पतझर में टूटी पत्तियाँ
गिन्नी का सोना, झेन की देन
लेखक : रवींद्र केलेकर
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गिन्नी का सोना
पहला प्रसंग हमें उन लोगों से परिचित कराता है जिनके कारण यह समाज जीने और रहने योग्य बना हुआ है। लेखक ने तीन प्रकार के लोगों का जिक्र इस पाठ में किया है : आदर्शवादी, व्यावहारिक तथा व्यावहारिक आदर्शवादी व्यक्ति और इन्हें स्पष्ट करने के लिए लेखक ने शुद्ध सोने और गिन्नी के सोने का उदाहरण दिया है।
प्रसंग का सारांश
शुद्ध सोने और गिन्नी के सोने में अंतर :
लेखक का मानना है कि शुद्ध सोना गिन्नी के सोने से भिन्न होता है। शुद्ध सोने को मजबूत और चमकदार बनाने के लिए उसमें थोड़ी मात्रा में ताँबा मिलाया जाता है। इससे वह सोना काम में लाने योग्य बन जाता है किंतु उसकी शुद्धता में थोड़ी कमी आ जाती है।
आदर्शवादिता और व्यावहारिकता :
लेखक ने शुद्ध सोने को शुद्ध आदर्शवादी लोगों का प्रतीक बनाया है और गिन्नी के सोने को व्यावहारिक आदर्शवादी लोगों का। जिस प्रकार आदर्शवादी लोग अपने आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिए उसमें व्यावहारिकता मिला लेते हैं ताकि उनके आदर्श समाज व देश के हित में प्रयोग में लाए जा सकें, उसी प्रकार शुद्ध सोने में ताँबा मिलाकर उसको प्रयोग में लाया जाता है।
प्रैक्टिकल आइडियलिस्ट के रूप में गांधीजी परिचय का :
लेखक ने गांधीजी का उदाहरण देते हुए बताया है कि वे व्यावहारिक आदर्शवादी व्यक्ति थे। अपने विलक्षण आदर्शों को चलाने के लिए व्यावहारिकता का महत्व भी समझते थे किंतु उन्होंने इस बात का हमेशा ध्यान रखा कि आदशों का स्तर नीचे न गिरे बल्कि व्यावहारिकता आदर्शों के स्तर पर पहुँच जाए। यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व में हमेशा सोना ही आगे आ रहा । ताँबे की चमक उस पर हावी नहीं हो सकी।
समाज में आदर्शवादी लोगों की भूमिका :
लेखक का मानना है कि हमारा समाज केवल आदर्शवादी लोगों के कारण ही जीने योग्य बना हुआ है। आदर्शवादी लोगों के कारण ही शाश्वत मूल्य जीवित हैं । व्यवहारवादी लोगों ने तो सदा उसे नीचे गिराने का ही काम किया है। यह सच है कि व्यवहारवादी लोग हमें सफल होते हुए, आगे बढ़ते हुए नजर आते हैं किंतु खुद आगे बढ़ें और दूसरों को भी साथ लेकर चलें, यही वास्तविक सफलता है।
झेन की देन
यह दूसरा प्रसंग बौद्ध दर्शन में प्रचलित ध्यान की एक पद्धति को केंद्र में रखकर लिखा गया है। कहने को यह एक टी-सेरेमनी है, किंतु इसका वास्तविक उद्देश्य तनावग्रस्त व्यक्ति को तनावमुक्त करना है। लेखक ने ध्यान की इस प्रक्रिया को ही 'झेन की देन' नाम दिया है। झेन बौद्ध दर्शन की एक ऐसी परंपरा है जिसके माध्यम से जापान के लोग तनाव से भरे जीवन में कुछ चैन भरे पल पा जाते हैं, इसीलिए इसे देन कहा गया है।
जापान में मानसिक रोगों की अधिकता
जापान के अधिकांश लोग मानसिक रूप से रोगी हैं। इसका कारण है उनका भाग-दौड़ भरा जीवन। जापान जनसंख्या और भौगोलिक दृष्टि से छोटा देश है जबकि वह बड़े-बड़े देशों से आगे निकलने की कामना करता है। इसकी सारी जिम्मेदारी उस देश के नागरिकों के कंधों पर होती है। ऐसे में उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से जरूरत से ज्यादा काम करना पड़ता है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा व आर्थिक-सामाजिक दबावों के कारण उनके मस्तिष्क में तनाव पैदा होता है। यही तनाव मानसिक रोगों का रूप ले लेता है। तनाव मानसिक रोग के रूप में सामने आता है। हम इससे पूरी तरह सहमत है कि जब दिमाग पर ज़रूरत से बोझ डाला जाता है, तो एक सीमा के बाद वह काम करना बंद कर ही देता है और व्यक्ति को मनोरुग्ण बना देता है।
स्पीड का इंजन
जापान के लोग अपने देश को अन्य देशों से आगे निकालने की होड़ में अपने दिमाग से कहीं अधिक काम लेने की कोशिश करते हैं। हमारा दिमाग वैसे भी बहुत तेज़ गति से चलता है। जब उसे जानबूझकर बहुत तेज़ चलाया जाए, उससे जरूरत से ज्यादा काम लिया जाए तो वह ऐसी स्थिति होती है मानो किसी मशीन पर उसकी क्षमता से ज्यादा बोझ डाला जाए तो वह खराब हो जाती है। ऐसे ही दिमाग को अत्यधिक तीव्र गति से चलाएँ तो वह तनावग्रस्त हो जाता है और यही तनाव मानसिक रोगों का रूप ले लेता है।
जापान की विशेष टी-सेरेमनी
लेखक के मित्र उन्हें एक टी-सेरेमनी में ले गए जो वास्तव में ध्यान की एक विधि थी। इसका आयोजन एक इमारत की ऊपरी मंजिल पर किया गया था। पूर्ण प्राकृतिक वातावरण देने की कोशिश की गई थी। वहाँ पर आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल न करते हुए चाय अँगीठी पर बनाई जा रही थी। चाय बनाकर पिलाने वाला व्यक्ति चाजीन अपने सभी छोटे-बड़े कार्य बड़े सुव्यवस्थित ढंग से कर रहा था । वहाँ एक समय में केवल तीन लोगों को ही प्रवेश दिया जाता था ताकि वातावरण में शांति बनी रह सके।
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