HINDI BLOG : कहानी- सच्ची ईद

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

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Friday, 30 June 2023

कहानी- सच्ची ईद

सच्ची ईद 

रमज़ान का महीना शुरू होने वाला था। लोग रोज़े रखने की बातें करने लगे थे। दस वर्ष का नन्हा असलम भी रोज़े रखने की हठ करने लगा। अम्मी ने समझाया, "बेटा, अभी तुम बहुत छोटे हो। रोज़े में दिन भर कुछ भी नहीं खाया जाता। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? जब तुम बड़े हो जाओगे तब रोजे रख लेना।"

इतना समझाने पर भी असलम नहीं माना। उसने अपने दोस्तों से सुन रखा था कि जो रमज़ान के महीने में रोजे रखता है, उसे ईद पर नए-नए कपड़े पहनने को मिलते हैं। ईद और नए कपड़ों का ध्यान आते ही असलम का मन प्रसन्नता से भर जाता था। उसने मन- ही-मन ठान लिया था कि इस बार वह रोज़े रखेगा और ईद पर नए कपड़े अवश्य लेगा।

असलम ने तो अपने लिए नए कपड़े पसंद भी कर लिए थे। रहीम चाचा की दुकान पर टँगा कुर्ता-पायजामा उसे बहुत पसंद था। पाठशाला से लौटते समय उनकी दुकान के सामने असलम के कदम स्वयं ही थम जाते। 

देर तक वह उन कपड़ों को निहारता रहता था। वह सोचने लगता कि ईद वाले दिन यह कुर्ता-पायजामा और सिर पर टोपी पहनकर वह कितना अच्छा लगेगा। शायद अपने सारे दोस्तों से अच्छा!

असलम की अम्मी दिन भर चिकन के कपड़ों पर कढ़ाई किया करती थीं। इस काम से जो थोड़े-बहुत पैसे मिलते उसी से किसी तरह रूखी-सूखी रोटी और असलम की पढ़ाई चल रही थी।

आखिरकार, रमज़ान का महीना शुरू हुआ। हठी असलम ने रोज़े रखने शुरू कर दिए थे। वह सुबह चार बजे अपनी अम्मी के साथ उठ जाता। कुछ थोड़ा -बहुत अम्मा बन देतीं, चुपचाप खा लेता। फिर दिन भर वह कुछ भी नहीं खाता, पानी तक नहीं पीता इसी बीच वह पाठशाला भी जाता। यह देखकर उसकी अम्मी को चिंता होने लगती। वे असलम को समझातीं कि बच्चों के लिए पानी और थोड़ा-बहुत खाने की छूट होती है, पर वह नहीं मानता। बड़ों की भाँति शाम को अपनी अम्मी के साथ ही रोज़ा खोलता। असलम ने अपनी अम्मी को बता दिया था कि वह इस बार ईद पर नए कपड़े ज़रूर  लेगा। उसकी अम्मी भी चाहती थीं कि उनका बेटा ईद पर नए कपड़े पहने, पर कहाँ से आएँ नए कपड़े? कैसे खरीदेंगे? उनकी हालत ऐसी नहीं थी।

एक दिन अम्मी के साथ बाजार जाते समय असलम ने रहीम चाचा की दुकान पर टँगा कुर्ता-पायजामा अम्मी को दिखलाया और ईद पर वही लेने की हठ कर बैठा। अम्मी ने झिझकते हुए रहीम चाचा से कपड़ों का दाम पूछा। दो सौ रुपए सुनकर उनका कलेजा धक से रह गया। वे चुपचाप असलम को लेकर घर वापस लौट आईं । रास्ते भर असलम उन कपड़ों की तारीफ़ करता रहा।

असलम की इच्छा और उन कपड़ों के प्रति उसका मोह देखकर असलम की अम्मी सोच में पड़ गईं। वे अपने बेटे का दिल तोड़ना नहीं चाहती थीं, पर दो सौ रुपए के कपड़े खरीदना उनके वश में नहीं था। फिर भी, उन्होंने निश्चय किया कि वे असलम को ईद पर वही कुर्ता-पायजामा जरूर लाकर देंगी।

असलम की अम्मी ने अब और अधिक काम करना शुरू कर दिया। वे सुबह जल्दी उठकर कढ़ाई का काम शुरू कर देतीं। दिन भर और फिर देर रात तक कढ़ाई करती रहतीं। एक तो रोज़ा, ऊपर से दोगुनी मेहनत, इसका असर उनकी सेहत पर भी पड़ने लगा। पर, उन्हें तो ईद से पहले नए कपड़े खरीदने के लिए रुपए इकट्ठे करने की धुन सवार थी।

आज असलम बहुत प्रसन्न था। ईद आने में केवल एक दिन शेष रह गया था और उसके हाथ में पूरे दो सौ रुपए थे। उसकी अम्मी ने दिन-रात एक करके, पूरे दो सौ रुपए इकट्ठे कर लिए थे। अम्मी की तबीयत कुछ ठीक नहीं थी इसलिए उन्होंने रुपए देकर असलम को रहीम चाचा की दुकान से वही कपड़े लेने भेज दिया।

रुपए लेकर असलम रहीम चाचा की दुकान की ओर तेज़ी से बढ़ा चला जा रहा था। उसके मन में खुशी के लड्डू फूट रहे थे। वह तरह तरह की कल्पनाओं में खोया हुआ था। वह सोचता जा रहा था कि कल सुबह वह नए कपड़े पहनकर ईदगाह जाएगा। अपने दोस्तों से ईद मिलन करेगा। उसके इतने अच्छे कपड़े देखकर सभी दोस्त दंग रह जाएँगे। इतने अच्छे कपड़े तो और किसी दोस्त के नहीं होंगे।

अचानक असलम की चाल धीमी हो गई। वह कुछ उदास-सा हो गया और सोच में डूब गया। उसके सामने पाठशाला में घटी घटना घूम गई। कल पाठशाला में मोहन कितना रो रहा था। उसे मास्टर जी ने साफ़ कह दिया था कि अगर दो दिन के अंदर उसने शुल्क जमा नहीं किया तो उसका नाम पाठशाला से काट दिया जाएगा। 

मोहन असलम की ही कक्षा में पढ़ता था। उसके पिता मज़दूरी करके किसी प्रकार मोहन को पढ़ाते और घर का खर्च चलाते थे। पिछले दो महीने से वे बहुत बीमार चल रहे थे जिससे काम पर नहीं जा पाते थे। घर में दवा के लिए भी पैसे नहीं थे। दो महीने से मोहन ने पाठशाला का शुल्क जमा नहीं किया था और अब तो खाने के लिए भी घर में कुछ नहीं बचा था।

असलम सोचने लगा कि कितनी मेहनत से रात-दिन एक करके उसकी अम्मी ने इकट्ठे किए हैं और वह इन्हें एक दिन की खुशी के लिए खर्च कर देगा। यदि वह ये रुपए मोहन को दे दे तो उसकी बहुत-सी कठिनाइयाँ दूर हो सकती हैं। ईद पर नए कपड़े नहीं पहने तो क्या फ़र्क पड़ेगा। एक साल और पुराने कपड़ों में ईद मना लेगा। हाँ, मोहन को यदि इस समय सहायता न मिली तो उसकी दुनिया ही बदल जाएगी। 

यह सब सोचकर असलम तेज़ी से मोहन के घर की ओर चल पड़ा। मोहन रुआँसा-सा चारपाई के पास बैठा था। उसके चेहरे पर उदासी छाई थी। उसके पिता चारपाई पर लेटे हुए थे। असलम को देखकर मोहन की आँखें भर आई।

असलम ने मोहन को ढाँढ़स बँधाया और उसे रुपए देते हुए कहा, “मेरे भाई, इन रुपयों से अपने पिता का इलाज करवाओ और पाठशाला जाकर शुल्क जमा करा आओ।" असलम के पास इतने रुपए देखकर मोहन अवाक् रह गया। 

असलम ने उसे समझाते हुए कहा, "मोहन, ये रुपए बहुत ही मेहनत के हैं। मेरी अम्मी ने मुझे नए कपड़े खरीदने के लिए दिए थे। लेकिन कपड़ों का क्या, नए हों या पुराने, झकाझक होने चाहिए।  इन रुपयों का इससे अच्छा कोई दूसरा उपयोग नहीं हो सकता।"

मोहन के मना करने पर असलम ने जबरदस्ती रुपए उसकी जेब में ठूँस दिए। मोहन अपने आपको रोक नहीं सका और असलम से लिपटकर रोने लगा। उसे ऐसा लग रहा जैसे असलम के रूप में भगवान स्वयं उसकी मदद के लिए आए हों।"

असलम जब वापस अपने घर पहुँचा तो अम्मी उसे खाली हाथ आया देखकर हैरान रह गईं। असलम ने जब पूरी बात उन्हें बताई तो उनकी आँखें छलछला आईं। उन्होंने असलम को अपने सीने से लगा लिया। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। उन्हें अपने इस नन्हे, लेकिन विचारों से बहुत बड़े बेटे पर नाज़ हो रहा था। 

अम्मी के मुँह से निकला, “मेरे लाल, तुम एक नेक बच्चे हो! आज तुमने सच्ची ईद मनाई है।"



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