थना नहीं करते बल्कि वे तो ईश्वर से विपत्ति का सामना करने की शक्ति चाहते हैं, निर्भयता का वरदान चाहते हैं  ताकि वह संघर्षों से विचलित न हों । वे अपने लिए ईश्वर से सहायता नहीं; आत्मबल और पुरुषार्थ चाहते हैं। सांत्वना-दिलासा नहीं, बहादुरी चाहते हैं। वंचना, निराशा और दुखों के बीच प्रभु की कृपा, शक्ति और सत्ता में अटल विश्वास भाव चाहते हैं । कवि के अनुसार तैरने के लिए स्वयं ही हाथ-पैर मारने पड़ते हैं, तभी कोई तैराक बन पाता है, परीक्षा में सफलता के लिए आशीर्वाद तो लिया जा सकता है, पर परीक्षा स्वयं देनी पड़ती है। इसी प्रकार ईश्वर से निडरता का, शक्ति का और आस्था का वरदान तो लिया जाता है पर जीवन संग्राम में लड़ना तो हमें स्वयं ही करना है। चुनौतियों के बीच रास्ता बनाना हमें स्वयं आना चाहिए । यही इस कविता का संदेश है।



विशेष :

  • आत्मत्राण का अर्थ : स्वयं अपनी रक्षा करना। 

  • मूल रचना - बंगला भाषा में 

  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा हिंदी में अनूदित। 

  • कविता में कवि ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि कभी भी किसी विपत्ति में उनकी आंतरिक शक्ति तथा ईश्वर में विश्वास न हिलें। 

  • प्रत्येक मनुष्य को आपदाओं का सामना स्वयं ही करना पड़ता है, अतः उसके लिए उच्च मनोबल आवश्यक है और उसी को पाने के लिए कवि प्रभु से प्रार्थना कर रहे हैं। 

  • कवि प्रभु से बार-बार यही विनती करते हैं कि वे हर मुसीबत में उन्हें निर्भय रखें। किसी भी दुःख में वह ईश्वर पर संशय न करें। 


कविता का भावार्थ 

1. विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं 

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    मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं। 


भावार्थ : कवि प्रभु से कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपसे यह प्रार्थना नहीं करता कि आप मुझे संकटों से बचाओ। मैं केवल इतनी प्रार्थना करता हूँ कि आप दयावान हैं, मुझ पर अपनी करुणा बनाएँ रखें ताकि मैं किसी भी संकट में भयभीत न होऊँ । सब संकटों को सहर्ष झेल जाऊँ। यदि मेरा हृदय दुख और कष्ट से पीड़ित हो, तो चाहे आप मुझे सांत्वना के शब्द मत कहना। मैं अपने दुखों को स्वयं सहन कर लूँगा परंतु हे करुणामय प्रभु ! इतनी कृपा करना, मुझे उन दुखों को सहन करने की शक्ति अवश्य देना, उन पर नियंत्रण करने की ताकत जरूर देना । हे प्रभु! यदि मुसीबत में मुझे कोई सहायता करने वाला न मिले तो कोई बात नहीं, मेरी प्रार्थना है कि मेरा अपना बल और पराक्रम डाँवाडोल न हो। मुसीबत में घबरा न जाऊँ। मेरा अपना बल ही मेरे काम आ जाए। यदि लाभ मुझे हर बार धोखा देता रहे और मुझे हानि ही हानि उठानी पड़े, तो भी मैं मन में अपना सर्वनाश न मान बैठूँ, मैं निराशा से न भर जाऊँ। मैं नहीं चाहता कि तुम प्रतिदिन हर संकट में मेरी रक्षा करो। मेरा बचाव करो, यह निवेदन नहीं है।


शिल्प-सौंदर्य-

1. कवि परमात्मा से ऐसी शक्ति चाहते हैं जिससे वह विपत्तियों से भयभीत न हों और उनका सहर्ष मुकाबला   

     कर सकें।

2. खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

3. संस्कृत के शब्दों का प्रयोग ईश्वर की प्रार्थना के कारण किया गया है।

4. भाषा अत्यंत विनयपूर्ण है। अनुवाद होते हुए भी इसमें मौलिक कविता का स्वाद है ।

5. आत्मकथन और संबोधन शैली के कारण यह काव्यांश मनोरम बन पड़ा है।

6. कवि का आस्थावादी व्यक्तित्व प्रकट हुआ है।

7. मुक्त छंद की रचना है ।

8. अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है ।


2. बस इतना होवे (करुणामय)

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    तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय।।




भावार्थ : कवि प्रभु से निवेदन करते हुए कहते हैं  कि हे प्रभु! बस मेरा निवेदन यह है कि तुम मुझे हर संकट से उबरने की अविकल शक्ति दो। मैं स्वस्थ मन से संकट से पार उतर सकूँ। यदि मेरे दुख में आप मुझे तसल्ली नहीं देते तो न दें! मैं मानता | हूँ कि इससे मेरे जीवन का दुख भार कम न होगा, मैं उस दुख भार को सहन कर लूँगा परंतु आपसे विनयपूर्ण प्रार्थना यह है कि आप मुझे इस दुख को सहन करने की शक्ति दो। मैं दुख की इस घड़ी में भयभीत न हो जाऊँ, इतनी शक्ति अवश्य दें। सुख के क्षणों में सिर झुकाकर हर क्षण आपकी छवि को देखूँ। हर सुख को आपकी कृपा मानूँ। जब मैं दुख की रात से घिर जाऊँ तब भी है करुणामय ईश्वर! मुझे इतनी शक्ति दो कि मैं आप पर किसी प्रकार का संदेह न करूँ। मेरे मन में आपके प्रति भक्ति भाव बना रहे।


शिल्प-सौंदर्य-

1. कवि परमात्मा से प्रत्येक स्थिति में समस्त कठिनाइयों को सहज रूप में स्वीकार कर उनका मुकाबला करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करते हैं।

2. खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

3. संस्कृत के शब्दों का प्रयोग ईश्वर की प्रार्थना के कारण किया गया है।

4. भाषा अत्यंत विनयपूर्ण है। अनुवाद होते हुए भी इसमें मौलिक कविता का स्वाद है। 5. आत्मकथन और संबोधन शैली के कारण यह काव्यांश मनोरम बन पड़ा है।

6. कवि का आस्थावादी व्यक्तित्व प्रकट हुआ है।

7. मुक्त छंद की रचना है।

8. (i) अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।

    (ii) 'छिन छिन' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है ।

    (ii) 'दुख-रात्रि' में रूपक अलंकार है ।




Thursday, 12 October 2023

जितनी चादर, उतना पैर - कहानी

जितनी चादर, उतना पैर कहानी 

अत्यंत गरीब परिवार का एक बेरोजगार युवक नौकरी की तलाश में किसी दूसरे शहर जाने के लिए रेलगाड़ी में सफर कर रहा था। घर में कभी-कभार ही सब्जी बनती थी, इसलिए उसने रास्ते में खाने के लिए सिर्फ रोटियाँ हो रखी थीं। आधा रास्ता गुजर जाने के बाद उसे भूख लगने लगी और वह टिफिन में से रोटियाँ निकालकर खाने लगा। उसके खाने का तरीका कुछ अजीब था। वह रोटी का एक टुकड़ा लता और उसे टिफिन के अंदर कुछ ऐसे डालता, मानो रोटी के साथ कुछ और भी खा रहा हो, जबकि उसके पास तो सिर्फ रोटियाँ थीं उसकी इस हरकत को आस- पास के दूसरे यात्री देख कर हैरान हो रहे थे। वह युवक हर बार रोटी का एक टुकड़ा लेता और उसे झूठमूठ का टिफिन में डालता और खाता। सभी यह सोच रहे थे कि आखिर वह युवक ऐसा क्या कर रहा है? आखिरकार, एक व्यक्ति से रहा नहीं गया और उसने युवक से पूछ ही लिया कि भैया तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? तुम्हारे पास सब्जी तो है ही नहीं,  फिर रोटी के टुकड़े को हर बार खाली टिफिन में डालकर ऐसे खा रहे हो, मानो उसमें सब्जी हो?

तब उस युवक ने जवाब दिया, "भैया, इस खाली ढक्कन में सब्जी नहीं है लेकिन मैं अपने मन में यह सोचकर खा रहा हूँ कि इसमें बहुत सारा अचार है।"

फिर उस व्यक्ति ने पूछा, "खाली ढक्कन में अचार सोचकर सूखी रोटी को खा रहे हो, तो क्या तुम्हें अचार का स्वाद आ रहा है?"

"हाँ बिलकुल आ रहा है, मैं रोटी के साथ अचार सोचकर खा रहा हूँ और मुझे बहुत अच्छा भी लग रहा है।" युवक ने जवाब दिया।

उसके इस बात को आस-पास के यात्रियों ने भी सुना और उन्हीं में एक व्यक्ति बोला- “जब सोचना ही था, तो तुम अचार की जगह पर मटर पनीर सोचते, शाही पनीर सोचते... तुम्हें इनका स्वाद मिल जाता तुम्हारे कहने के मुताबिक तुमने अचार सोचा, तो अचार का स्वाद आया। यदि और स्वादिष्ट चीजों के बारे में सोचते तो उनका स्वाद आता सोचना ही था तो भला छोटा क्यों सोचा, तुम्हें तो बड़ा सोचना चाहिए था।"

बेरोजगार युवक ने उस यात्री से कहा- "भाईसाहब! मैं बहुत ही गरीब परिवार से हूँ। मेरे घर पर बहुत बार ऐसा होता है कि रोटी के साथ सब्जी नहीं बनती है। तब में अचार से ही रोटी खाकर संतुष्ट हो जाता हूँ। यदि मैं आज अचार की बात न सोचकर किसी ऐसी सब्जी की सोचता, जिसे मैंने कभी चखकर ही नहीं देखा, तो उसका स्वाद कैसे आता ? मैं उसी स्वाद की कल्पना कर सकता हूँ, जिसे मैंने चखा हो। यदि मैं यह सब सोचता तो घर पर मुझे सचमुच में भी अचार खाकर खुशी नहीं मिलती। मेरा तो एक सिद्धांत है जितनी चादर, उतना पैर" यह सुनकर सभी यात्री चुप हो गए।

Wednesday, 4 October 2023

गीत-अगीत (कविता) भावार्थ

गीत-अगीत (कविता)

रामधारी सिंह 'दिनकर'


1. गाकर गीत विरह—------------------------------------ कौन सुंदर है। 


भावार्थ : रामधारी सिंह दिनकर ने प्रस्तुत पंक्तियों में प्राकृतिक वस्तुओं का मानवीकरण किया है। प्राकृतिक सौंदर्य के अतिरिक्त जीव-जंतुओं के ममत्व और प्रेमभाव का अत्यंत सुंदर ढंग से वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि नदी अपनी कल-कल की ध्वनि से अपनी विरह का बखान कर रही हैं। वह तीव्र गति से बहते हुए अपने मन की बात बताना चाहती है। अपने किनारे पड़े पत्थरों को अपनी विरह की कहानी सुनाना चाहती है। ( नदी का बहता पानी किनारों से जब टकराता है तो एक गूँज उत्पन्न करता है।) नदी के किनारे खड़ा गुलाब शांत एवं मौन है। वह बोल नहीं पाता, मगर मन में यह विचार करता रहता है कि विधाता ने यदि उसे भी वाणी दी होती, अगर वह भी बोल पाता तो अपने मन की बात बता देता। अपने पतझड़ की पीड़ा सुनाकर वह भी अपना मन हलका कर लेता। अब तो वह बोल नहीं पा रहा और अपने मन की बात मन में ही रखकर उदास है। एक मौन है (गुलाब) और एक मुखर है। (नदी) गीत-अगीत में से कौन सुंदर है।


 शिल्प-सौंदर्य :

1. प्राकृतिक सौंदर्य का सजीव वर्णन किया गया है। 

2. भाषा सरल, सरस एवं प्रभावशाली है। तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है। 

3. भाषा शैली उदाहरणात्मक, भावात्मक एवं चित्रात्मक है। 

4. खड़ी बोली का प्रयोग है। 

5. अनुप्रास तथा मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है। 


2. बैठा शुक उस डाल ………………………………………कौन सुंदर है ?


 भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में 'दिनकर' जी ने शुक के मुखर एवं शुकी के 'मौन' का वर्णन करते हुए कहते हैं कि शुक उस डाली पर बैठा है जिसकी छाया उसके घोंसले को मिल रही है। उसके अंडों को धूप न लगे, इसलिए ही शुक उस डाली पर है।  उसी घोंसले में शुकी अपने पंख फुलाकर अपने अंडों को से रही है। सूर्य की बसंती किरणें जब पत्तों से छनकर आती हैं और शुक के अंगों को छूती हैं, तो वह गा उठता है। शुक मुख से बोलकर ऊँचे स्वर में अपने मन की बात कह लेता है। उधर शुकी मन-ही-मन शुक के समान बोल पाने की इच्छा व्यक्त करती है परंतु उसके मन में उठने वाले गीत प्रेम और वात्सल्य में डूबकर रह जाते हैं। वह अपने बच्चों के स्नेह में डूबी-डूबी उन गीतों को अंदर-ही-अंदर अनुभव करती है। शुक का स्वर वन में चारों ओर गूँज रहा है, किंतु शुकी अपने पंखों को अंडों पर फुलाए हुए मग्न है। दोनों ही सुंदर हैं। शुक का स्नेह मुखर है  और शुकी का मौन । एक का स्वर गीत कहलाता है, दूसरे का मौन अगीत कहलाता है। कवि जानना चाहते हैं कि इन दोनों में से कौन श्रेष्ठ या सुंदर है।


शिल्प सौंदर्य :

1. कवि ने प्राकृतिक सौंदर्य का सजीव वर्णन किया है। 

2. खड़ी बोली का प्रयोग है। 

3. भाषा में लयात्मकता एवं गीतात्मकता है। 

4. तत्सम शब्द का रूप स्पष्ट दिखाई देता है। 

5. 'सनेह-सनकर' में 'स' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है।


3. दो प्रेमी है यहाँ…………………………………कौन सुंदर है ?


भावार्थ - कवि कहता है कि दो प्रेमियों के प्रेम का अंतर देखो। एक प्रेमी साँझ होते ही आल्हा-गीत गाने लगता है। जैसे ही उसके मुख से आल्हा का पहला स्वर फूटता है, वैसे ही उसकी राधा घर से वहाँ खिंची चली आती है। वह नीम की छाया में छिपकर उसका मधुर गीत सुनती है। गीत पर मुग्ध होकर वह सोचती है कि हे विधाता ! मैं इस मधुर गीत की पंक्ति ही क्यों न बन गई? काश! मैं इसके मधुर गीत में खो जाती। देखो, प्रेमी गाता है और उसके गान को सुनकर उसकी प्रेमिका का हृदय नाच उठता है। एक का प्रेम प्रकट है तो दूसरों का मौन। एक गाया जाने के कारण गीत है तो दूसरा मौन होने के कारण 'अगीत' है। बताइए, इन दोनों में कौन अधिक सुंदर है?


शिल्प-सौंदर्य-

1. गीत व अगीत के बीच ममत्व, मानवीय प्रेम और प्रेमभाव का सजीव चित्रण किया गया है।

2. खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

3. तत्सम प्रधान शब्दावली का प्रयोग किया गया है।

4. भाषा में लयात्मकता व गीतात्मकता है।

5. भाषा सरल, सरस व प्रवाहमयी है।

6. भावात्मक व उदाहरणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।

7. चित्रात्मक होने के कारण वर्णन सजीव व रोचक बन पड़ा है।

8. ‘चोरी-चोरी’, ‘गा-गाकर' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है ।