साया
नन्हे-नन्हे दुधमुँहे बच्चे! अकेली रुग्ण पत्नी। नाते-रिश्ते का ऐसा कोई नहीं जो ज़रूरत पर काम आ सके। पति सुदूर अफ्रीका में, अस्पताल में बीमार! महीनों तक कोई पत्र नहीं।
हर रोज वे रंग-बिरंगे टिकटों वाले पत्र की राह देखते, परंतु डाकिया भूल से भी इधर झाँकता न था।
हाँ, बहुत लंबे अर्से बाद एक पत्र, एक दिन मिला। बड़ा अजीब-सा था वह। बड़ा करुण। बड़ा दर्द भरा। नैरोबी के किसी अस्पताल से लिखा था। रंगभेद के कारण पहले यूरोपियन लोगों के अस्पताल में जगह नहीं मिली, इस अनावश्यक विलंब के कारण रोग काबू से बाहर हो गया है। डॉक्टर ने ऑपरेशन की सलाह दी है, किंतु उसमें भी अब सार लगता नहीं। चंद दिनों की मेहमानदारी है। उसके बाद तुम लोगों का क्या होगा, कुछ सूझता नहीं।
पास होते तो.... भरोसा रखना.... भगवान सबका रखवाला है.
जिसने पैदा किया है, वह परवरिश भी करेगा....।
पत्नी पत्र पढ़ती, रोती। अबोध बच्चे रुलाई भरी आँखों से माँ मुँह ताकते । ताइए का
फिर चिट्ठी पर चिट्ठियाँ डालीं उन्होंने, फिर तार, तब कहीं केन्या की मोहर लगा एक विदेशी लिफ़ाफ़ा मिला। लिखा था, परमात्मा का ही चमत्कार है, हालत सुधर रही है। एक नया जनम मिला है.... । थोड़े दिनों बाद फिर पत्र आया। पहले की ही तरह किसी से बोलकर लिखवाया हुआ.... हालत पहले से अ चिंता की अब कोई बात नहीं।
पहले की तरह कुछ रुपए भी पहुँच गए इस बार।
बच्चों के मुरझाए मुखड़े खिल उठे। रुग्ण पत्नी का स्वास्थ्य तनिक सुधार की ओर बढ़ा। चिट्ठियाँ नियमि रहीं। रुपए भी पहुँचते रहे।
उसमें लिखा था, हाथ के ऑपरेशन के बाद अब वह पत्र नहीं लिख पाता, इसलिए किसी से लिखवा लेता है। एक नया टाइपराइटर खरीद लिया है उसने अपने कारोबार का भी कुछ विस्तार कर रहा है, धीरे-धीरे । कुछ नई ज़मीन खरीदने का भी इरादा है-शहर के पास एक 'फार्म हाउस' की योजना है.... |
घर के बारे में, पत्नी के बारे में, बच्चों की पढ़ाई के बारे में कितने ही प्रश्न थे। बड़ी उत्साहजनक बातें थीं... विस्तार से। इतना अच्छा पत्र पहले कभी भी न आया था। सबको स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता हुई। डूबती नाव फिर पार लग रही थी, धीरे-धीरे ।
लगभग तीन बरस बीत गए। घर की ओर से पत्र पर पत्र जाते रहे कि अब उसे थोड़ा-सा समय निकालकर कभी घर भी आना चाहिए।
बच्चे बहुत याद करते हैं। उसे देखने भर को तरसते हैं। जो-जो हिदायतें चिट्ठी में लिखी रहती हैं उनका अक्षरशः पालन करते हैं। माँ को किसी किस्म का कष्ट नहीं देते। कहना मानते हैं। पढ़ने में बहुत मेहनत करते हैं। अज्जू कहता है कि बड़ा होकर वह भी पापा की तरह अफ्रीका जाएगा। इंजीनियर बनेगा। पापा के साथ खूब काम करेगा। अब वह पूरे बारह साल का हो गया है। छठी कक्षा में अव्वल आया है, मास्टर जी कहते हैं कि उसे वज़ीफ़ा मिलेगा। तनु अब अट्ठारह पार कर रही है। उसका भी ब्याह करना है। कहीं कोई अच्छा-सा लड़का अपनी जात-बिरादरी का मिले तो चल सकता है....।
चिट्ठी के जवाब में बहुत-सी बातें थीं। लिखा था कि इस समय तो नहीं, हाँ अगले साल तनु के ब्याह पर अवश्य पहुँचेगा। योग्य वर तो वहाँ भी मिल सकते हैं, पर विदेश में, अफ्रीका जैसे देश में लड़की को ब्याहने के पक्ष में वह नहीं है । दहेज की चिंता न करना। कहीं वर की खोज करना ।
वर की तलाश में भटकने की अधिक आवश्यकता न हुई आसानी से खाता- -पीता घर मिल गया। शायद इतना अच्छा घराना न मिलता, लेकिन इस भ्रम से कि कन्या का बाप अफ्रीका में सोना बटोर रहा है, सब सहज हो गया।
शादी की तिथि निश्चित हो गई। नैरोबी से पत्र आया कि वह समय से पहुँच रहा है। गहने, कपड़े सब बनाकर वह साथ लाएगा। लेकिन शादी के समय वह चाहकर भी पहुँच नहीं पाया। विवशताओं से भरा लंबा पत्र आया कि इस बीच जो नया कारोबार शुरू किया है, उसमें मजदूरों की हड़ताल चल रही है। ऐसे संकट के समय यह सब छोड़कर वह कैसे आ सकता है। हाँ, गहने कपड़े और रुपए भिजवा दिए हैं। वर-वधू के चित्र उसे अवश्य भेजें, वह प्रतीक्षा करेगा। खैर, ब्याह हो गया धूमधाम के साथ विवाह के सारे चित्र भी भेज दिए।
अज्जू ने इस वर्ष कई ईनाम जीते। हाई स्कूल की परीक्षा में जिले में सर्वप्रथम रहा। खेलों में भी पहला। बहुत से सर्टीफ़िकेट मिले, वज़ीफ़ा मिला। ईनाम में मिली सारी वस्तुओं को फोटो वे पापा को भेजना न भूले।
बदले में कीमती कैमरा आया। गर्म सूट का कपड़ा आया। सुंदर घड़ी आई और मर्मस्पर्शी लंबा पत्र आया । लिखा था कि वह बच्चों की उम्मीद पर ही जी रहा है। पत्नी का स्वास्थ्य अच्छा रहना चाहिए। बच्चे इसी तरह नाम रोशन करते रहें। उनके सहारे वह जिंदगी की डोर कुछ और लंबी खींच लेगा...। यह सारा कारोबार उन्हीं के लिए तो है।
पर, अनेक वादे करने पर भी घर आना संभव न हो पाता। हर बार कुछ न कुछ अड़चनें आ जातीं और उसका आना स्थगित हो जाता।
समय पंख बाँधकर उड़ता रहा, अबाध गति से ।
बच्चों ने लिखा कि यदि उसका घर आ पाना कठिन हो रहा है तो वे ही सब अफ्रीका आने की सोच रहे हैं। कुछ वर्ष वहीं बिता लेंगे।
उत्तर में केवल इतना ही था कि काम बहुत बढ़ गया है। नैरोबी, मोंबासा के अलावा अन्य स्थानों पर भी उसे नियमित रूप से जाना पड़ता है। यहाँ विश्वास के आदमी मिलते नहीं, इसलिए उसे स्वयं ही खटना पड़ता है। यहाँ की आबोहवा, बच्चों की पढ़ाई, अनेक प्रश्न थे। अज्जू जब तक अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर लेता तब तक कुछ नहीं हो सकता। समय निकालकर कभी वह स्वयं घर आने का प्रयास करेगा। बच्चों की बहुत याद आती है। घर की बहुत याद आती है। लेकिन, विवशता के लिए क्या किया जाए?
अंत में एक दिन वह भी आ पहुँचा जब अज्जू ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली। कहीं अच्छी नौकरी की तलाश शुरू, पर पिता के अब भी घर आने की संभावना न दिखी तो उसने लिखा-"अम्मा बीमार रहती है। एक बार, अंतिम बार हुई, देखना जी भर चाहती है।
प्रत्युत्तर में विस्तृत पत्र मिला। इलाज के लिए रुपए भी परंतु इस बार अज्जू ने ही जाने का कार्यक्रम बना लिया अकस्मात् पहुँचकर पापा को चौकाने की पूरी-पूरी योजना
टिकट खरीद लिया।
पासपोर्ट वीजा भी देखते-देखते बन गया। और एक दिन दिल्ली से वह विमान से रवाना भी हो गया।
उसके मन में एक गहरी उत्कंठा थी कि उसे देखकर कितने चकित होंगे। उन्होंने कल्पना भी न की होगी कि एकाएक वह इतनी दूर एक दूसरे देश में इतनी आसानी से आ जाएगा। उनकी निगाहों में तो अभी वह उतना ही छोटा होगा, जब वह निक्कर पहनकर आँगन में गुल्ली-डंडा खेलता था।
नैरोबी के हवाई अड्डे पर उतरकर वह सीधा उस पते पर गया, जो पत्र में दिया हुआ था। परंतु वहाँ ताला लगा था। हो, उसके पिता -की पुरानी धुंधली नेमप्लेट अवश्य लगी थी।
आसपास पूछताछ की तो पता चला कि एक वृद्ध भारतीय अप्रवासी अवश्य वहाँ रहते
हैं। रात को देर से दफ़्तर से घर लौटते हैं। किसी से मिलते-जुलते नहीं। निपट अकेले हैं। वह बाहर बरामदे में रखी बेंच पर प्रतीक्षा करता रहा। रात को एक बूढ़ा व्यक्ति ताला खोलने लगा तो देखा एक युवक सामने बैठा ऊँघ रहा था।
उसका नाम-धाम पूछा तो उसे अपनी बाँहों में भर लिया। बड़े उत्साह से स्वागत किया। भोजन के बाद वे उसे अपने कमरे में ले गए। दीवार की ओर उन्होंने इंगित किया- एक नन्हा बच्चा माँ की गोद में लुढ़का किलक रहा है।
"यह किसका चित्र है?"
युवक ने गौर से देखा। कुछ झेंपते हुए कहा, "मेरा"। वृद्ध इस बार कुछ ज़ोर-ज़ोर से खिलखिलाए, "मेरे बच्चे ! तुम इतने बड़े हो गए हो। सच! इतने साल बीत गए। जैसे कल की बात है।" उन्होंने उसके चेहरे की ओर देखा, "तुम शायद नहीं जानते, तुम्हारे पिता का मैं कितना जिगरी दोस्त हूँ। कितने लंबे समय तक हम साथ-साथ रहे, दो दोस्तों की तरह नहीं, सगे भाइयों की तरह। उसी ने मुझे हिंदुस्तान से यहाँ बुलाया था। बड़ी लगन से सारा काम सिखाया ।"
साथ-साथ साझे में हमने यह कारोबार शुरू किया। नैरोबी की आज यह बहुत अच्छी फ़र्म है। यह सब उसकी ही बदौलत है...। कहते-कहते वे ठिठक गए।
उसका हाथ अपने हाथों में थामते हुए वे बोले, "तुम्हारी माँ कैसी है?"
"अच्छी है.....?"
"भाई बहन.....।"
"सब ठीक हैं।"
"कहीं कोई कठिनाई तो नहीं?"
"न, सब ठीक है।"
"बस, यही मैं चाहता था। यही ।" हौले से उन्होंने उसका हाथ सहलाया। देर तक तक शून्य में पलकें टिकाए सोचते रहे। कुछ क्षणों का मौन भंग कर खोए-खोए से बोले, "देखो बेटे, तिनकों के सहारे तो हर कोई जी लेता है। लेकिन कभी-कभी हम तिनकों के साए मात्र के आसरे, भँवर से निकलकर, किनारे पर आ लगते हैं। हमारा जीवन कुछ ऐसे ही तंतुओं के सहारे टिका रहता है।
यदि वे टूट जाएँ, छिन्न-भिन्न होकर, बिखर जाएँ तो पल भर में पानी के बुलबुलों की तरह सब समाप्त हो जाता है।"
".... जरा सोचो बेटे!" वे खाँसे, "तुम्हारे पिता की मृत्यु आज से पंद्रह-बीस साल पहले हो जाती, तो क्या होता? भले ही वे एक अच्छी रकम तुम्हारे नाम छोड़ जाते।” उन्होंने युवक के असमंजस में डूबे, गंभीर चेहरे की ओर देखा, " हमार रेत में गिरे पानी की तरह विलीन हो जाते और तुम अनाथ हो जाते। तुम्हारी माँ घुट-घुट कर कब की मर चुकी होती। तुम इतने हौसले से पढ़ नहीं पाते। जहाँ तुम आज हो, वहाँ तक नहीं पहुँच पाते। निराशा की, हताशा की तथा असुरक्षा की इतनी गहरी खाई में होते कि वहाँ से अँधेरे के अलावा कुछ भी न दीखता तुमको....।"
उन्होंने अपने सूखे होंठों को जीभ की नोंक से भिगोया, “हम दुर्बल होते हुए, असहाय, अकेले होते हुए कितने-कितने बीहड़ वनों को पार कर जाते हैं सहारे की एक अदृश्य डोर के सहारे....।"
उनका गला भर आया, “तुम्हारे पिता तो तब ही गुजर गए थे बेटे। अपने साझे कारोबार से, उनके हिस्से के पैसे तुम्हें नियमित रूप से भेजता रहा। कितने वर्षों से मैं इसी दिन के इंतजार में था.... अब तुम बड़े हो गए हो। अपने इस कारोबार में मेरा हाथ बटाओ। तुम सरसब्ज हो गए. , मेरा वचन पूरा हो गया जो मैंने उसे मरते समय दिया था ....।" उनका गला भर आया। वे दीवार पर टंगे एक धुंधले से चित्र को न जाने क्या-क्या सोचते हुए देखते रहे।
-हिमांशु जोशी
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