HINDI BLOG : प्रेम में परमेश्वर

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Friday, 30 June 2023

प्रेम में परमेश्वर

प्रेम में परमेश्वर 

गाँव में मूरत नाम का एक बनिया रहता था। सड़क पर उसकी छोटी-सी दुकान थी। वहाँ कि रहते उसे बहुत समय हो चुका था, इसलिए वहाँ के सब निवासियों को वह भली-भाँति जानता था। वह बड़ा सदाचारी, सत्य-वक्ता, व्यावहारिक और सुशील था, जो बात कहता, उसे जरूर पूरा करता था। कभी धेले भर भी कम न तोलता और न ही घी-तेल मिलाकर बेचता । चीज अच्छी न होती, तो ग्राहक साफ़-साफ़ कह देता, धोखा न देता था।

बढ़ती उम्र के साथ में वह भगवत् भजन का प्रेमी हो गया था। उसके और चालक तो पहले ही मर चुके थे, अंत में तीन साल का बालक छोड़कर उसकी स्त्री भी परलोक सिधार गई। पहले तो मूरत ने सोचा, इसे ननिहाल भेज दूँ, पर फिर उसे बालक से प्रेम हो गया। वह स्वयं उसका पालन करने लगा। , उसके जीवन का आधार अब यही बालक था। इसी के लिए वह रात-दिन काम किया करता था. लेकिन शायद संतान का सुख उसके भाग्य में लिखा ही न था । बीस वर्ष की अवस्था में यह बालक भी यमलोक को सिधार गया। अब मूरत के शोक की कोई सीमा न थी । उसका विश्वास हिल गया। सदैव परमात्मा की निंदा कर वह कहा करता था कि परमेश्वर बड़ा निर्दयी और अन्यायी है। मारना बूढ़े को चाहिए था. मार डाला युवक को। यहाँ तक कि उसने मंदिर जाना भी छोड़ दिया। 

एक दिन उसका पुराना मित्र, जो आठ वर्ष से तीर्थयात्रा पर गया हुआ था, उससे मिलने आया। मूरत बोला- "मित्र देखो! सर्वनाश हो गया। अब मेरा जीना व्यर्थ है। मैं नित्य परमात्मा से यही विनती करता हूँ कि वह मुझे जल्दी इस संसार से उठा ले, मैं अब किस आशा पर जीऊँ?"

मित्र  "मूरत! ऐसा मत कहो। परमेश्वर की इच्छा को हम नहीं जान सकते। वह जो करता है ठीक करता है। पुत्र का मर जाना और तुम्हारा जीते रहना विधाता के वश में है और इसमें क्या कर सकता है। तुम्हारे शोक का मूल कारण यह है कि तुम अपने सुख मानते हो। पराए सुख से सुखी नहीं होते।"

मूरत" तो मैं क्या करू?"

मित्र "परमात्मा का निष्काम भक्ति करने अंतःकरण शुद्ध होता है। जब सब काम
परमेश्वर को अर्पण करके जीवन व्यतीत करोगे तो तुम्हें परमानंद प्राप्त होगा।"

मूरत "चित्त स्थिर करने का कोई उपाय तो बतलाओ । मित्र- "गीता, भक्तमालादि ग्रंथों का श्रवण पठन-मनन किया करो। ये ग्रंथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फलों को देने वाले हैं। इनको पढ़ना आरंभ कर दो. चित्त को बड़ी शांति मिलेगी।"

सूरत ने ग्रंथों को पढ़ना आरंभ किया। थोड़े ही दिनों में इन पुस्तकों से उसे इतना प्रेम हो गया कि रात को बारह-बारह बजे तक गीता पढ़ता और उसके उपदेशों पर विचार करता रहता था। पहले वह सोते समय छोटे पुत्र को स्मरण करके रोया करता था, पर अब सब भूल गया। सदा परमात्मा में लीन रहकर आनंदपूर्वक अपना जीवन बिताने लगा। पहले इधर-उधर बैठकर हँसी-ठट्ठा भी कर लिया करता था, पर अब वह समय व्यर्थ न खोता था। वह या तो दुकान का काम करता था या रामायण पढ़ता था। तात्पर्य यह कि उसका जीवन सुधर गया।

एक दिन पुस्तक पढ़ते पढ़ते मूरत के मन में विचार आया कि जब ईश्वर सब प्राणियों पर दया करते हैं. तो क्या मुझे सभी पर दया नहीं करनी चाहिए? तत्पश्चात् सुदामा और शबरी की कथा पढ़कर उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या उसे भी भगवान के दर्शन हो सकते हैं? यह विचारते विचारते उसकी आँख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा- "मूरता मूरत! देख, याद रख, में कल तुझे दर्शन दूँगा।"

यह सुनकर वह दुकान से बाहर निकल आया वह कौन था? वह चकित होकर सोचने लगा, वह स्वप्न है अथवा जागृति कुछ पता न चला। वह दुकान के भीतर जाकर सो गया।

दूसरे दिन प्रात:काल उठा और पूजा-पाठ करके भोजन बनाकर मूरत अपने काम-धंधे में लग गया, परंतु उसे रात वाली बात नहीं भूली थी।

रात्रि को बर्फ गिरने के कारण सड़क पर बर्फ़ के ढेर लग गए थे। मूरत अपनी धुन में बैठा था। इतने में बर्फ हटाने के लिए कोई कुली आया। मूरत ने समझा कृष्ण भगवान आए हैं। आँखें खोलकर देखा कि लालू बर्फ हटाने आया है। हँसकर कहने लगा- "तो तुम हो लालू और मैंने समझा कृष्ण भगवान, वाह री बुद्धि!" लालू बर्फ हटाने लगा। बूढ़ा आदमी था। शीत के कारण बर्फ न हटा सका। थककर बैठ गया और शीत के मारे काँपने लगा। मूरत ने सोचा कि लालू को ठंड लग रही है, इसे आग तपा । मूरत-"लालू भैया! यहाँ आओ तुम्हें ठंड सता रही है। हाथ सेंक लो।" लालू दुकान पर आकर धन्यवाद करके हाथ संकने लगा।

सूरत- "भाई, कोई चिंता मत करो। बर्फ में हटा देता हूँ। तुम बूढ़े हो, ऐसा न हो कि ठंड खा जाओ।" लालू-"तुम क्या किसी की बाट देख रहे थे?" मूरत- "क्या कहूँ, कहते हुए लज्जा आती है। रात मैंने एक ऐसा स्वप्न देखा, जिसे भूल नहीं सकता।

भक्तमाला पढ़ते-पढ़ते मेरी आँख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा-'मूरत।' मैं उठकर बैठ गया। फिर शब्द सुनाई पड़ा, मूरत! मैं तुम्हें दर्शन दूँगा!' बाहर जाकर देखता हूँ तो वहाँ कोई नहीं था। मैं भक्तमाला में सुदामा और शबरी के चरित्र पढ़कर यह जान चुका हूँ कि भगवान ने प्रेमवश किस प्रकार साधारण जीवों को दर्शन दिए हैं। वही अभ्यास बना हुआ है। मैं बैठा कृष्ण भगवान की राह देख रहा था कि तुम आ गए।" लालू- "जब तुम्हें भगवान से प्रेम हैं, तो अवश्य दर्शन होगे। तुमने आग न दी होती, तो मैं मर ही गया था।"

मूरत–‘“वाह भाई लालू! यह क्या बात हुई? इस दुकान को अपना घर समझो। मैं सदैव
तुम्हारी सेवा करने को तैयार हूँ।" 
लालू धन्यवाद करके चल दिया। उसके पीछे दो सिपाही आए। उनके पीछे एक किसान आया। फिर एक रोटी वाला आया। सब अपनी राह चले गए। फिर एक स्त्री आई। वह फटे-पुराने वस्त्र पहनी हुई थी। उसकी गोद में एक बालक था। दोनों शीत के मारे काँप रहे थे।

मूरत - "माई! बाहर ठंड में क्यों खड़ी हो? बालक को जाड़ा लग रहा है, भीतर आकर कपड़ा ओढ़ लो।" स्त्री भीतर आई। मूरत ने उसे चूल्हे के पास बिठाया और बालक को मिठाई दी।

मूरत- "माई. तुम कौन हो?"

स्त्री- "मैं एक सिपाही की स्त्री हूँ। आठ महीने से न जाने कर्मचारियों ने मेरे पति को कहाँ भेज दिया है. कुछ पता नहीं लगता।

गर्भवती होने पर मैं एक जगह रसोई का काम करती थी। ज्योंही यह बालक उत्पन्न हुआ तो उन्होंने इस भय से कि दो जीवों को अन्त देना निकाल दिया। मैं तीन महीने से मारी-मारी फिर रही हूँ। कोई टहलनी नहीं रखता। जो कुछ पास था, सब बेचकर खा गई। इधर साहूकारिन के पास जा रही हूँ। शायद नौकरी पर रख लें।" 

मूरत - "तुम्हारे पास कोई ऊनी वस्त्र नहीं है?" 

स्त्री" वस्त्र कहाँ से हो, पैसा ही तो पास नहीं।"

सूरत- "यह लो लोई, इसे ओड़ लो।

स्त्री " भगवान तुम्हारा भला करे। तुमने बड़ी दया की। बालक शीत के मारे मरा जाता था।" 

मूरत- "मैंने कुछ नहीं किया। श्रीकृष्ण भगवान की इच्छा ही ऐसी है।'

फिर मूरत ने स्त्री को रात वाला स्वप्न सुनाया। स्त्री- "ईश्वर का दर्शन होना कोई असंभव तो नहीं है। " स्त्री के चले जाने पर सेब बेचनेवाली आई। उसके सिर पर सेबों की टोकरी थी और पीठ पर अनाज की गठरी टोकरी जमीन पर रखकर खंभे का सहारा ले वह विश्राम करने लगी कि एक बालक टोकरी में से एक सेब उठाकर भागा। सेववाली ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और सिर के बाल खींचकर मारने लगी। बालक बोला- "मैंने सेब नहीं उठाया।" मूरत ने उठकर बालक को छुड़ा दिया।

मूरत- "माई, क्षमा कर, बालक है।"

सेबवाली—“यह बालक बड़ा उत्पाती है। मैं इसे दंड दिए बिना कभी न छोडूंगी।'

मूरत- "माई, यह क्या कहती हो ! बदला और दंड देना तो मनुष्यों का स्वभाव है, परमात्मा का नहीं, वह दयालु है। यदि इस बालक को एक सेब चुराने का कठिन दंड मिलना उचित है, तो हमें हमारे अनंत पापों का क्या दंड मिलना चाहिए?"

सेबवाली- 'यह सत्य है, परंतु ऐसे बरताव से बालक बिगड़ जाते हैं।"

मूरत - "कदापि नहीं बिगड़ते नहीं, अपितु सुधरते हैं।"

सेबवाली टोकरा उठाकर चलने लगी कि उसी बालक ने आकर विनती की "माई, यह टोकरा तुम्हारे घर तक मैं पहुँचा आता हूँ।'

रात्रि होने पर मूरत भोजन करने के बाद गीता का पाठ कर रहा था कि उसकी आँख झपको और उसने यह दृश्य देखा- 
"मूरत! मूरत!"

मूरत "कौन हो?".

"मैं- लालू।" इतना कहकर लालू हँसता हुआ चला गया।

फिर आवाज़ आयी - " मैं हूँ।" मूरत देखता है कि दिन वाली स्त्री लोई ओढ़े बालक को गोद में लिए सम्मुख आकर खड़ी हुई, हँसी और लुप्त हो गई। फिर शब्द सुनाई दिया- "मैं हूँ।" देखा कि सेब बेचनेवाली और बालक हँसते-हँसते सामने आए और अंतर्ध्यान हो गए।
 
मूरत उठकर बैठ गया। उसे विश्वास हो गया कि कृष्ण भगवान के दर्शन हो गए, क्योंकि प्राणीमात्र पर दया करना ही परमात्मा का दर्शन करना है।

                                                                                  - लियो टॉलस्टॉय(अनुवाद - प्रेमचंद)

No comments:

Post a Comment

If you have any doubt let me know.