कहानी - अनाथ
वह अनाथ बालक भीख माँगता हुआ एक गाँव आ पहुँचा। आमने-सामने दो विशाल | कोठियों, बाड़ों को देखकर उसके पैर अपने आप ही उस और बढ़े। उसमें से किसी एक में पेटभर खाना मिलने की कल्पना से उसके मुँह में पानी भर आया। पहला बाड़ा किसी विशाल मंदिर जैसा दिखाई दे रहा था। दरवाज़े पर एक मुस्तैद पहरेदार ।
खड़ा था। लड़के ने उससे कहा, "मैं मालिक से मिलना चाहता हूँ।'
पहरेदार गुर्राया, "मालिक पूजा-पाठ कर रहे हैं।"
"पूजा खत्म कब होगी ?"
"थोड़ी देर के बाद। "
बालक को थोड़ी-सी देर भी भूख के कारण युगों जैसी लग रही थी। फिर भी वह बड़े धैर्य के साथ बाड़े के दरवाज़े पर खड़ा रहा। बहुत देर बाद वह मालिक के दर्शन कर पाया। मालिक के कानों में कनौती का मोती कितना सुंदर था। बालक मगन होकर कनौती देखता रहा।
मालिक ने कहा, "अरे भाई! यह सब ईश्वर की कृपा है। बोलो, क्या काम है?"
"महाराज, मैं दो दिनों से भूखा हूँ। मुझे कुछ खाने के लिए- "
"तुम ईश्वर पर विश्वास करते हो न ?"
"हाँ........"
" फिर इस तरह भीख माँगते हुए क्यों दर-दर घूम रहे हो? अरे पागल! उस परमात्मा की लीला अनूठी है। चिड़ियों के बच्चों को वह सिर्फ चोंच ही नहीं देता, वह उसके लिए दाना भी बना देता है। तुम्हारे पेट का भी वैसा ही इंतज़ाम उसने जरूर कहीं-न-कहीं किया होगा। ईश्वर पर भरोसा कर थोड़ा सब करो। "
मालिक जप करने के लिए निकल गया।
लड़का निराश होकर बाड़े से बाहर आ गया। वह ऐसा दिख रहा था, जैसे कोई लाश उठकर चलने लगी हो ।
सामने ही दूसरा बाड़ा उन्मत्त हाथी की तरह खड़ा था। इस बाड़े का बुर्ज किसी हाथी द्वारा अपनी सूँड़ से ऊपर उछाले पानी की फुहार के जैसा दिख रहा था। वहाँ कई लोग ज़ोर-ज़ोर से कुछ बोल रहे थे। उसे सुनकर क्रुद्ध समुंदर की याद आती।
वह बालक डरा-सहमा सा बाड़े की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। दरवाजे पर एक गोल-मटोल
पहरेदार खड़ा था। पहरेदार झल्ला उठा, "ऐ, कहाँ जा रहे हो? क्या चोरी का इरादा है ?"
गिड़गिड़ाते हुए बालक ने कहा, "मालिक से मिलना चाहता हूँ।"
"मालिक पंडितों के साथ बहस में उलझे हुए हैं। "
"फिर कब मिल पाएँगे ?"
"थोड़ी देर बाद।"
लड़के को एक पल भी युग की तरह लग रहा था। लेकिन पेट से बढ़ कर मुहताज क्या हो सकता है? वह चुपचाप उस बाड़े के दरवाज़े में प्रतीक्षा करता रहा। थोड़ी ही देर में बहस खत्म हुई। कितने ही पंडित बगल में पोथियों को दबाए बाड़े से निकल पड़े।
लड़के ने मालिक के दर्शन किए। मालिक ने प्रश्न किया, "क्या काम है?"
" महाराज दो दिनों से भूखा हूँ। मुझे कुछ खाने के लिए- "
"ईश्वर पर तुम भरोसा करते हो ?"
इसके पहले "हाँ" कहा था, परंतु कोई उपयोग न हुआ। अब यही उचित होगा कि "ना" कहा जाए। ऐसा विचार कर उसने जवाब दे डाला, "नहीं"। अपनी ऊँची कलाबत्तू और उसमें सितारे से सजाई बैठक से उतर कर मालिक आगे बढ़ा। बालक को थपथपाते हुए उसने कहा, "शाबाश! इतनी छोटी उम्र में इतना बड़ा ज्ञान शायद ही मैंने कहीं देखा है !"
"मुझे कुछ खाने के लिए" बीच में ही लड़का बोल उठा। “खाने के लिए? अरे पागल ! तुम जानते हो कि दुनिया में ईश्वर नहीं है। फिर भला तुम्हें खाने को कौन देगा? उसे खुद ही हासिल करना होगा। दो बातें ध्यान रखो।
धरती विशाल है और कोशिश ही आदमी का ईश्वर है। तुम कहीं भी अपना पेट भर सकते हो।"
निराश होकर बालक बाड़े से बाहर निकल आया। अब उसमें गाँव के दूसरे घरों की और झाँकने तक का साहस नहीं था। किसी शैतान की तरह वह चुपचाप चलने लगा। गिद्ध मरे हुए खरगोश पर अपनी नुकीली चोंच से जैसे बार-बार प्रहार करता रहता है, वैसे भूख पेट की आंतों को कुरेद रही थी।
बालक किसी तरह गाँव से दूर आ गया। उसके पेट में भूख अब दावानल की तरह जल उठी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस आग को कैसे बुझाया जाए।
अचानक उसने पेड़ के तले बैठी एक बुढ़िया को पत्तलों में फैले सूखे रोटी के टुकड़ों को
चबाते देखा। उसकी आँखें उन टुकड़ों पर गड़ गईं। लेकिन वह पैर न बढ़ा सका।
ऐसे ही उन सूखे टुकड़ों को चबाते उस बुढ़िया ने नज़र दौड़ाई। वह बालक उसे दिखाई दिया। उसकी आँखों में दिख रही भूख को बुढ़िया जान गई। उसने इशारे से उसे अपने पास बुलाया। कलेजा थामकर वह आगे बढ़ा। उसका हाथ पकड़ कर बुढ़िया ने उसे अपने पास बिठा लिया। उस पत्तल पर पड़ी सूखी रोटी का एक कौर उठाकर उसने उसके मुँह में डाला। वह कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन बोल न पाई। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आए। उसमें से एक बूँद बालक के गाल पर गिरी।
बालक को लगा जैसे उसके पेट का दावानल बुझ गया। उसकी सारी छटपटाहट शांत हो गई, उसे जैसे जगत माता मिल गई। दो-चार कौर निगलकर बालक ने पूछा, "दादी माँ ! क्या इस दुनिया मैं ईश्वर है ?"
विस्मित ढंग से हाथ मटकाते हुए उसने जवाब दिया, "कौन जाने। मैं तो एक पागल बुढ़िया हूँ बेटे।"
No comments:
Post a Comment
If you have any doubt let me know.