नचिकेता
यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित थी। वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ घी और सामग्री का आहुतियाँ उसमें पड़ रही थीं। सारे वातावरण में सुगंध व्याप्त थी और वाजश्रवा के चेहरे पर विशेष प्रसन्नता झलक रही थी। उनके द्वारा आयोजित यज्ञ की आज पूर्णाहुति जो थी ! देश भर के बड़े-बड़े विद्वान और ऋषि-मुनि पधारे थे। सभी सोच रहे थे कि यज्ञ के उपरांत वाजश्रवा ब्राह्मणों को प्रभूत दक्षिणा देंगे।
यज्ञ समाप्त हुआ। ब्राह्मणों ने वाजश्रवा को आशीर्वाद दिया और वाजश्रवा ने उन्हें दक्षिणा देना आरंभ किया। किंतु यह क्या! यज्ञ की इस अंतिम घड़ी में वाजश्रवा को किस मोह ने घेर लिया ? कहाँ तो उन्होंने निश्चय किया था कि यज्ञ की समाप्ति पर वह अपनी सारी संपत्ति दान कर देंगे और कहाँ दक्षिणा में देने लगे ऐसी निर्बल और बूढ़ी गायें, जिन्होंने दूध देना ही बंद कर दिया था।
लोग दबी ज़बान से वाजश्रवा की आलोचना कर रहे थे। किंतु सबसे अधिक दुखी था, कोने में बैठा वह किशोर बालक।
कौन था वह ?
वह था वाजश्रवा का पुत्र - नचिकेता।
अपने पिता की इस कृपणता को देखकर नचिकेता से न रहा गया। वह उनके पास गया और बोला, "पिता जी, दक्षिणा में तो यजमान अपनी प्रिय-से- प्रिय वस्तु दे देते हैं। आपने तो ऐसी गायें दी हैं, जिनका आपके लिए कोई उपयोग ही नहीं रह गया है। इससे तो आपको पुण्य नहीं मिलेगा ।"
वह फिर कुछ रुककर बोला, "पिता जी! आपको सबसे प्रिय तो मैं हूँ, आप मुझे ही किसी को दक्षिणा में क्यों नहीं दे देते ?"
वाजश्रवा ने नचिकेता की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, पर नचिकेता अपना प्रश्न दोहराता रहा। वह बार- बार पूछता, "आप मुझे किसको दक्षिणा में देंगे ?"
वाजश्रवा झुँझला उठे। बच्चे के हठ से क्रुद्ध होकर वे बोले, "जा, मैंने तुझे मृत्यु को दिया । "नचिकेता विनम्र भाव से बोला, "पिता जी, आप क्रुद्ध न हों। मैं आपके आदेश का पालन करूँगा। मुझे मृत्यु के देवता यमराज के पास जाने की अनुमति दीजिए।”
वाजश्रवा को अब अनुभव हुआ कि क्रोध के कारण उसके मुँह से बहुत ही अनुचित बात निकल गई है। किंतु अब उपाय ही क्या था ? जिस तरह धनुष से छूटा हुआ बाण वापस नहीं आ सकता, उसी तरह मुँह से निकली हुई बात भी लौटाई नहीं जा सकती थी। नचिकेता अपने पिता और अन्य सभी संबंधियों से विदा लेकर यमराज के घर चल दिया।
यमराज उस समय यमपुरी में नहीं थे। नचिकेता तीन दिन तक भूखा-प्यासा उनके दरवाजे पर पड़ा रहा। यमराज लौटे तो एक ब्राह्मण कुमार को अपने घर के बाहर इस दशा में देखकर बहुत दुखी हुए। इस अवस्था में भी उसके मुख पर तेज था और चेहरे पर दृढ़ता झलक रही थी। जिस यमराज के नाम से सभी मनुष्य थर-थर काँप उठते हैं, उनके सम्मुख बालक नचिकेता बिना किसी भय के, स्वाभिमान के साथ खड़ा था।
यमराज ने नचिकेता का यथोचित सत्कार किया और फिर उसके आने का प्रयोजन पूछा। नचिकेता ने अपने पिता के यज्ञ की सारी कथा सुनाकर अपने आने का कारण बताया। यमराज बोले, "नचिकेता, तुम्हारी पितृ-भक्ति और दृढ़ निश्चय से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। साथ ही मुझे इस बात का बहुत दुःख है कि तुम्हें तीन दिन तक मेरे दरवाजे पर भूखा-प्यासा रहना पड़ा। इसका प्रायश्चित करने के लिए मैं तुम्हें तीन वरदान देना चाहता हूँ। बोलो, क्या क्या माँगते हो ?" नचिकेता बहुत प्रसन्न हुआ और बोला, ``धर्मराज, मुझे पहला वरदान तो यह दीजिए कि मेरे पिता जी का मुझ पर क्रोध शांत हो जाए और जब मैं आपके पास से वापस जाऊँ तो वे मुझे पहचान लें और प्यार से बोलें।"
"ऐसा ही होगा।" यमराज ने कहा, "तुम्हारे लौटने पर तुम्हारे पिता तुमसे उसी तरह प्यार से बोलेंगे, जैसे पहले बोलते थे, वे अपना सारा क्रोध भूल जाएँगे।"
"अब दूसरा वरदान माँगो" यमराज बोले। वरदान माँगने से पहले नचिकेता ने काफ़ी विचार किया कि वह क्या माँगे। फिर उसे ध्यान आया कि बहुत से मनुष्य इस संसार से परे स्वर्ग की इच्छा करते हैं। उसके पिता ने भी तो स्वर्ग की अभिलाषा से ही यज्ञ किया था। वह यमराज से बोला, "लोग कहते हैं कि स्वर्गलोक में बहुत सुख मिलता है। न वहाँ भूख-प्यास की चिंता है, न बुढ़ापा है, न कोई रोग। वहाँ के निवासी हर समय अलौकिक सुख का ही भोग करते रहते हैं। उस आनंदपूर्ण स्वर्ग को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? मुझे इसका उपदेश दीजिए।"
स्वर्ग के बारे में नचिकेता की जिज्ञासा जानकर यमराज को कुछ आश्चर्य हुआ। इतना छोटा-सा बालक इस लोक में सुख देने वाली वस्तुएँ न माँगकर अदृश्य स्वर्ग के बारे में प्रश्न कर रहा है! वचनबद्ध यमराज ने नचिकेता को वे सब विधियाँ समझाईं, जिनसे मनुष्य स्वर्ग प्राप्त कर सकता है। यमराज के कहने पर नचिकेता ने जो कुछ सीखा, उसे बिलकुल वैसा ही यमराज को सुना दिया। उसकी तीव्र बुद्धि और स्मरणशक्ति से यमराज बहुत प्रसन्न हुए।
"वत्स, अब तीसरा वरदान माँगो " यमराज ने कहा।
नचिकेता ने फिर विचार किया। इस पृथ्वी की किसी वस्तु की अभिलाषा उसे नहीं थी। स्वर्ग का रहस्य यमराज ने बता ही दिया था। फिर वह क्या माँगे ?
उसे विचार आया कि संसार में एक वस्तु है जो पृथ्वी और स्वर्ग के सुख से भी बढ़कर है, और वह है- हमारी अपनी आत्मा ।
वह यमराज से बोला, "भगवन, कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद आत्मा जीवित रहती है, कुछ कहते हैं कि नहीं रहती। इस विषय में मेरा अज्ञान अब तक दूर नहीं हुआ है। तीसरे वरदान के रूप में कृपाकर मुझे आत्मा का रहस्य समझाइए ।"
यमराज को उस अल्पवयस्क बालक से ऐसे गंभीर प्रश्न की आशा नहीं थी। वे बोले, "वत्स, यह तुमने कैसा वरदान माँगा ? तुम अभी छोटी अवस्था के बालक हो। आत्मा का रहस्य तो बड़े-बड़े विद्वान भी नहीं जान सके हैं। यहाँ तक कि देवताओं को भी इसके विषय में संदेह रहता है। तुम मुझसे कोई और वरदान माँग लो।"
पर नचिकेता अपनी बात पर दृढ़ रहा। वह बोला, "जब बड़े-बड़े विद्वान भी आत्मा का रहस्य नहीं जान पाए हैं और जब देवताओं को भी इसके विषय में संदेह रहा है तब तो मैं आत्मा का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहूँगा। इस ज्ञान का देनेवाला भी तो आपसे बढ़कर और कोई नहीं मिलेगा। आप मुझे कृपाकर आत्मा के बारे में ही बताइए।"
संसार का कोई भी प्रलोभन नचिकेता को उसके निश्चय से डिगा नहीं सका। वह यमराज की परीक्षा में खरा उतरा। प्रसन्न होकर यमराज ने उसे उपदेश देना आरंभ किया-
"आत्मा न तो कभी पैदा होती है, न मरती है। वह अजर-अमर है और शरीर के नष्ट हो जाने पर भी विद्यमान रहती है।"
'आत्मा का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। ज्ञानी मनुष्य सब प्राणियों को अपने अंदर और अपने आपको सब प्राणियों के अंदर देखता है।"
"अपने शरीर को यदि तुम एक स्थ मानो तो इंद्रियाँ उसके घोड़े हैं, मन उन घोड़ों की लगाम है और बुद्धि सारथी के स्थान पर है। इस रथ पर बैठकर यात्रा करने वाला यात्री आत्मा है। उसी के लिए सारा खेल रचा गया है।"
"जिस प्रकार दुष्ट घोड़े रथ में सवार व्यक्ति को संकट में डाल देते हैं, उसी प्रकार अनियंत्रित इंद्रियाँ मनुष्य को दुर्दशा की ओर ले जाती हैं।"
"तो पुत्र, उठो, जागो और श्रेष्ठ व्यक्तियों के पास जाकर उनसे ज्ञान प्राप्त करो।" इसके बाद उन्होंने नचिकेता को आशीर्वाद दिया।
बालक नचिकेता ने यम के उपदेशों पर आचरण किया। वह बड़ा होकर अत्यंत विद्वान और धर्मात्मा ऋषि बना।
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