एक दिन गौतम बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एकदम शांत बैठे हुए थे। उन्हें इस प्रकार बैठे हुए देख उनके शिष्य चिंतित हुए कि कहीं वे अस्वस्थ तो नहीं हैं। एक शिष्य ने उनसे पूछा कि आज वह मौन क्यों बैठे हैं। क्या शिष्यों से कोई गलती हो गई है ? इसी बीच एक अन्य शिष्य ने पूछा कि क्या वह अस्वस्थ हैं? पर बुद्ध मौन रहे।
तभी कुछ दूर खड़ा व्यक्ति ज़ोर से चिल्लाया, "आज मुझे सभा में बैठने की अनुमति क्यों नहीं दी गई?" बुद्ध आँखें बंद करके ध्यानमग्न हो गए। वह व्यक्ति फिर से चिल्लाया, "मुझे प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं मिली ?" इसी बीच एक उदार शिष्य ने उसका पक्ष लेते हुए कहा कि उसे सभा में आने की अनुमति प्रदान की जाए। बुद्ध ने आँखें खोलीं और बोले, "नहीं वह अछूत है, उसे आज्ञा नहीं दी जा सकती।" यह सुन शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
बुद्ध उनके मन के भाव समझ गए और बोले, "हां, वह अछूत है।" इस पर कई शिष्य बोले कि हमारे धर्म में तो जात-पात का कोई भेद ही नहीं, फिर वह अछूत कैसे हो गया ? तब बुद्ध ने समझाया, "आज वह क्रोधित होकर आया है। क्रोध से जीवन की एकाग्रता भंग होती है। क्रोधी व्यक्ति प्रायः मानसिक हिंसा कर बैठता है। इसलिए वह जब तक क्रोध में रहता है तब तक अछूत होता है। इसलिए उसे कुछ समय एकांत में ही खड़े रहना चाहिए।" क्रोधित शिष्य भी बुद्ध की बातें सुन रहा था, पश्चाताप की अग्नि में तपकर वह समझ चुका था कि अहिंसा ही महान कर्त्तव्य व परम धर्म है। वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और कभी क्रोध न करने की शपथ ली।
आशय यह कि क्रोध के कारण व्यक्ति अनर्थ कर बैठता है, क्रोध में जल रहे व्यक्ति को पता नहीं होता कि वह क्या कर रहा है और पल भर के क्रोध के कारण वह गलत कदम उठा बैठता है और बाद में उसे पश्चाताप होता है कि उसने क्या कर दिया, इसलिए हमें कभी भी क्रोध नहीं करना चाहिए।
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