HINDI BLOG : Class 10 साखी - कबीर मुख्य बिंदु

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Saturday, 7 June 2025

Class 10 साखी - कबीर मुख्य बिंदु

साखी - कबीर मुख्य बिंदु 

मीठी वाणी का महत्त्व : 
मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता प्राप्त होती है क्योंकि मीठी वाणी बोलने से मन का अहंकार समाप्त हो जाता है तथा मन प्रसन्न होता है और मन प्रसन्न रहने से तन भी शीतल रहता है। मीठी वाणी सुननेवालों को सुख तथा प्रसन्नता की अनुभूति कराती है इसलिए सदा दूसरों को सुख पहुँचाने वाली व अपने को भी शीतलता प्रदान करने वाली मीठी वाणी ही बोलनी चाहिए। 

संसार में सुखी व्यक्ति और दुखी व्यक्ति : 
संसार में सुखी वही व्यक्ति है, जिसने घट-घट और कण-कण में बसने वाले ईश्वर से प्रीति कर ली है, उसके तत्व ज्ञान को जान और मान लिया है। दुखी मनुष्य वह है, जो दिन में खाकर और रात में सोकर हीरे जैसे अनमोल जीवन को व्यर्थ गँवाकर भौतिक सुखों की चकाचौंध में खोया हुआ है। यहाँ जो व्यक्ति संसार के विषयों से अनासक्त होकर ईश्वर में मन को लगाए हुए है, वह 'जागना' (जागरूकता) का प्रतीक है और जो व्यक्ति विषय-विकारों में लिप्त है, भौतिक दृष्टि से उसकी आँखें बेशक खुली हुई हैं, पर वास्तव में वह सोया हुआ है, अर्थात 'सोना' (उदासीनता) का प्रतीक है। 

कबीर का निंदक को अपने निकट रहने रखने का परामर्श : 
संत कबीर ने हमें अपने दोहों के माध्यम से करणीय तथा अकरणीय की सीख दी है। उनका एक दोहा, हमें अपने स्वभाव को निर्मल करने का एक विचित्र उपाय बता रहा है। उसके अनुसार, हमें निंदक व्यक्ति को सदा अपने पास रखना चाहिए। जब-जब वह हमारी कमियाँ, हमारी बुराइयाँ हमारे सामने रखेगा, तब-तब हमें उन्हें दूर करने का या अपनी बुराइयों को अच्छाइयों में रूपांतरित करने का अवसर मिलेगा और इस प्रकार स्वतः हमारा स्वभाव निर्मल हो जाएगा। इस प्रकार, निंदा करने वाले व्यक्ति का साथ स्वभाव को निर्मल बनाने का एक सरल उपाय है। कबीर के अनुसार सच्चा ज्ञानी : केवल शास्त्र पढ़ने को कबीर ज्ञान नहीं मानते। शास्त्र विद्या कभी-कभी व्यक्ति को अहंकारी बना देती है। यह अहंकार हमारे अंदर अनेक विकारों को जन्म देता है। एक बार अंहकार मन में आ जाए तो सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता है जबकि एक प्रेम का भाव मन में पैदा होने से अन्य सभी विकार मिट जाते हैं और व्यक्ति सच्चा ज्ञानी बन जाता है। इस प्रकार कबीर सच्चा ज्ञानी उसे मानते हैं जिसके हृदय में प्रत्येक जड़-चेतन के लिए, संपूर्ण सृष्टि के लिए भरपूर प्रेम है। जिसके हृदय में किसी अन्य विकार के लिए कोई स्थान नहीं है वही सच्चा ज्ञानी है। 

मृग के उदाहरण द्वारा कबीर ने संदेश :
 मृग की नाभि में एक विशेष प्रकार की सुगंध समाई होती है। यह उस सुगंध से आकर्षित होता है और उस सुगंध की तलाश में इधर-उधर भटकता है। जीवन भर भटकाव के बावजूद भी वह समझ नहीं पाता कि यह सुगंध कहाँ से आ रही है क्योंकि वास्तव में उसका स्रोत कहीं बाहर नहीं उसी के शरीर में होता है। यही स्थिति हम सभी की है जो ईश्वर को पाना चाहते हैं किंतु उसकी तलाश, तीर्थ स्थानों और कर्मकांडों में करते हैं और उन्हीं में उलझकर जीवन गंवा देते हैं। यदि हमें एहसास हो जाए कि ईश्वर कण-कण में है, हमारे रोम-रोम में भी उसी का वास है, तो हमें उसके लिए भटकना नहीं होगा। हमें सर्वत्र, हर रूप में ईश्वर के दर्शन हो पाएँगे। 

कबीर के अनुसार ईश्वर को न देख सकने के कारण : संसार में दो तरह के लोग हैं। एक वे जो सांसारिक भोग विलास में लिप्त रहकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने में ही विश्वास रखते हैं। दूसरे वे जिन्हें ईश्वर से बिछड़ने का एहसास है और ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। कबीर ने लोगों को दो श्रेणियों में बाँटा है-सुखी और दुखी। कबीर खुद को दुखी लोगों की श्रेणी में रखते हैं क्योंकि वे भौतिक सुख साधनों में सुख नहीं ढूंढ पाते। उन्हें तो ईश्वर के विरह से पीड़ा होती है और वे ईश्वर को प्राप्त करना अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य मानते हैं और ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर निरंतर बढ़ना चाहते हैं।

 कबीर के अनुसार निंदक के साथ व्यवहार : 
जो व्यक्ति सबकी निंदा करता रहे, सब में बुराई ढूँढता रहे, वह निंदक कहलाता है। सामान्यतः ऐसे लोगों सब दूर रहना चाहते हैं। कोई उन्हें पसंद नहीं करता। किंतु कबीर का मानना है कि निंदक व्यक्ति का साथ हमारे स्वभाव को निर्मल बना सकता है। जितना हम निंदक के पास रहेंगे, उतना ही हमें अपनी कमियों को जानने का अवसर मिलता रहेगा और हम उन्हें दूर कर पाएँगे। अतः हमें निंदक को अपने से दूर नहीं बल्कि अपने करीब रखना चाहिए। वह किसी शुभचितक की तरह हमारी सहायता करता है, भले अप्रत्यक्ष रूप से ही। 

कबीर के दोहों का प्रतिपाद्य : 
कबीर, संत संप्रदाय के श्रेष्ठ कवियों में से एक है। उन्होंने अनुभवजन्य ज्ञान को दोहों में पिरोकर जीवंत बना दिया है। कबीर ने अपने जीवन में खूब भ्रमण किया, जिसके कारण उनकी भाषा में अनेक भाषाओं के शब्द शामिल हो गए हैं। जन-जन की भाषा को उन्होंने अपनाया और अपने स्वभाव को निर्मल बनाने का, ईश्वर प्राप्ति का, अहंकार रहित जीवन जीने का मार्ग सुझाया है। कबीर ने सदैव बाहरी आडंबर का विरोध करके मानव सेवा रूपी सच्ची भक्ति का ही समर्थन किया है। 

ईश्वर भक्ति से कबीर का अहंकार दूर होना : 
कबीर ने अपने जीवन में प्राप्त अनुभव के आधार पर, जो ज्ञान प्राप्त किया, उसे अपने दोहों के माध्यम से हम तक पहुँचाया। उसी अनुभव के आधार पर, उन्होंने सदा धर्म के नाम पर किए जाने वाले कर्मकांडों का विरोध किया तथा सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति और जनसेवा को ही सच्चा धर्म बताया। उनके अनुसार विकारों से मुक्त होना ही सच्चे भक्तों की पहचान है। जैसे-जैसे हम भक्ति में लीन होते जाते हैं, हमारा अहंकार दूर होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो स्पष्ट है कि हम भक्ति के उचित मार्ग पर नहीं चल रहे हैं। संत कबीर ने अहंकार से मुक्त होकर प्रेम भाव की उत्पत्ति को ही सच्चे ज्ञान की परिभाषा माना है। कबीर का हृदय अहंकार शून्य था तथा प्रेम से भरपूर था। यही उनके ईश्वर भक्त होने की पहचान है। 

अपने अंदर का दीपक दिखाई देने पर अँधियारा मिट जाना : 
प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में, रोम-रोम में ईश्वर का, परम आनंद का वास होता है। किंतु भौतिक संसार में लिप्त होकर हम इस अनुभूति से दूर होते चले जाते हैं। परिणामस्वरूप हमारे हृदय में ज्ञान का दीपक बुझ जाता है और अज्ञान का अंधकार छाया रहता है। यदि हम ज्ञान के मार्ग पर चल पड़े और सच्चे हृदय से भक्ति करें तो धीरे-धीरे अहंकार, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या आदि विकारों से मुक्त होते जाते हैं और प्रेम का भाव हमारे हृदय में विस्तार लेने लगता है। ज्ञान रूपी दीपक जब हृदय में प्रज्ज्वलित हो जाता है तब अज्ञान का अंधकार मिट जाता है। प्रत्येक जड़-चेतन के प्रति समान रूप से प्रेम पैदा हो जाता है। वास्तव में संपूर्ण संसार एक समान पाँच तत्वों से मिलकर बना है, किसी में कोई भेद नहीं है। यह भेद हमें तभी तक दृष्टिगत होता है, जब तक हम अज्ञान में होते हैं। ज्ञान का दीपक जल जाने पर हर ओर केवल उस, एक ही तत्व, परमसत्ता, ईश्वर के दर्शन होने लगते हैं। 

कबीर की साखियाँ / दोहे आज भी प्रासंगिक हैं : 
कबीर की साखियाँ / दोहे हमेशा की तरह आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं क्योंकि साखियों में कहीं भी पुस्तकीय ज्ञान नहीं है। कबीर ने जगह-जगह घूमकर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया था तथा उनके अनुभव का क्षेत्र बड़ा विस्तृत था। इसलिए अनुभव के आधार पर होने के कारण ये साखियाँ आज भी प्रासंगिक हैं और भविष्य में भी रहेंगी। 


साखी के आधार पर कबीर द्वारा बताए गए जीवनमूल्य: कबीर की प्रत्येक साखी मानव जीवन को जीवन-मूल्यों से प्रेरित करती है। उनमें से एक, जैसे वाणी की मधुरता का महत्त्व कबीर प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक मानते हैं। वाणी की मधुरता से सोच-समझ कर बोली गई वाणी से तथा दूसरों को सुख पहुँचाने वाली वाणी से मनुष्य संसार में किसी को भी अपना प्रिय बना सकता है।

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