HINDI BLOG : आत्मत्राण (प्रार्थना गीत) भावार्थ CLASS 10

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

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Sunday, 22 October 2023

आत्मत्राण (प्रार्थना गीत) भावार्थ CLASS 10

आत्मत्राण (प्रार्थना गीत)


पाठ का भावार्थ व संदेश 


रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित यह प्रार्थना गीत परंपरागत प्रार्थना गीतों से अलग है क्योंकि कवि इसमें ईश्वर से जीवन के हर मार्ग को, विपत्ति को या कष्ट को सरल करने या हरण करने की प्रार्थना नहीं करते बल्कि वे तो ईश्वर से विपत्ति का सामना करने की शक्ति चाहते हैं, निर्भयता का वरदान चाहते हैं  ताकि वह संघर्षों से विचलित न हों । वे अपने लिए ईश्वर से सहायता नहीं; आत्मबल और पुरुषार्थ चाहते हैं। सांत्वना-दिलासा नहीं, बहादुरी चाहते हैं। वंचना, निराशा और दुखों के बीच प्रभु की कृपा, शक्ति और सत्ता में अटल विश्वास भाव चाहते हैं । कवि के अनुसार तैरने के लिए स्वयं ही हाथ-पैर मारने पड़ते हैं, तभी कोई तैराक बन पाता है, परीक्षा में सफलता के लिए आशीर्वाद तो लिया जा सकता है, पर परीक्षा स्वयं देनी पड़ती है। इसी प्रकार ईश्वर से निडरता का, शक्ति का और आस्था का वरदान तो लिया जाता है पर जीवन संग्राम में लड़ना तो हमें स्वयं ही करना है। चुनौतियों के बीच रास्ता बनाना हमें स्वयं आना चाहिए । यही इस कविता का संदेश है।



विशेष :

  • आत्मत्राण का अर्थ : स्वयं अपनी रक्षा करना। 

  • मूल रचना - बंगला भाषा में 

  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा हिंदी में अनूदित। 

  • कविता में कवि ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि कभी भी किसी विपत्ति में उनकी आंतरिक शक्ति तथा ईश्वर में विश्वास न हिलें। 

  • प्रत्येक मनुष्य को आपदाओं का सामना स्वयं ही करना पड़ता है, अतः उसके लिए उच्च मनोबल आवश्यक है और उसी को पाने के लिए कवि प्रभु से प्रार्थना कर रहे हैं। 

  • कवि प्रभु से बार-बार यही विनती करते हैं कि वे हर मुसीबत में उन्हें निर्भय रखें। किसी भी दुःख में वह ईश्वर पर संशय न करें। 


कविता का भावार्थ 

1. विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं 

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    मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं। 


भावार्थ : कवि प्रभु से कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपसे यह प्रार्थना नहीं करता कि आप मुझे संकटों से बचाओ। मैं केवल इतनी प्रार्थना करता हूँ कि आप दयावान हैं, मुझ पर अपनी करुणा बनाएँ रखें ताकि मैं किसी भी संकट में भयभीत न होऊँ । सब संकटों को सहर्ष झेल जाऊँ। यदि मेरा हृदय दुख और कष्ट से पीड़ित हो, तो चाहे आप मुझे सांत्वना के शब्द मत कहना। मैं अपने दुखों को स्वयं सहन कर लूँगा परंतु हे करुणामय प्रभु ! इतनी कृपा करना, मुझे उन दुखों को सहन करने की शक्ति अवश्य देना, उन पर नियंत्रण करने की ताकत जरूर देना । हे प्रभु! यदि मुसीबत में मुझे कोई सहायता करने वाला न मिले तो कोई बात नहीं, मेरी प्रार्थना है कि मेरा अपना बल और पराक्रम डाँवाडोल न हो। मुसीबत में घबरा न जाऊँ। मेरा अपना बल ही मेरे काम आ जाए। यदि लाभ मुझे हर बार धोखा देता रहे और मुझे हानि ही हानि उठानी पड़े, तो भी मैं मन में अपना सर्वनाश न मान बैठूँ, मैं निराशा से न भर जाऊँ। मैं नहीं चाहता कि तुम प्रतिदिन हर संकट में मेरी रक्षा करो। मेरा बचाव करो, यह निवेदन नहीं है।


शिल्प-सौंदर्य-

1. कवि परमात्मा से ऐसी शक्ति चाहते हैं जिससे वह विपत्तियों से भयभीत न हों और उनका सहर्ष मुकाबला   

     कर सकें।

2. खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

3. संस्कृत के शब्दों का प्रयोग ईश्वर की प्रार्थना के कारण किया गया है।

4. भाषा अत्यंत विनयपूर्ण है। अनुवाद होते हुए भी इसमें मौलिक कविता का स्वाद है ।

5. आत्मकथन और संबोधन शैली के कारण यह काव्यांश मनोरम बन पड़ा है।

6. कवि का आस्थावादी व्यक्तित्व प्रकट हुआ है।

7. मुक्त छंद की रचना है ।

8. अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है ।


2. बस इतना होवे (करुणामय)

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    तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय।।




भावार्थ : कवि प्रभु से निवेदन करते हुए कहते हैं  कि हे प्रभु! बस मेरा निवेदन यह है कि तुम मुझे हर संकट से उबरने की अविकल शक्ति दो। मैं स्वस्थ मन से संकट से पार उतर सकूँ। यदि मेरे दुख में आप मुझे तसल्ली नहीं देते तो न दें! मैं मानता | हूँ कि इससे मेरे जीवन का दुख भार कम न होगा, मैं उस दुख भार को सहन कर लूँगा परंतु आपसे विनयपूर्ण प्रार्थना यह है कि आप मुझे इस दुख को सहन करने की शक्ति दो। मैं दुख की इस घड़ी में भयभीत न हो जाऊँ, इतनी शक्ति अवश्य दें। सुख के क्षणों में सिर झुकाकर हर क्षण आपकी छवि को देखूँ। हर सुख को आपकी कृपा मानूँ। जब मैं दुख की रात से घिर जाऊँ तब भी है करुणामय ईश्वर! मुझे इतनी शक्ति दो कि मैं आप पर किसी प्रकार का संदेह न करूँ। मेरे मन में आपके प्रति भक्ति भाव बना रहे।


शिल्प-सौंदर्य-

1. कवि परमात्मा से प्रत्येक स्थिति में समस्त कठिनाइयों को सहज रूप में स्वीकार कर उनका मुकाबला करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करते हैं।

2. खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

3. संस्कृत के शब्दों का प्रयोग ईश्वर की प्रार्थना के कारण किया गया है।

4. भाषा अत्यंत विनयपूर्ण है। अनुवाद होते हुए भी इसमें मौलिक कविता का स्वाद है। 5. आत्मकथन और संबोधन शैली के कारण यह काव्यांश मनोरम बन पड़ा है।

6. कवि का आस्थावादी व्यक्तित्व प्रकट हुआ है।

7. मुक्त छंद की रचना है।

8. (i) अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।

    (ii) 'छिन छिन' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है ।

    (ii) 'दुख-रात्रि' में रूपक अलंकार है ।




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