बुद्ध की स्वतंत्रता
बहुत समय पहले हिमालय की घाटियों के एक गाँव में बुद्ध के अनुयायी वास करते थे। वह गाँव पूरी दुनिया से अलग शांत और संपूर्णता का जीवन व्यतीत कर रहा था। बहुत अधिक ऊँचाई पर होने के कारण गाँववासियों को अधिक समय तक प्रचंड शीत का सामना करना पड़ता था। इसलिए ग्रीष्म ऋतु में ही गाँववासी इकट्ठे होकर भोजन और जलाने की लकड़ियों का उचित प्रबंध करके अपने को आने वाली शीत लहरों के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लेते थे।
गाँव के मध्य में एक छोटा-सा मठ था, भगवान बुद्ध की एक बहुत पुरानी विशालकाय लकड़ी की प्रतिमा से सुसज्जित ! दैनिक प्रार्थना सभा के अतिरिक्त वह मठ गाँव के निवासियों की सुरक्षा तो करता ही था साथ ही उन्हें तीक्ष्ण व तूफानी मौसम की चपेटों में विभिन्न सुविधाओं की आपूर्ति भी करता था।
प्रतिदिन मठाधीश लामा व गाँववासी बुद्ध-प्रतिमा की पूर्ण समर्पित भाव व धार्मिक रीति से पूजा करते थे। लामा समस्त गाँववासियों के मार्गदर्शक, नेता तथा प्रेरणास्रोत थे। सबको यह पता था कि स्वयं लामा को बुद्ध की प्रतिमा से ही प्रेरणा मिलती है और वही प्रतिमा उनकी जीवन-शक्ति का स्रोत है। गाँव में यह अफ़वाह भी थी कि रात के सन्नाटे में बुद्ध की प्रतिमा सजीव होकर लामा में ज्ञान का संचार करती थी।
एक बार शीत का आगमन अपने समय से पूर्व ही हो गया और पर्याप्त भोजन और जलाने की लकड़ियों का प्रबंध नहीं हो पाया। एक तो शीत के पूर्व आगमन ने स्थिति को गंभीर बना दिया था दूसरी ओर ठंड बढ़ती ही जा रही थी। इस स्थिति के विषय में बात करने के लिए सब लोग मठ में एकत्र हुए और आग जलाकर उन्होंने शीत के प्रकोप को कम करने का प्रयत्न किया। लेकिन आग की गर्मी उस मौसम में गरमाहट नहीं ला सकी और लकड़ी का अंतिम टुकड़ा भी उस हवन में स्वाहा हो गया। शीत अपनी तीव्रता को बढ़ाता जा रहा था और सब लोगों ने उससे बचने के लिए कंबलों और शॉलों की शरण ली थी। भोजन की कमी ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया था।
लकड़ी का एक-एक टुकड़ा अग्नि को समर्पित हो चुका था। मौसम की तीक्ष्णता मनुष्य को कितना निष्ठुर बना देती है! अब सबको शीत से बचने का एकमात्र उपाय दिखाई दे रहा था - बुद्ध की लकड़ी की प्रतिमा, जिसे जलाकर वे शीत से अपने को बचा सकते थे। लेकिन किसी की भी यह हिम्मत नहीं थी कि वह लामा से इस विषय में पूछ सके; लामा इस समय अपने कक्ष में ध्यान में लीन थे। लेकिन जब गाँववासियों को मृत्यु सामने खड़ी दिखाई देने लगी और यह सब उनके लिए असहनीय हो गया तब एकमत से उन्होंने गाँव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति से निवेदन किया कि वह लामा से इस विषय में बात करे। वह बुजुर्ग व्यक्ति लामा के पास गया और उसने अपने अंतर्मन की समस्त शक्ति एकत्र करके ध्यानमग्न लामा से कँपकँपाती आवाज़ में प्रार्थना की-"हमने अपनी इकट्ठी की हुई सारी लकड़ियाँ जला दी हैं, यहाँ तक कि घर का सामान तथा बच्चों के खिलौने भी अग्नि को समर्पित कर दिए हैं।
अब हमारे बचने का कोई भी उपाय नज़र नहीं आ रहा है और हमारी मृत्यु निश्चित है। आप हमारा मार्गदर्शन कीजिए नहीं तो हमारा विनाश निश्चित है। कृपया बताइए हम क्या करें ?"
लामा ने उसे स्नेह से देखा और उठ खड़े हुए। वे शांत भाव से मठ के मध्य में बने पूजागृह की ओर चल पड़े, वह वृद्ध व्यक्ति एक मासूम बच्चे की तरह उनके पीछे चल रहा था। लामा उस पूजागृह में पहुँचे जहाँ समस्त गाँववासी दुबके हुए थे। बुद्ध की प्रतिमा के प्रति लामा का स्नेह और श्रद्धा उनकी आँखों से साफ़ दिखाई दे रही थी ।
प्रतिमा के पास पहुँचकर लामा आदरपूर्वक उनके आभूषण उतारने लगे और फिर उन्होंने श्रद्धेय प्रतिमा को लकड़ी के टुकड़ों में बदल दिया। गाँववासी, लामा को किंकर्तव्यविमूढ़ हो देखते रह गए, वे बिना किसी शंका और हिचकिचाहट के उन लकड़ियों को एकत्र कर रहे थे जो कभी बुद्ध की प्रतिमा के रूप में सुशोभित थीं और । फिर उन्होंने उन्हें अग्नि के अवशेषों को समर्पित करने के लिए दे दिया।
कुछ ही समय में अग्नि फिर से जीवंत हो उठी, लोगों के मन में जीवन के प्रति एक नए उत्साह का आगमन हुआ। जब लामा अपने निवास की ओर वापस जाने लगे तो उन्होंने मधुर स्वर में मुसकराते हुए कहा- "आज हमारे प्रिय बुद्ध हम में विलीन हो स्वतंत्र हो गए हैं।"
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