HINDI BLOG : मंत्र प्रेमचंद को श्रेष्ठ कहानी

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Tuesday, 13 June 2023

मंत्र प्रेमचंद को श्रेष्ठ कहानी

 

मंत्र  

संध्या का समय था। डॉक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए निकल रहे थे। तभी एक बूढ़ा औषधालय के सामने आकर रुक गया। डॉक्टर साहब ने अंदर से ही गरजकर पूछा-"कौन है? क्या चाहता है?" चूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा “हुजूर, बहुत गरीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कई दिनों से डॉक्टर साहब ने कहा- "कल सवेरे आओ, इस वक्त हम मरीजों को नहीं देखते।'

बूढ़ा सिर झुकाकर बोला- “दुहाई हैं, सरकार की। मेरे लड़के ने चार दिन से आँखें नहीं खोलीं। लड़का मर जाएगा, हुजूर! एक निगाह भर देख लें। आपका जस सुनकर आया हूँ। सात लड़कों में से यहाँ एक बच्चा है। कृपा करें। सरकार।"

ऐसे उजड्ड देहाती यहाँ रोज ही आया करते हैं। डॉक्टर साहब ने धीरे से चिक उठाई और मोटर पर बैठकर बोले- "कल आना।" मोटर जाने के कई मिनट बाद तक बूढ़ा मूर्ति की तरह खड़ा रहा। सभ्य समाज ऐसा कठोर है। ऐसा मर्मातक अनुभव उसे पहली बार हुआ था। उसे डॉक्टर साहब के वापस लौट आने की पूरी आशा थी। यहाँ से निराश होकर वह किसी दूसरे डॉक्टर के पास न गया। उसी रात वह चालक अपनी बाल लीला समाप्त कर मृत्यु को प्राप्त हो गया। दोनों पति-पत्नी के जीवन का सूर्य अस्त हो गया।

कई वर्ष बीत गए। डॉक्टर चड्ढा ने यश और धन कमाने के साथ-साथ स्वास्थ्य की भी रक्षा की। डॉक्टर चड्डा उपचार और संयम का महत्त्व खूब समझते थे। उनकी दो संतानें थीं। लड़की का विवाह हो चुका था। लड़का कॉलेज में पढ़ता था। वह बहुत शीलवान और उदार था। आज उसकी बीसवीं सालगिरह थी।

संध्या का समय था। शहर के रईस एक ओर बैठे थे, दूसरी ओर कॉलेज के छात्र भोजन कर रहे थे। वातावरण आमोद-प्रमोद से भरा हुआ था। सहसा एक रमणी ने लड़के के पास आकर कहा- "क्यों कैलाश, क्या मुझे अपने साँप न दिखाओगे?" कैलाश ने कहा- "मृणालिनी इस वक्त क्षमा करो, कल दिखा दूंगा।" मृणालिनी ने कहा- "नहीं, मुझे तो अभी दिखाओ।"
कैलाश और मृणालिनी दोनों सहपाठी थे और एक-दूसरे से प्रेम करते थे। कैलाश को साँपों को पालने और नचाने का शौक था। साँपों की जड़ी-बूटियाँ जमा करने का भी उसे शौक था। ये जड़ी-बूटियाँ वह किसी भी कीमत पर खरीद लिया करता था। मृणालिनी कई बार साँपों को देख चुकी थी. पर आज वह साँपों को देखने को उत्सुक हो उठी थी या फिर कैलाश पर (लोगों के सामने) अपने अधिकार का प्रदर्शन करना चाहती थी। कैलाश रात में साँपों को छेड़ना नहीं चाहता था पर अब अन्य लोगों ने भी आग्रह करना आरंभ कर दिया। प्रीति भोज समाप्त होने पर कैलाश मित्रों को लेकर साँपों की पिटारियों के पास चला आया। उसने महुअर बजाना आरंभ किया।  फिर एक- एक साँप को निकालकर दिखाने लगा। उसने किसी साँप को हाथ में उठा लिया, किसी को गले में डाल लिया। साँपों को कैलाश की गरदन में लिपटते देखकर मृणालिनी पछताने लगी कि नाहक हो आग्रह किया। वह उसे मना करने लगी।
एक मित्र ने टीका-टिप्पणी की" दाँत तोड़ डाले होंगे।" कैलाश हँसकर बोला-" दाँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी भी साँप के दाँत नहीं तोड़े गए हैं।"
उसने एक काला साँप हाथ में लेकर कहा-"मेरे पास इससे बड़ा और जहरीला दूसरा साँप नहीं है। इसके काटते ही आदमी मर जाएगा।" मृणालिनी विनती करने लगी, "ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो।" सभी एक मित्र बोल उठा-" तुम कहते हो तो मान लेता है।" कैलाश ने शंका का समाधान करने के लिए साँप की गर्दन इतनी जोर से दबाई कि उसका मुँह लाल हो गया और शरीर की नसें तन गई। साँप कैलाश का यह नया व्यवहार देखकर दंग रह गया। उसे भ्रम हुआ कि यह उसे मार डालेगा, इसलिए वह आत्मरक्षा के लिए तैयार हो गया।

कैलाश ने उसकी गर्दन जोर से दबाकर मुँह खुलवाकर उसके दाँत दिखाए। फिर वह बोला- "विश्वास आया या अभी भी कुछ शक है।" मित्र उसके दाँत देखकर चकित रह गए। प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता? मित्रों को दिखाकर कैलाश ने साँप की गरदन ढीली करके उसे जमीन पर रखना चाहा पर वह साँप तो क्रोध से पागल हुआ जा रहा था। उसने कैलाश को उँगली में जोर से काटा और वहाँ से भागा। उँगली में से खून टपकने लगा। बाहर महफ़िल में खबर हुई। डॉक्टर साहब घबराकर भागे। फौरन उँगली को जड़ को कसकर बाँध दिया गया और जड़ी पोसकर लगाई गई।

डॉक्टर साहब जड़ी के कायल न थे; मगर कैलाश को जड़ी पर पूरा विश्वास था। इसी बीच कैलाश की आँखें झपकने लगी। ओठों पर नीलापन दौड़ने लगा। खड़ा न रह सकने के कारण वह फर्श पर बैठ गया। माँ ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और टेबल फैन चला दिया।

कैलाश कुछ भी बोल नहीं पा रहा था। मृणालिनी ने करूण स्वर में पूछा "क्या जड़ी कुछ असर न करेगी?"
डॉक्टर साहब ने सिर पकड़कर कहा- "क्या बताऊँ? अब तो मेरे नश्तर से भी कुछ फायदा न होगा।"
कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जा रही थी। उसका शरीर ठंडा पड़ने लगा, आँखें पथरा गई। नाड़ी भी पता नहीं चल रही थी या नहीं। घर भर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एवं कैलाश की माँ का बुरा हाल था। डॉक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया नहीं तो वे नश्तर अपनी गरदन पर मार लेते। एक व्यक्ति ने सलाह दी कि कोई मंत्र झाड़ने वाला मिले तो संभव है, अब भी जान बच जाए। दूसरे व्यक्ति ने समर्थन करते हुए कहा- "मंत्र जानने वाले तो कब्र में पड़ी हुई लाश में भी प्राण फुंक देते हैं। "
डॉक्टर चड्ढा अफसोस करते हुए कहने लगे-"मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था जो इसकी बातों में आ गया।
नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती? बार-बार मना किया बेटा साँप न पालो बुलाइए, किसी झाड़-फूँक वाले को ही बुलाइए। मेरा सब कुछ ले लो, पर मेरे बेटे की जान बचा दो।" एक व्यक्ति दौड़कर किसी झाड़ने वाले व्यक्ति को बुला लाया; मगर कैलाश की सूरत देखकर वह बोला- “ अब क्या हो सकता है सरकार? जो कुछ होना था हो चुका।" शहर से बहुत दूर एक वृद्ध दंपत्ति एक छोटे से घर में अंगीठी के सामने बैठकर जाड़े की रात काट रहे थे। वृद्ध एवं वृद्धा निर्मिमेष भाव से आग की ओर ताक रहे थे। वृद्ध बीच-बीच में खाँसता जाता था। कोठरी के एक कोने में चूल्हा था। बुढ़िया दिन भर उपले और सूखी लकड़ियाँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बटकर बाजार में बेच आता था। यही उनकी जीविका थी।

इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज दी- " भगत, भगत सो गए क्या? जरा किवाड़ खोलो। "
भगत ने किवाड़ खोल दिए। एक आदमी अंदर आकर बोला "कुछ सुना? डॉक्टर चड्ढा के लड़के को सौंप ने काट खाया।" भगत ने चौककर कहा-"वही जा छावनी में बैंगले में रहते हैं?"
“हाँ हाँ वहीं यदि जाना चाहो तो चले जाना डॉक्टर साहब बहुत पैसा देंगे।" बड़े का चेहरा एकदम कठोर हो गया। वह बोला- “भैया को उन्हीं के पास लेकर गया था। नाक साड़ने पर भी उन्होंने एक नजर भी न देखा। अब जान पड़ेगा कि बेटे का दुख क्या होता है? कितने लड़के हैं?"
"यही एक है। सबने जवाब दे दिया है।'
"ईश्वर बढ़ा कारसान्त है। मेरे रोने का उन पर तनिक भी असर नहीं पड़ा। मैं वहाँ होता, तो भी इलाज न करता । "
"तो तुम न जाओगे? चले जाते तो बहुत रुपया पाते। "
“हे ईश्वर। तेरी इस कारीगरी को सुनकर कलेजे में ठंडक पड़ गई। तू सभी पर कृपा करता है। अब चैन की नींद सोऊँगा।" बुढ़िया ने कहा- "इतनी रात को बाड़े पाले में कौन जाएगा?"
'अरे, दोपहर होती तो भी न जाता। हमारे बेटे को इन्होंने एक नजर देखा भी नहीं था। अब किसी दिन उनसे भगत के जीवन में यह पहला अवसर था कि साँप के काटे की खबर पाकर भी वह चुपचाप बैठा रहा। कुछ देर जाकर पूछूंगा? क्यों साहब कहिए क्या हाल है?
बाद बूढ़ा लेट गया। बुढ़िया जरा देर में खराटे लेने लगी। भगत ने धीरे से उठकर किवाड़ खोलें। बुढ़िया ने जागकर कहा-"कहाँ जाते हो?"
"कहीं नहीं देख रहा था कि रात कितनी है।"
"अभी रात बहुत हैं, सो जाओ।" बड़ा दरवाजा बंद करके लेट गया। बुढ़िया फिर सो गई। भगत को चैन कहाँ ? वह धीरे से किवाड़ खोलकर बाहर आ गया।।
गाँव का चौकीदार गश्त लगा रहा था। उससे पूछा - " भला के बजे होंगे। " चौकीदार बोला- “एक बना है, तुम इतनी ठंड में कहाँ चलें? अगर तुम डॉक्टर चड्ढा के यहाँ चले जाओ तो साइत उनका लड़का बच जाए। दस हजार तक देने को तैयार हैं।"
भगत ने कहा-"मैं तो न जाऊँगा, चाहे वह दस लाख दे दें। कल मर जाऊँगा। मेरी कौन-सी औलाद बैठी है, जो धन भोगेगी।"
भगत के पैर स्वयं ही डॉक्टर चड्ढा के बँगले की ओर बढ़ चले मन में प्रतिकार था पर कर्म मन के वश में नहीं होता। उसको उपचेतना उसे बार-बार पीछे ढकेलती पर वह मन को समझाता। वह वहाँ झाड़-फूंक करने नहीं जा रहा। वह तो डॉक्टर साहब की दशा देखने जा रहा है। इतने में दो आदमी बातें करते आते दिखाई दिए। चड्ढा साहब का तो घर ही उजड़ गया, वही तो एक लड़का था।
उसकी चाल और तेज हो गई। बंगले में सन्नाटा था। रात के दो बज गए थे। भगत ने दुवार पर पहुँचकर आवाज दी। डॉक्टर साहब ने समझा कोई मरीज होगा कोई और समय होता तो दुत्कार देते. किंतु आज नम्रता से बोले -" आज हमारे ऊपर बहुत बड़ी मुसीबत आ पड़ी है एक महीने तक तो शायद मैं कोई मरीज नहीं देख पाऊँगा।"

भगत ने कहा- "सुन चुका हूँ बाबू जी इसीलिए आया हूँ। देख लूँ शायद भगवान को दया आ जाए। वह मुरदे को भी जिला सकता है।"
डॉक्टर साहब ने व्यथित स्वर में कहा- "चलो देख लो। जो होना था, हो चुका। बहुतेरे झाड़ने फेंकने वाले हार मानकर चले गए हैं।" भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुस्कराकर बोला- "अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। अगर नारायण चाहेंगे, तो आधे घंटे में भैया उठ बैठेंगे। जरा कहारों से कहिए पानी भर-भर कर भैया को नहलाना शुरू करें।"

कहारों के साथ-साथ मेहमान भी अहाते के कुएँ से पानी भर-भरकर लाने लगे। बूढ़ा भगत मुस्करा मुस्करा कर कोई मंत्र पढ़ रहा था। एक बार मंत्र समाप्त होने पर वह एक जड़ी कैलाश को सुधा देता। अनेक बार उसने मंत्र फूँके और अनेक बड़े पानी कैलाश के सिर पर डाला गया। उषा के आगमन के साथ-साथ कैलाश में भी आँखें खोल दीं। उसने अंगड़ाई लेकर पानी माँगा। कैलाश की माँ दौड़कर भगत के पैरों में गिर गई। एक क्षण में चारों तरफ़ खबर फैल गई। सभी मुबारकबाद देने लगे और भगत की प्रशंसा करने लगे। वहाँ उपस्थित सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक थे, मगर अंदर जाकर देखा तो भगत का कहीं पता न था।
कैलाश को माँ बोली - " मैने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दूँगी।" डॉक्टर साहब ने कहा- रात को मैंने नहीं पहचाना, पर अब याद आ रहा है। एक बार यह एक मरीज को लेकर आया था। मैं खेलने जा रहा था और मरीज को देखने से मना कर दिया था। आज मुझे बहुत ग्लानि हो रही है। मैं उसे ढूँढ़कर अपना अपराध क्षमा करवाऊँगा। मैं जानता हूँ, वह कुछ नहीं लेगा। उसका जन्म यश की वर्षा करने के लिए ही हुआ है।" डॉक्टर साहब की बात सुन कैलाश की माँ को आँखें भी छलछला आईं। वह भगत को दुआएँ देने लगी।





 

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