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कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Sunday, 29 June 2025

कहानी 'आप जीत सकते हैं'



'आप जीत सकते हैं

एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में एक डॉलर डाला, लेकिन कोई पेंसिल नहीं ली। फिर वह ट्रेन में चढ़ गया, लेकिन दरवाज़े बंद होने से ठीक पहले, कार्यकारी अधिकारी अचानक ट्रेन से बाहर निकला और भिखारी के पास वापस  गया। उसने पेंसिलों का एक गुच्छा पकड़ा, और कहा, "मैं कुछ पेंसिल लूँगा। उनकी कीमत सही है। आखिरकार, आप एक व्यवसायी व्यक्ति हैं और मैं भी," और वह वापस ट्रेन में चढ़ गया। छह महीने बाद, कार्यकारी अधिकारी एक पार्टी में गया। भिखारी भी वहाँ था, सूट और टाई पहने हुए। भिखारी ने कार्यकारी अधिकारी को पहचान लिया, उसके पास गया, और कहा, "आप शायद मुझे नहीं पहचानते, लेकिन मुझे याद है।" फिर उसने छह महीने पहले हुई घटना के बारे में बताया। कार्यकारी अधिकारी ने कहा, "अब जब आपने मुझे याद दिलाया है, तो मुझे याद है कि आप भीख माँग रहे थे। आप यहाँ सूट और टाई पहनकर क्या कर रहे हैं?" भिखारी ने जवाब दिया, "शायद आपको पता नहीं है कि आपने उस दिन मेरे लिए क्या किया। आप मेरे जीवन में पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने मुझे दान देने के बजाय, मेरी गरिमा वापस लौटाई, जब आपने पेंसिलों का एक गुच्छा पकड़ा और कहा, 'इनकी कीमत सही है। आखिरकार, आप एक व्यवसायी व्यक्ति हैं और मैं भी।' आपके जाने के बाद, मैंने खुद से सोचना शुरू किया-मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? मैं भीख क्यों माँग रहा हूँ? मैंने अपने जीवन के साथ कुछ रचनात्मक करने का फैसला किया। मैंने अपना बैग पैक किया, काम करना शुरू किया और यहाँ मैं हूँ। मैं बस आपको मेरी गरिमा वापस देने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ। उस घटना ने मेरी ज़िंदगी बदल दी।"

भिखारी के जीवन में क्या बदला ? जो बदला वह था उसका 'आत्म-रूपांतरण' था।

Saturday, 21 June 2025

भक्ति कथा : मणिदास पर भगवान जगन्नाथ की कृपा

 मणिदास पर भगवान जगन्नाथ की कृपा 

श्री जगन्नाथ पुरी धाम में मणिदास नाम के माली रहते थे। इनकी जन्म तिथि का ठीक ठीक पता नहीं है परंतु संत बताते है कि मणिदास जी का जन्म संवत् 1600 के लगभग जगन्नाथ पुरी में हुआ था। फूल-माला बेचकर जो कुछ मिलता था, उसमें से साधु-ब्राह्मणों की वे सेवा भी करते थे, दीन-दु:खियों को, भूखों को भी दान करते थे और अपने कुटुम्‍ब का काम भी चलाते थे। अक्षर-ज्ञान मणिदास ने नहीं पाया था; पर यह सच्‍ची शिक्षा उन्‍होंने ग्रहण कर ली थी कि दीन-दु:खी प्राणियों पर दया करनी चाहिये और दुष्‍कर्मो का त्‍याग करके भगवान का भजन करना चाहिये। संतो में इनका बहुत भाव था और नित्य मणिराम जी सत्संग में जाया करते थे।

मणिराम का एक छोटा सा खेत था जहां पर यह सुंदर फूल उगाता। मणिराम माली प्रेम से फूलों की माला बनाकर जगन्नाथ जी के मंदिर के सामने ले जाकर बेचनेे के लिए रखता। एक माला सबसे पहले भगवान को समर्पित करता और शेष मालाएं भगवान के दर्शनों के लिए आने वाले भक्तों को बेच देता। फूल मालाएं बेचकर जो कुछ धन आता उसमे साधू संत, गौ सेवा करता और बचे हुए धन से अपने परिवार का पालन पोषण करता था। कुछ समय बाद मणिदास के स्‍त्री-पुत्र एक भयंकर रोग की चपेट में आ गए और एक-एक करके सबका परलोक वास हो गया। जो संसार के विषयों में आसक्त, माया-मोह में लिपटे प्राणी हैं, वे सम्‍पत्ति तथा परिवार का नाश होने पर दु:खी होते हैं और भगवान को दोष देते हैं; किंतु मणिदास ने तो इसे भगवान की कृपा मानी।

उन्‍होंने सोचा- मेरे प्रभु कितने दयामय हैं कि उन्‍होंने मुझे सब ओर से बन्‍धन-मुक्त कर दिया। मेरा मन स्‍त्री-पुत्र को अपना मानकर उनके मोह में फँसा रहता था, श्री हरि ने कृपा करके मेरे कल्‍याण के लिये अपनी वस्‍तुएँ लौटा लीं। मैं मोह-मदिरा से मतवाला होकर अपने सच्‍चे कर्तव्‍य को भूला हुआ था। अब तो जीवन का प्रत्‍येक क्षण प्रभु के स्‍मरण में लगाउँगा। मणिदास अब साधु के वेश में अपना सारा जीवन भगवान के भजन में ही बिताने लगे। हाथों में करताल लेकर प्रात: काल ही स्‍नानादि करके वे श्री जगन्नाथ जी के सिंह द्वार पर आकर कीर्तन प्रारम्‍भ कर देते थे। कभी-कभी प्रेम में उन्‍मत्त होकर नाचने लगते थे। मन्दिर के द्वार खुलने पर भीतर जाकर श्री जगन्‍नाथ जी की मूर्ति के पास गरुड़-स्‍तम्‍भ के पीछे खड़े होकर देर तक अपलक दर्शन करते रहते और फिर साष्‍टांग प्रणाम करके कीर्तन करने लगते थे।

कीर्तन के समय मणिदास को शरीर की सुधि भूल जाती थी। कभी नृत्‍य करते, कभी खड़े रह जाते। कभी गाते, स्‍तुति करते या रोने लगते। कभी प्रणाम करते, कभी जय-जयकार करते और कभी भूमि में लोटने लगते थे। उनके शरीर में अश्रु, स्‍वेद, कम्‍प, रोमांच आदि आठों सात्त्विक भावों का उदय हो जाता था। उस समय श्री जगन्नाथ जी के मन्दिर में मण्‍डप के एक भाग में पुराण की कथा हुआ करती थी। कथावाचक जी विद्वान तो थे, पर भगवान की भक्ति उनमें नहीं थी। वे कथा में अपनी प्रतिभा से ऐसे-ऐसे भाव बतलाते थे कि श्रोता मुग्‍ध हो जाते थे। एक दिन कथा हो रही थी, पण्डित जी कोई अदभुत भाव बता रहे थे कि इतने में करताल बजाता ‘राम-कृष्‍ण-गोविन्‍द-हरि’ की उच्‍च ध्‍वनि करता मणिदास वहाँ आ पहुँचा। मणिदास तो जगन्नाथ जी के दर्शन करते ही बेसुध हो गया। 

मणिराम माली को पता नहीं कि कहाँ कौन बैठा है या क्‍या हो रहा है। वह तो उन्‍मत्त होकर नाम-ध्‍वनि करता हुआ नाचने लगा। कथा वाचक जी को उसका यह ढंग बहुत बुरा लगा। उन्‍होंने डाँटकर उसे हट जाने के लिये कहा, परंतु मणिदास तो अपनी धुन में था। उसके कान कुछ नहीं सुन रहे थे। कथा वाचक जी को क्रोध आ गया। कथा में विघ्‍न पड़ने से श्रोता भी उत्तेजित हो गये। मणिदास पर गालियों के साथ-साथ थप्‍पड़ पड़ने लगे। जब मणिदास को बाह्यज्ञान हुआ, तब वह भौंचक्‍का रह गया। सब बातें समझ में आने पर उसके मन में प्रणय कोप जागा। उसने सोचा- जब प्रभु के सामने ही उनकी कथा कहने तथा सुनने वाले मुझे मारते हैं, तब मैं वहाँ क्‍यों जाऊँ ? जो प्रेम करता है, उसी को रूठने का भी अधिकार है। मणिदास आज श्री जगन्नाथ जी से रूठकर भूखा-प्‍यासा पास ही के एक मठ में दिनभर पड़ा रहा। 

मंदिर में संध्या-आरती हुई, पट बंद हो गये, पर मणिदास आया नहीं। रात्रि को द्वार बंद हो गये। पुरी-नरेश ने उसी रात्रि में स्‍वप्‍न में श्री जगन्‍नाथ जी के दर्शन किये। प्रभु कह रहे थे- तू कैसा राजा है! मेरे मन्दिर में क्‍या होता है, तुझे इसकी खबर भी नहीं रहती। मेरा भक्त मणिदास नित्‍य मन्दिर में करताल बजाकर नृत्‍य किया करता है। तेरे कथावाचक ने उसे आज मारकर मन्दिर से निकाल दिया। उसका कीर्तन सुने बिना मुझे सब फीका जान पड़ता है। मेरा मणिदास आज मठ में भूखा-प्‍यासा पड़ा है। तू स्‍वयं जाकर उसे सन्‍तुष्‍ट कर। अब से उसके कीर्तन में कोई विघ्‍न नहीं होना चाहिये। कोई कथावाचक आज से मेरे मन्दिर में कथा नहीं करेगा। मेरा मन्दिर तो मेरे भक्तों के कीर्तन करने के लिये सुरक्षित रहेगा। कथा अब लक्ष्‍मी जी के मन्दिर में होगी। 

उधर मठ में पड़े मणिदास ने देखा कि सहसा कोटि-कोटि सूर्यों के समान शीतल प्रकाश चारों ओर फैल गया है। स्‍वयं जगन्‍नाथ जी प्रकट होकर उसके सिर पर हाथ रखकर कह रहे हैं- बेटा मणिदास! तू भूखा क्‍यों है। देख तेरे भूखे रहने से मैंने भी आज उपवास किया है। उठ, तू जल्‍दी भोजन तो कर ले! भगवान अन्‍तर्धान हो गए। मणिदास ने देखा कि महाप्रसाद का थाल सामने रखा है। उसका प्रणयरोष दूर हो गया। प्रसाद पाया उसने। उधर राजा की निद्रा टूटी। घोड़े पर सवार होकर वह स्‍वयं जाँच करने मन्दिर पहुँचा। पता लगाकर मठ में मणिदास के पास गया और प्रणाम् करके अपना स्वप्न सुनाया। 

राजा ने विनती करके कहा कि आप पुनः नित्य की भाँति भगवान को कीर्तन सुनाया करे। मणिदास में अभिमान तो था नहीं, वह राज़ी हो गया। राजा ने उसका सत्‍कार किया। करताल लेकर मणिदास स्‍तुति करता हुआ श्री जगन्‍नाथ जी के सम्‍मुख नृत्‍य करने लगा। उसी दिन से श्री जगन्‍नाथ-मन्दिर में कथा का बाँचना बन्‍द हो गया। कथा अब तक श्री जगन्‍नाथ जी के मन्दिर के नैर्ऋत्‍य कोण में स्थित श्री लक्ष्‍मी जी के मन्दिर में होती है। 

 मणिदास जीवन भर श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में कीर्तन करते रहे। अन्‍त मे श्री जगन्‍नाथ जी की सेवा के लिये लगभग 80 वर्ष की आयु में मणिदास जी भगवान् के दिव्‍य धाम पधारे। 

जय श्री राधे 🙏🌹
संकलित

Friday, 20 June 2025

कहानी 'जलपरी '

एक राजकुमार था। उसका नाम था तेजप्रताप । जैसा नाम वैसा काम । तेजप्रताप बहुत जिद्दी था। वह जिस किसी चीज को पाने की जिद्द कर लेता उसे हासिल कर के ही रहता था।

एक रात तेजप्रताप ने सपने में एक अत्यंत सुंदर जलपरी को देखा। उसकी सुंदरता देख कर तेजप्रताप उस पर मोहित हो गया। उसने जलपरी से शादी करने की मन में ठान ली।

अगले दिन राजकुमार तेजप्रताप ने अपने पिता से कहा, "पिता जी मैं जलपरी से शादी करूँगा।" इतना सुनना था कि उसके पिता ने कहा, "बेटा तेजप्रताप तू पागल हो गया है क्या?"

"जलपरी समुद्र के अंदर रहती है, वहाँ तुम कैसे जा पाओगे। समुंद्र के अंदर बड़े खतरनाक जानवर रहते हैं।
वह तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे।
तुम जलपरी से शादी करने की जिद्द छोड़ दो।" "नहीं पिता जी मैं जलपरी को अपनी रानी बना कर ही रहूँगा। वह जहाँ भी रहती होगी उसे वहाँ से ढूँढ़ कर लाऊँगा। मेरा यह आखिरी फैसला है।" इतना कह कर राजकुमार तेजप्रताप अपनी तलवार ले कर घोड़े पर बैठा और जलपरी से शादी करने के लिए चल दिया।

कई दिनों की कठिन यात्रा के बाद राजकुमार तेजप्रताप समुंद्र के पास जा पहुँचा।

वहाँ पहुँच कर राजकुमार तेजप्रताप ने समुंद्र देव से हाथ जोड़ कर कहा, "हे समुंद्र देव मैं आप की शरण में आया हूँ, आप हमारी मदद कीजिए । मैं इस समुंद्र के बीच रहने वाली जलपरी से शादी करना चाहता हूँ।" राजकुमार तेजप्रताप की बात सुनकर समुंद्र देव जल में प्रकट हो कर बोले, "राजकुमार मैं तुम्हारी हिम्मत देख कर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें एक नाव दे रहा हूँ। तुम इसमें बैठ कर जलपरी तक आसानी से पहुँच जाओगे। यह नाव तुम्हें जलपरी के महल तक पहुँचा देगी। रास्ते में तुम्हे बड़े-बड़े सर्प, मगरमच्छ, जहरीले जीव-जंतु राक्षस तथा खतरनाक दरियाई घोड़े मिलेंगे। तुम सबको मारते काटते आगे बढ़ते जाना। समुंद्र के बीच पहुँचते ही तुम्हें पानी पर तैरता हुआ एक सुंदर महल दिखाई देगा। महल के बाहर बड़े-बड़े दो राक्षस पहरा देते मिलेंगे। उन्हें तुम मार कर महल के अंदर घुस जाना। महल के अंदर जलपरी पलंग पर सोती मिलेगी। उसके पास पहुँच कर जैसे ही जलपरी को छुओगे तो जलपरी उठ कर बैठ जाएगी। और तुमसे एक सवाल पूछेगी। अगर तुम जलपरी के सवाल का जवाब दे दोगे तो जलपरी तुमसे शादी करने को तैयार हो जाएगी। अगर तुम उसके सवाल का जवाब नहीं दे सके तो जलपरी तुम्हें तोता बना कर अपने महल में हमेशा के लिए कैद कर लेगी।

"मैं तुम्हें यह सोने की अँगूठी दे रहा हूँ इसे तुम पहन लो इस अँगूठी के पहनने से जलपरी के सवाल का जवाब मालूम हो जाएगा।"

राजकुमार समुंद्र देव से इजाजत लेकर आगे की ओर नाव में बैठ कर चल दिया।

ठुमार तेजप्रताप बड़े-बड़े सर्पों, राजकुमार मगरमच्छों, जहरीले जीवों, राक्षसों तथा दरियाई घोड़ों को मारते काटते कई दिनों की यात्रा के बाद समुद्र के बीच समुद्र में तैरते जलपरी के महल के पास जा पहुँचा। महल के बाहर पहरा दे रहे दो राक्षसों को तलवार से मार कर महल के अंदर जा पहुँचा।
वहाँ जलपरी एक पलंग पर गहरी नींद में सोई हुई थी। राजकुमार तेजप्रताप ने जलपरी के पलंग के पास पहुँच कर जैसे ही उसके बदन को छुआ वैसे ही जलपरी नींद से जागकर पलंग पर बैठ गई।

जलपरी ने राजकुमार तेजप्रताप से पूछा, "तुम कौन हो और यहाँ किस लिए आए हो ?"

जलपरी की बात सुन राजकुमार तेजप्रताप बोला, "मेरा नाम राजकुमार तेजप्रताप है। मैं धर्मपुर के राजा चंदन सिंह का पुत्र हूँ। मैं यहाँ तुमसे शादी करने के लिए आया हूँ। इतनी बात सुनकर जलपरी बोली, "तुम बड़े हिम्मत वाले राजकुमार हो। मैं तुम्हें देख कर बहुत खुश हूँ। मैं तुमसे शादी करने को तैयार हूँ। मगर तुम्हें हमारे एक सवाल का जवाब देना होगा। अगर तुमने मेरे सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं तुमसे शादी कर लूँगी। अगर तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया तो मैं तुम्हें तोता बना कर इस पिंजड़े में हमेशा के लिए कैद कर लूँगी।"

जलपरी ने पूछा, "बताओ सुबह जो निकलता है, शाम को डूब जाता है, वह क्या है? समुंद्र देव की दी हुई अँगूठी ने राजकुमार तेजप्रताप के कान में धीरे से कहा, "कह दो सूरज है"। कुछ देर रुक कर राजकुमार तेजप्रताप ने कहा, "सूरज है।" इतना सुनते ही जलपरी हँस पड़ी और पलंग से नीचे उतर कर राजकुमार तेजप्रताप से लिपट कर बोली, "तुम्हारा उत्तर सही है, आज से मैं तुम्हारी पत्नी बन गई। मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे महल चलने को तैयार हूँ।"

राजकुमार तेजप्रताप ने अपनी जेब में रखा सिंदूर निकाला और जलपरी की माँग में भर कर जलपरी को अपनी रानी बना लिया। जलपरी ने तुरंत एक उड़न खटोला मँगवाया और उसमें राजकुमार तेजप्रताप के संग बैठ कर धर्मपुर राज्य की ओर उड़ चली।





Thursday, 19 June 2025

कहानी खुश रहने का राज'

किसी गाँव में एक ऋषि रहते थे। लोग उनके पास अपनी कठिनाइयाँ लेकर आते थे और ऋषि उनका मार्गदर्शन करते थे। एक दिन एक व्यक्ति, ऋषि के पास आया और उनसे पूछा, "गुरुदेव हमेशा खुश रहने का राज क्या है?" ऋषि ने उससे कहा कि तुम मेरे साथ जंगल मैं तुम्हें खुश रहने का राज बताता हूँ।

ऐसा कहकर ऋषि और वह व्यक्ति जंगल की तरफ चलने लगे। रास्ते में ऋषि ने एक बड़ा-सा पत्थर उठाया और उस व्यक्ति से कहा इसे लेकर चलो। उस व्यक्ति ने पत्थर को उठाया और वह ऋषि के साथ-साथ जंगल की तरफ चलने लगा।

कुछ समय बाद उस व्यक्ति के हाथ में दर्द होने लगा लेकिन वह चुप रहा और चलता रहा। लेकिन जब चलते हुए बहुत समय बीत गया और उस व्यक्ति से दर्द सहा नहीं गया तो उसने ऋषि से कहा कि उसे दर्द हो रहा है।



तो ऋषि ने कहा का राज' इस पत्थर को नीचे रख दो। पत्थर को नीचे रखने पर उस व्यक्ति को बड़ी राहत महसूस हुई।



तभी ऋषि ने कहा, "यही है खुश रहने का राज।" व्यक्ति ने कहा, "गुरुवर मैं समझा नहीं। ऋषि बोले जिस तरह इस पत्थर को एक मिनट तक हाथ में रखने पर थोड़ा-सा दर्द एक घंटे तक हाथ में रखें तो थोड़ा ज्यादा दर्द होता है और अगर इसे और ज़्यादा समय तक उठाए रखेंगे तो दर्द बढ़ता जाएगा, उसी तरह दुखों के बोझ को जितने ज्यादा समय तक उठाए रखेंगे, उतने ही ज़्यादा हम दुखी और निराश रहेंगे। यह हम पर निर्भर करता है कि हम दुखों के बोझ को एक मिनट तक उठाए रखते हैं या जिंदगी भर। अगर तुम खुश रहना चाहते हो तो दुख रूपी पत्थर को जल्दी से जल्दी नीचे रखना सीख लो और हो सके तो उसे उठाओ ही नहीं।


Wednesday, 18 June 2025

कहानी 'चंद्रगुप्त की विजय का रहस्य'

चंद्रगुप्त की विजय का रहस्य

ईसा से 305 वर्ष पूर्व भारत में सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का शासन था। चंद्रगुप्त भारत के महान शासकों में से एक थे। एक बार यूनान के सम्राट सेल्यूकस के साथ चंद्रगुप्त का युद्ध हुआ। युद्ध में सेल्यूकस बुरी तरह पराजित हुआ और उसे अपना गंधार प्रदेश दंडस्वरूप चंद्रगुप्त को देना पड़ा।

सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलेन का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य से करके उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। सेल्यूकस युद्ध में हुई अपनी पराजय के कारणों पर निरंतर विचार करता रहा, किंतु वह यह समझ नहीं पा रहा था कि उसकी विश्व-विजयी सेना को पराजय कैसे मिली?

एक दिन वह अपने चतुर कूटनीतिज्ञ मेगस्थनीज़ के साथ बैठा अपनी पराजय के कारणों पर विचार कर रहा था। उसने मेगस्थनीज़ से पूछा, "चंद्रगुप्त की विजय किसके कुशल नेतृत्व के कारण हुई है?"

सम्राट की बात का उत्तर देते हुए मेगस्थनीज़ ने कहा, "सम्राट चंद्रगुप्त की जो विजय हुई है, उसका कारण उनका कुशल नेतृत्व नहीं है। उनकी इस विजय के प्रेरणा स्त्रोत हैं-चंद्रगुप्त के गुरु, मार्गदर्शक और महान कूटनीतिज्ञ 'चाणक्य'।"

"चाणक्य ! यह नाम तो मैं बहुत पहले से सुन रहा हूँ। मैं उस महान कूटनीतिज्ञ के दर्शन करना चाहता हूँ। मैं उस महान व्यक्ति को निकट से देखना चाहता हूँ।" सेल्यूकस ने कहा।

मेगस्थनीज़ बोला, "सम्राट, इसमें क्या बाधा है! इस समय आप भारत सम्राट चंद्रगुप्त के सम्माननीय अतिथि हैं। हम आज ही चाणक्य के दर्शनों के लिए चलते हैं।"

सेल्यूकस मेगस्थनीज़ के साथ घोड़े पर बैठकर चाणक्य के दर्शनों के लिए चल पड़ा। सेल्यूकस सोच रहा था कि महान चाणक्य का भवन तो बड़ा भव्य होगा। उसकी रक्षा के लिए अनेक सैनिक तैनात होंगे। मन-ही-मन ऐसी कल्पना करता हुआ वह गंगा पार कर गया, लेकिन उसे कहीं भी भव्य महलों के दर्शन नहीं हुए। तभी उसने एक व्यक्ति से चाणक्य के घर का पता पूछा। उस व्यक्ति ने सामने एक साधारण से मकान की ओर संकेत कर दिया। सेल्यूकस को लगा कि वह व्यक्ति उससे मज़ाक कर रहा है।

सेल्यूकस ने पुनः पूछा, "मुझे प्रधानमंत्री चाणक्य का पता चाहिए, किसी अन्य चाणक्य का नहीं।" वह व्यक्ति बोला, "यह प्रधानमंत्री चाणक्य का ही निवास स्थान है।"

यह सुनते ही सेल्यूकस आश्चर्यचकित रह गया। इतना महान व्यक्ति जो देश का प्रधानमंत्री है, इतने साधारण घर में रहता है! सेल्यूकस उस मकान के द्वार पर पहुँचे तो एक ब्रह्मचारी ने उनका स्वागत किया और अंदर एक अँधेरी कोठरी में अपने गुरु के पास ले गया।

चाणक्य उस समय 'अर्थशास्त्र' लिखने में व्यस्त थे। उनके आगे एक दीपक जल रहा था और वे मृगचर्म पर बैठकर, भोजपत्र पर मयूर पंख से लिख रहे थे। ब्रह्मचारी ने जैसे ही आगंतुकों का परिचय कराया, वैसे ही चाणक्य ने अपने सामने जल रहे दीपक को बुझा दिया और दूसरा दीपक जला दिया।

सेल्यूकस यह देखकर हैरान रह गया। उसने चाणक्य से एक दीपक बुझाकर दूसरा दीपक जलाने का रहस्य पूछा। चाणक्य बोले, “पहले मैं राजकीय कार्य कर रहा था, इसलिए राजकीय सहायता से प्राप्त दीपक जला रहा था। अब मैं आपसे बातें करूँगा, इसलिए मैंने राजकीय दीपक बुझा दिया और अपना दीपक जला लिया।"

चाणक्य की बात सुनकर सेल्यूकस ने उनके चरण छू लिए। उन्हें चंद्रगुप्त की सफलता का रहस्य पता चल गया। मन-ही-मन चाणक्य को प्रणाम करते हुए सेल्यूकस मेगस्थनीज़ के साथ वापस लौट आए।

श्रेष्ठ पुरुषों का चरित्र सदैव अनुकरणीय होता है तथा वे सादा जीवन, उच्च विचार में विश्वास रखते हैं।


Thursday, 12 June 2025

कहानी 'अछूत व्यक्ति'

'अछूत व्यक्ति'

एक दिन गौतम बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एकदम शांत बैठे हुए थे। उन्हें इस प्रकार बैठे हुए देख उनके शिष्य चिंतित हुए कि कहीं वे अस्वस्थ तो नहीं हैं। एक शिष्य ने उनसे पूछा कि आज वह मौन क्यों बैठे हैं। क्या शिष्यों से कोई गलती हो गई है ? इसी बीच एक अन्य शिष्य ने पूछा कि क्या वह अस्वस्थ हैं? पर बुद्ध मौन रहे।

तभी कुछ दूर खड़ा व्यक्ति ज़ोर से चिल्लाया, "आज मुझे सभा में बैठने की अनुमति क्यों नहीं दी गई?" बुद्ध आँखें बंद करके ध्यानमग्न हो गए। वह व्यक्ति फिर से चिल्लाया, "मुझे प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं मिली ?" इसी बीच एक उदार शिष्य ने उसका पक्ष लेते हुए कहा कि उसे सभा में आने की अनुमति प्रदान की जाए। बुद्ध ने आँखें खोलीं और बोले, "नहीं वह अछूत है, उसे आज्ञा नहीं दी जा सकती।" यह सुन शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ।

बुद्ध उनके मन के भाव समझ गए और बोले, "हां, वह अछूत है।" इस पर कई शिष्य बोले कि हमारे धर्म में तो जात-पात का कोई भेद ही नहीं, फिर वह अछूत कैसे हो गया ? तब बुद्ध ने समझाया, "आज वह क्रोधित होकर आया है। क्रोध से जीवन की एकाग्रता भंग होती है। क्रोधी व्यक्ति प्रायः मानसिक हिंसा कर बैठता है। इसलिए वह जब तक क्रोध में रहता है तब तक अछूत होता है। इसलिए उसे कुछ समय एकांत में ही खड़े रहना चाहिए।" क्रोधित शिष्य भी बुद्ध की बातें सुन रहा था, पश्चाताप की अग्नि में तपकर वह समझ चुका था कि अहिंसा ही महान कर्त्तव्य व परम धर्म है। वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और कभी क्रोध न करने की शपथ ली।

आशय यह कि क्रोध के कारण व्यक्ति अनर्थ कर बैठता है, क्रोध में जल रहे व्यक्ति को पता नहीं होता कि वह क्या कर रहा है और पल भर के क्रोध के कारण वह गलत कदम उठा बैठता है और बाद में उसे पश्चाताप होता है कि उसने क्या कर दिया, इसलिए हमें कभी भी क्रोध नहीं करना चाहिए।

Sunday, 8 June 2025

वैज्ञानिक चेतना के वाहक 'चंद्रशेखर वेंकट रामन्

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन्
                      पाठ का सार

इस पाठ में लेखक ने महान् भारतीय वैज्ञानिक श्री चंद्रशेखर वेंकट रामन् के जीवन संघर्ष तथा उनकी असाधारण उपलब्धियों का बखूबी चित्रण किया है। सन् 1921 में एक समुद्री यात्रा के दौरान समुद्र की नीलवर्णीय आभा उनकी जिज्ञासा का कारण बनी। इन्होंने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और विश्व भर में विख्यात बन गए।

स्कूल और कॉलेज में उच्च अंक तथा स्वर्णपदक पाने वाले रामन् को मात्र अठारह वर्ष में भारत सरकार के वित्त-विभाग में नियुक्ति मिली। सन् 1930 में नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय वैज्ञानिक रामन् के मन में अपने देश के प्रति अथाह श्रद्धा थी। भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर तथा भारत में विज्ञान की उन्नति के अभिलाषी वेंकट रामन् के जीवन संघर्ष तथा एक प्रतिभावान छात्र से एक महान वैज्ञानिक तक की गाथा को लेखक ने प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।

7 नवंबर सन् 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नगर में जन्में श्री रामन् बचपन से ही वैज्ञानिक रहस्यों को सुलझाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। अपने कॉलेज के दिनों से ही इन्होंने शोधकार्यों में दिलचस्पी लेना प्रारंभ कर दिया था। उनका प्रथम शोधपत्र 'फिलॉसॉफिकल मैगजीन' में प्रकाशित हुआ था। बहू बाज़ार स्थित 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस' की प्रयोगशाला में अभावों के बावजूद वे भौतिक विज्ञान को समृद्ध बनाने की साधना करते रहे। इन्हीं दिनों रामन् वाद्य यंत्रों की ओर आकृष्ट हुए और विभिन्न देशी तथा विदेशी वाद्ययंत्रों पर शोध करके पश्चिमी देशों की इस भ्रांति को तोड़ा कि भारतीय वाद्य यंत्र विदेशी वाद्य यंत्रों की अपेक्षा घटिया हैं। इन्होंने अनेक ठोस रवेदार तथा तरल पदार्थों पर प्रकाश की किरणों का अध्ययन किया तथा 'रामन् प्रभाव' की खोज ने भौतिकी के क्षेत्र में एक क्रांति उत्पन्न कर दी। रामन् की खोज के परिणामस्वरूप अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सरल हो गया। रामन् प्रभाव की खोज ने इन्हें विश्व के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। सन् 1929 में रामन् को 'सर' की उपाधि प्रदान की गई। इन्हें विश्व के सर्वोच्च 'नोबेल पुरस्कार' तथा देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। रामन् वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की प्रतिमूर्ति थे। रामन् ने अपने बचपन में संसाधनों के अभाव को झेला इसीलिए उन्होंने बंगलौर में 'रामन् रिसर्च इंस्टीट्यूट' नामक शोध संस्थान की स्थापना की तथा 'इंडियन जनरल ऑफ फिजिक्स' नामक शोध-पत्रिका प्रारंभ की। आज हमें भी रामन् के जीवन से प्रेरणा लेने और प्रकृति में छिपे रहस्यों को अनावृत करने की आवश्यकता है।