शिविराज की महानता
महर्षि विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे। उनके राजपाट छोड़ जाने पर उनके पुत्र अष्टक ने राजपद ग्रहण किया। अष्टक एक उदार प्रजापालक, पराक्रमी और यशस्वी राजा थे। अष्टक ने अश्वमेध यज्ञ किया जिससे उनका यश और भी बढ़ गया। इस महान यज्ञ में भाग लेने प्रतर्दन "और शिविराज जैसे प्रतापी राजा भी आए अतिथियों का ऐसा आदर-सत्कार किया गया। जैसा कभी न हुआ था। सभी ने राजा की सराहना की। राजा ने हृदय खोलकर दान दिया और यज्ञ वसुमना सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
यज्ञ संपन्न हो जाने के पश्चात राजा अष्टक के मन में कहीं घूम आने का विचार आया। उन्होंने अपना रथ तैयार करवाया और वे भ्रमण के लिए निकल पड़े। प्रतर्दन, वसुमना और शिविराज भी उनके साथ थे। हिमालय की ओर जाते समय रास्ते में उन्हें देवर्षि नारद दिखाई दिए। रथ रोककर सबने उन्हें । प्रणाम किया और साथ चलने का आग्रह किया। नारद जी को लगा कि राजा उनसे कुछ ज्ञान चर्चा करना चाहते है, इसीलिए उन्हें साथ चलने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। नारद जी भी प्रतापी और महान राजाओं के संग का सुख उठाना चाहते थे, अतः वे रथ पर बैठ गए।
कुछ दूर पहुँचकर राजा अष्टक ने कहा, “देवर्षि यदि आज्ञा हो तो कुछ पूछें।" "अवश्य पूछिए राजन", नारद ने हँसकर कहा।
" आप क्या जानना चाहते हैं?"
तभी प्रतर्दन बोल पड़े, “केवल ये ही नहीं, हम सभी जानना चाहते हैं देवर्षि! इतना तो स्पष्ट है कि अपना-अपना धर्म निभाने के कारण हमें स्वर्ग में स्थान अवश्य मिलेगा किंतु हम यह जानना चाहते हैं कि पुण्य क्षीण होने पर हम चारों में से सबसे पहले किसे स्वर्ग से उतरना पड़ेगा ?'
कुछ क्षण सोचकर नारद जी बोले, "राजा अष्टक को ही सबसे पहले स्वर्ग लोक से उतरना पड़ेगा।" राजा अष्टक चौंक पड़े। “ऐसा क्यों भगवन ?' 'राजन, तुम्हें याद है कि एक बार मैं और तुम इसी प्रकार रथ पर बैठे कहीं जा रहे थे। मार्ग में एक साथ हजारों की संख्या में गायों को चरती देखकर मैंने आपसे पूछा था कि ये किसकी गायें हैं। आपने कहा था कि ये मेरी दान की हुई गायें हैं।' "
राजा अष्टक ने सोचकर कहा, "हाँ, याद है। किंतु मैंने सत्य ही तो कहा था।" नारद जी और बोले, "आपने कहा तो सत्य ही था राजन पर इसी कारण आपका मुसकराए
पुण्य क्षीण हो जाता है। आत्म प्रशंसा करने तथा अपने किए हुए दान का बखान करने से कार्य का मूल्य आधा रह जाता है। इसी कारण आपको स्वर्ग से सबसे पहले उतरना पड़ेगा। "
तभी वसुमना उत्सुक होकर पूछने लगे, "अच्छा, हम तीनों में से कौन नारद जी बोले, "आपमें से राजा प्रतर्दन को पहले स्वर्ग से उतरना होगा। "इसका कारण देवर्षि ? " प्रतर्दन ने पूछा।
"कारण बताता हूँ राजन। आपको भी याद होगा। एक दिन में आपका अतिथि था। आप मुझे रथ में बैठाकर नदी की ओर ले जा रहे थे। अचानक रास्ते में एक ब्राह्मण ने आकर आपसे एक अश्व देने की याचना की। आपने रथ के दाहिनी ओर का घोड़ा खोलकर ब्राह्मण को दे दिया। अभी हम थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि फिर एक ब्राह्मण मिला। उसने भी आपसे घोड़े की याचना की। आपने उसे अपने रथ का बायाँ घोड़ा दान दे दिया। कुछ ही दूर बाद फिर एक याचक मिला। उसको । भी अश्व की ही आवश्यकता थी। राजन, आपने उसे कहा कि लौटने पर घोड़ा दे देंगे किंतु उसे भी तुरंत ही अश्व चाहिए था सो आपने अपने रथ के बाऍ धुरे का बोझ सँभालने वाला घोड़ा भी दान I कर दिया। "
नारद जी की बातें सुनकर सब राजा प्रतर्दन की ओर प्रशंसाभरी दृष्टि से देखने लगे। नारद जी ने आगे कहना शुरू किया, "उस दिन पता नहीं क्या हो रहा था, जो भी आता बस घोड़े के लिए ही याचना करता। अभी हम दस गज ही आगे बढ़े होंगे कि फिर एक ब्राह्मण रास्ता रोककर खड़ा हो गया। उसने भी आपसे तुरंत एक घोड़ा देने की प्रार्थना की। आपने रथ से उतरकर दाहिने धुरे का थोड़ा भी खोलकर दे दिया और रथ को स्वयं अपने कंधे पर सँभाल लिया।"
तीनों राजा एक साथ "धन्य-धन्य" कर उठे। नारद जी बोले, "इसमें संदेह नहीं राजा प्रतर्दन कि आप महान दानी हैं, किंतु अंतिम घोड़े का दान करते समय आपने कहा था कि मैं मरते समय तक किसी याचक को 'ना' नहीं कहूँगा किंतु ब्राह्मणों का यह आचरण उचित नहीं। यही कहना आपका दोष था। आप दान तो करते हैं, पर जिसे दान देते हैं उसकी निंदा भी करते हैं। यह सदाचार । के विरुद्ध है। इसी कारण आपका पुण्य शीघ्र ही क्षीण होगा।" राजा प्रतर्दन उदास हो गए।
इस बार राजा शिवि ने वही प्रश्न मुनि से पूछा। नारद जी ने तुरंत उत्तर दिया, "निस्संदेह राजा वसुमना को ही पहले लौटना होगा।" इससे पहले कि राजा इसका कारण पूछते नारद जी स्वयं ही बताने लगे, "राजन, आपके पास एक अद्भुत पुष्परथ था, बिलकुल कुबेर के पुष्पक विमान जैसा-दिव्य और सर्वगामी। मैंने जब वह रथ आपके पास पहली बार देखा तो देखते ही मैं मुग्ध हो गया। मैंने रथ की बड़ी प्रशंसा की तो
आपने कहा कि रथ तो आपका ही है देवर्षि।"
एक क्षण रुककर नारद जी ने फिर कहना प्रारंभ किया, "उसके कुछ दिन बाद मैं फिर आपसे मिला। मैंने उस बार भी रथ की बड़ी प्रशंसा की और आपने भी वही शब्द दोहरा दिए। तीसरी बार भी ऐसा ही हुआ। आपने कहा 'रथ तो आपका ही है। ' किंतु एक बार भी आप मुझे रथ देने के लिए उद्यत न दिखाई दिए। ऐसा आचरण नीति विरुद्ध है और सत्यनिष्ठ पुरुषों के लिए उचित नहीं है। जो केवल मुँह देखी बात करते हैं और उसे पूरी नहीं करते, वे मात्र छल करते हैं। हे राजन, आपके इसी व्यवहार के कारण आपका पुण्य जल्दी क्षीण होगा।" राजा वसुमना का सिर झुक गया। वे खिन्न हो उठे।
थोड़ी देर बाद ही राजा अष्टक ने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए पूछ लिया, "अच्छा मुनिवर, यदि आप और शिविराज साथ-साथ स्वर्ग में हों तो पहले किसे वहाँ से उतरना पड़ेगा ?" "निश्चित रूप से मुझे ही, " नारद जी ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा “राजा शिवि
मुझसे कहीं अधिक लंबे समय के लिए स्वर्ग के अधिकारी हैं।"
यह सुनकर सभी चकित रह गए। "यह क्या कह रहे हैं आप देवर्षि ? राजा शिवि ने ऐसा क्या
किया है?" तीनों राजाओं ने उत्सुक होकर पूछा।
नारद जी बोले, "बताता हूँ, सुनो। एक बार एक ब्राह्मण राजा शिवि के पास आया और कहने लगा कि राजन में भूखा हूँ। मुझे भोजन चाहिए। राजा तुरंत तत्पर हो उठे और बोले, "आज्ञा दीजिए ब्राह्मण देवता। जो खाने की इच्छा हो बताइए। " ब्राह्मण ने एक अत्यंत कठोर इच्छा राजा पर थोप दी।
ब्राह्मण बोला "अपने ज्येष्ठ पुत्र की चिता की अग्नि पर जो भोजन तैयार करवाओगे, वही भोजन ग्रहण करूंगा।" ब्राह्मण की बात सुनकर ये शिविराज तनिक भी विचलित नहीं हुए और बोले, "जैसी आपकी । इच्छा।"
"ब्राह्मण की बात सुनकर सभा में सभी चकित थे। महामंत्री, सेनापति, सभी सभासदों ने। इनसे अनुरोध किया कि ब्राह्मण की इच्छा का पालन करना अत्यंत भयानक है। हो सकता है कि वह व्यक्ति कोई राक्षस हो पर शिविराज तो अपने वचन पर अटल थे। बोले, "अतिथि पर संदेह 1 करना पाप है। इनकी इच्छा पूरी की जाए।" किंतु राजपुत्र का वध करने को कोई तैयार नहीं था। यह कर्तव्य भी राजा शिवि ने स्वयं पूरा किया। इन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र का बलिदान कर उसकी चिता की आग पर भोजन बनवाया।"
तीनों राजाओं ने दाँतों तले उँगली दबा ली। नारद जी ने आगे कहना शुरू किया, "भोजन तैयार । हो गया तो राजा स्वयं थाल परोसकर ब्राह्मण के पास पहुंचे और हाथ जोड़कर बोले कि विप्रवर भोजन तैयार है. ग्रहण कीजिए। आपको भूख लगी होगी। ब्राह्मण भी राजा को इस प्रकार विनयपूर्वक प्रार्थना करते देख अवाक रह गया। वह बोला, "राजन, अब तो न जाने क्यों मुझे भूख नहीं रही, यह भोजन तुम स्वयं खा लो। यह मेरी आज्ञा है।" राजा शिवि फिर भी तनिक विचलित न हुए और 'जो आज्ञा' कहकर भोजन करने बैठ गए। जैसे ही इन्होंने भोजन करने के लिए हाथ बढ़ाया, ब्राह्मण ने इनका हाथ पकड़ लिया और बोला, "हे राजन, तुम धन्य हो। तुमने क्रोध पर विजय पा ली है। तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं है।" यह कहकर ब्राह्मण तुरंत अंतर्धान हो गए। और सामने इनका ज्येष्ठ पुत्र खड़ा मुसकरा रहा था। सभी लोग यह दृश्य देखकर चकित थे।"
राजा प्रतर्दन, वसुमना और अष्टक "धन्य है, धन्य है" कह उठे । नारद जी बोले, "जानते हैं राजन, इनके सभासदों द्वारा इनके कार्य के भयंकर परिणाम की आशंका प्रकट करने पर इन्होंने क्या उत्तर दिया? ये बोले, "मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया है। किसी भूखे को माँगने पर भी भोजन न देना तो मेरे लिए असंभव है। यह अनाचार है। मैं महापुरुषों का अनुगामी हूँ। उनके बताए उत्तम मार्ग पर ही चलना चाहता हूँ। इसी में सबका हित है।" ऐसे महान राजा के सामने, आप ही कहिए, मेरी क्या औकात है। ये शिविराज हर प्रकार से सर्वथा निर्दोष हैं। चंद्रमा के शीतल प्रकाश की भांति इनका निर्मल यश सभी जगह फैल रहा है।"
सभी की जिज्ञासा शांत हो गई थी। रथ तीव्र गति से बढ़ रहा था और सामने हिमालय का शुभ पावन सौंदर्य आँचल फैलाए उनके स्वागत को तैयार खड़ा था।
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