सुभागी- प्रेमचंद
हमारे समाज में प्राचीन काल से यह कुप्रथा चली आ रही है कि लड़कों को लड़कियों की अपेक्षा श्रेष्ठ समझा जाता है किंतु कथा सम्राट द्वारा लिखित प्रस्तुत कहानी यह बताती है कि कष्ट और तनाव देने वाले पुत्र की अपेक्षा सम्मान देने वाली बेटी अच्छी होती है।
तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी से बहुत प्यार करते थे। छोटी उम्र में ही वह घर के काम में चतुर और खेती-बाड़ी के काम में निपुण थी। उसका भाई राम, जो उम्र में बड़ा था, बड़ा ही कामचोर और आवारा था। तुलसी ने सुभागी और रामू दोनों की ही शादी कर दी। थोड़े ही दिन बीते थे कि अचानक एक दिन बड़ी विपदा आ गई। सुभागी बहुत छोटी उम्र में ही विधवा हो गई। सुभागी के दुख की तो सीमा ही न थी। बेचारी को अपना जीवन पहाड़-सा लगने लगा था। किसी तरह कुछ साल बीते लोग तुलसी महतो पर दबाव डालने लगे कि लड़की की कहीं दूसरी शादी कर दो। आजकल कोई इसे बुरा नहीं मानता है, तो क्यों सोच-विचार करते हो ? " तुलसी ने कहा, "भाई मैं तो तैयार हूँ, लेकिन सुभागी भी तो माने। वह किसी तरह राजी नहीं होती।"
हरिहर काका ने सुभागी को समझाकर कहा, "बेटी, हम तेरे ही भले के लिए कहते हैं। माँ-बाप अब बूढ़े हो गए हैं, उनका क्या भरोसा। तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी ?"
सुभागी ने सिर झुकाकर कहा, "तुम्हारी बात समझ रही हूँ, लेकिन मेरा मन शादी करने को नहीं कहता। मुझे आराम की चिंता नहीं है। मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूँ। जो काम तुम कहो, वह सिर आँखों के बल करूंगी मगर शादी करने को मुझे न कहो।"
उजड्ड रामू बोला, "तुम अगर सोचती हो कि मैया कमाएँगे और मैं बैठी मौज करूँगी, तो इस भरोसे न रहना।"
सुभागी ने गर्व भरे स्वर में कहा- "मैंने तुम्हारा आसरा कभी नहीं किया और भगवान ने चाहा तो कभी करूँगी भी नहीं।"
अब सुभागी उनके साथ ही रहने लगी।
उसने घर का सारा काम सँभाल लिया। बेचारी सुबह जल्दी से उठकर कूटने-पीसने में लग जाती, चौका बरतन करती। गोबर थापती और खेत में काम करने चली जाती। दोपहर को आकर जल्दी जल्दी खाना पकाकर सबको खिलाती।
रात को कभी माँ के सिर में तेल डालती, कभी उसकी देह दबाती । जहाँ तक उसका बस चलता, माँ-बाप को कोई काम न करने देती। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती, 'ये तो जवान आदमी है, ये काम न करेंगे तो गृहस्थी कैसे चलेगी ?"
मगर रामू को यह बुरा लगता- 'अम्मा और दादा को तिनका तक नहीं उठाने देती और मुझे पीसना चाहती हैं।' यहाँ तक कि एक दिन वह आपे से बाहर हो गया। सुभागी से बोला, "अगर उन लोगों का बड़ा मोह है, तो क्यों नहीं अलग लेकर रहती हो! तब सेवा करो तो मालूम हो कि सेवा कड़वी लगती है कि मीठी। दूसरों के बल पर वाहवाही लेना आसान है। बहादुर वह है, जो अपने बल पर काम करे।"
सुभागी ने तो कुछ जवाब न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मगर उसके माँ-बाप बैठे सुन रहे थे। महतो से न रहा गया, बोले, क्या है रामू ? उस गरीबन से क्यों लड़ते हो ?"
रामू पास आकर बोला, "तुम क्यों बीच में कूद पड़े, मैं तो उसको कहता था !
तुलसी- "जब तक मैं जिंदा हूँ, तुम उसे कुछ नहीं कह सकते। मेरे पीछे जो चाहे करना।
बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर दिया है।"
रामू - "आपको बेटी बहुत प्यारी है, तो उसे गले से बाँधकर रखिए। मुझसे तो नहीं रुका
जाता।"
तुलसी- "अच्छी बात है। अगर तुम्हारी यह मर्जी है, तो यही होगा। मैं कल गाँव के आदमियों को बुलाकर बँटवारा कर दूँगा। तुम चाहे अलग हो जाओ, सुभागी नहीं अलग होगी।"
रात को तुलसी लेटे, तो वह पुरानी बात याद आई, जब रामू जन्मोत्सव में उन्होंने रुपये कर्ज लेकर जलसा किया था और सुभागी पैदा हुई तो घर में रुपये रहते हुए भी उन्होंने एक कौड़ी तक खर्च न की। पुत्र को रत्न समझा था और पुत्री को पूर्वजन्म के पापों का दंड। वह 'रत्न' कितना कठोर निकला और यह 'दंड' कितना मंगलमय !
दूसरे दिन, महतो ने गाँव के आदमियों को इकट्ठा करके कहा- "पंचो, अब रामू का और मेरा एक घर में निर्वाह नहीं होता। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग इंसाफ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर में अलग हो जाऊँ। रात-दिन की किच-किच अच्छी नहीं।"
गाँव के मुखिया बाबू सजनसिंह बड़े सज्जन पुरुष थे। उन्होंने रामू को बुलाकर पूछा- "क्यों जी, तुम बाप से अलग रहना चाहते हो? तुम्हें शर्म नहीं आती, माँ-बाप को अलग किए देते हो ? राम! राम !"
रामू ने ढिठाई के साथ कहा- जब एक साथ गुजर न हो, तो अलग हो जाना ही अच्छा है।"
यह कहता हुआ रामू वहाँ से चलता बना। तुम
तुलसी- "देख लिया आप लोगों ने इसका मिजाज ? भगवान ने बेटी को दुख दे दिया, नहीं तो मुझे खेती- बाड़ी लेकर क्या करना था। जहाँ रहता, वही मरता खाता ! भगवान ऐसा बेटा बैरी को भी न दें। लड़के से लड़की भली, जो कुलवंती होय ।"
सहसा सुभागी आकर बोली- दादा, यह सब बँटवारा मेरे ही कारण तो हो रहा है, मुझे क्यों नहीं अलग कर देते ?"
तुलसी ने कहा- “बेटी, हम तुम्हें न छोड़ेंगे। चाहे संसार छूट जाए।”
गाँव में जहाँ देखो सबके मुँह से सुभागी की तारीफ- "लड़की नहीं, देवी है। दो मर्दों का काम भी करती है। उस पर, माँ बाप की सेवा भी किए जाती है।" सजनसिंह तो कहते, "यह इस जन्म की देवी है।" मगर शायद महतो को यह सुख बहुत दिन तक भोगना न लिखा था।
सात आठ दिन से महतो को ज़ोर का ज्वर चढ़ा हुआ है। लक्ष्मी पास बैठी रो रही है। अभी एक क्षण पहले महतो ने पानी माँगा था पर जब तक वह पानी लाए, तब तक उनके हाथ-पाँव ठंडे हो गए। सुभागी उनकी यह दशा देखते ही रामू के घर गई और बोली-"भैया, चलो, आज दादा न जाने कैसे हुए जाते हैं। सात दिन से ज्वर नहीं उतरा।"
रामू ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा- "तो क्या, मैं डॉक्टर हकीम हूँ कि देखने चलूँ ? जब तक अच्छे थे, तब तक तो तुम उनके गले का हार बनी हुई थीं। अब जब मरने लगे तो मुझे बुलाने आई हो ?" सुभागी ने फिर उससे कुछ न कहा, सीधे सजनसिंह के पास गई। उधर सजनसिंह ने ज्यों ही महतो की हालत सुनी, तुरंत सुभागी के साथ भागे चले आए। वहाँ पहुँचे तो महतो की दशा और भी खराब हो चुकी थी। नाड़ी देखी तो बहुत धीमी थी। समझ गए कि जिंदगी के दिन पूरे होगए। सजल नेत्र होकर बोले-अब कैसी तबियत है ?"
महतो जैसे नींद से जागकर बोले- "बहुत अच्छी है भैया! अब तो चलने की बेला है। सुभागी के पिता अब तुम्हीं हो। उसे तुम्हीं को सौंपे जाता हूँ।"
सजनसिंह ने रोते हुए कहा- "भैया महतो, घबराओ मत, भगवान ने चाहा तो तुम अच्छे हो जाओगे।। सुभागी को तो मैंने हमेशा अपनी बेटी समझा है और जब तक जीऊँगा. ऐसा ही समझता रहूँगा। तुम निश्चिंत रहो।। कुछ और इच्छा हो तो वह भी कह दो। "
महतो ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा- "और नहीं कहूँगा, भैया! भगवान तुम्हें सदा सुखी रखे।" सजन- "रामू को बुलाकर लाता हूँ। उससे जो भूल-चूक हो चुकी है, क्षमा कर दो।"
महतो- "नहीं, भैया! उस पापी का मुँह में नहीं देखना चाहता।" इसके बाद गोदान की तैयारी होने लगी। रामू को गाँव भर ने समझाया, पर वह अंत्येष्टि करने पर राजी न हुआ। उसने कहा, "जिस पिता ने मरते समय मेरा मुँह देखना स्वीकार न किया, वह न मेरा पिता है, न मैं उसका
पुत्र हूँ।" लक्ष्मी ने दाह-क्रिया की। सुभागी ने सारी व्यवस्था की। इन थोड़े-से दिनों में सुभागी ने न जाने कैसे रुपए जमा कर लिए थे, जब तेरहवीं का सामान आने लगा तो गाँववालों की आँखें खुल गई। तेरहवीं के दिन सारे गाँव के लोगों का भोज हुआ। चारों तरफ वाह वाही मच गई।
देर रात का समय था। लोग भोजन करके चले गए थे। लक्ष्मी थककर सो गई। केवल सुभागी बची हुई चीज़ों उठा-उठाकर रख रही थी कि ठाकुर सजनसिंह ने आकर कहा- :अब तुम भी आराम करो बेटी, सवेरे यह सब काम कर लेना।"
सुभागी ने कहा- “अभी थकी नहीं हूँ दादा ! आपने जोड़ लिया ? कुल कितने रुपये खर्च हुए ?"
सजन - "वह पूछकर क्या करोगी बेटी ?"
सुभागी "कुछ नहीं, यों ही ?" सजन- "कोई तीन हजार रुपये होंगे।" सुभागी ने सकुचाते हुए कहा- "मैं इन रुपयों की देनदार हूँ।"
पति के देहांत के बाद से ही लक्ष्मी का दाना-पानी छूट गया। सुभागी के आग्रह पर चौके में जाती, मगर कौर कंठ के नीचे न उतरता ! 'पचास वर्ष हुए, एक दिन भी ऐसा न हुआ कि पति के बिना खाए, उसने खुद खाया हो। अब उस नियम को कैसे तोड़े ?'
आखिर उसे खाँसी आने लगी। दुर्बलता ने जल्द ही खाट पर डाल दिया। सुभागी अब क्या करे ? ठाकुर साहब के रुपये चुकाने के लिए दिलो-जान से काम करने की ज़रूरत थी। यहाँ, माँ बीमार पड़ गई। अगर बाहर जाए तो माँ अकेली रहती है। उनके पास बैठे तो बाहर काम कौन करे ? माँ की दशा देखकर सुभागी समझ गई कि इनका अंतिम समय भी आ पहुँचा है। महतो को भी तो यही ज्वर था।
गाँव में और किसे फुर्सत थी कि दौड़-धूप करता। सजनसिंह दोनों वक्त आते। लक्ष्मी की दशा बिगड़ती जा रही थी। यहाँ तक कि पंद्रहवें दिन, वह भी संसार से विदा ले गई। सुभागी को उसने आशीर्वाद दिया- "तुम्हारी जैसी बेटी पाकर तर गई। मेरा क्रिया कर्म तुम्हीं करना। मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि अगले जन्म में भी तुम मेरी कोख से ही जन्म लो।'
माता के देहात के बाद सुभागी के जीवन का केवल एक लक्ष्य रह गया- राजनसिंह के रुपये चुकाना तीन साल तक सुनागी ने रात को रात और दिन को दिन न समझा। उसकी कार्य-शक्ति और हिम्मत देखकर लोग दाँतों तले अंगुली दबाते थे। दिन-भर खेती-बाड़ी का काम करने के बाद, वह रात को आटा पीसती। तीसवें दिन तीन सौ रुपये लेकर वह सजनसिंह के पास पहुँच जाती। इसमें कमी नागा न पड़ता।
अब चारों ओर से उसकी सगाई के पैगाम आने लगे। सभी उसको अपने घर की बहू बनाना चाहते थे। जिसके घर सुभागी जाएगी, उसके भाग्य फिर जाएँगे, सुभागी यही जवाब देती-"अभी वह दिन नहीं आया।" जिस दिन सुभागी ने आखिरी किस्त चुकाई, उस दिन खुशी का ठिकाना न था। आज उसके जीवन का कठोर व्रत पूरा हो गया। वह चलने लगी तो सजनसिंह ने कहा- बेटी, तुमसे एक प्रार्थना है। कहो, कहूँ, कहो, न कहूँ, मगर वचन दो कि मानोगी।"
सुभागी ने कृतज्ञ भाव से देखकर कहा- "दादा आपकी बात न मानूँगी तो किसकी बात मानूँगी।"
"अगर तुम्हारे मन में यह भाव है, तो मैं न कहूँगा। मैंने अब तक तुमसे इसलिए नहीं कहा कि तुम अपने को मेरा देनदार समझ रही थी। अब रुपये चुक गए। मेरा तुम्हारे ऊपर कोई एहसान नहीं है। बोलो कहूँ ?"
सुभागी- "आपकी जो आज्ञा हो।"
सजन -"देखो इंकार न करना, नहीं तो मैं तुम्हें अपना मुँह फिर न दिखाऊँगा।"
सुभागी -"क्या आज्ञा है ?"
सजन- "मेरी इच्छा है कि तुम मेरे घर की बहू बनकर, मेरे घर को पवित्र करो। मैं जात-पाँत में विश्वास करता हूँ, मगर तुमने मेरे सारे बंधन तोड़ दिए। मेरा लड़का, तुम्हारे नाम का पुजारी है। तुमने उसे देखा है। बोलो, मंजूर करती हो ?"
सुभागी- "दादा, इतना सम्मान पाकर पागल हो जाऊँगी।"
सजन- "तुम्हारा सम्मान भगवान कर रहे हैं बेटी! तुम साक्षात भगवती का अवतार हो।"
सुभागी - "मैं तो आपको अपना पिता समझती हूँ। आप जो कुछ करेंगे, मेरे भले के लिए ही करेंगे। आपका हुक्म कैसे टाल सकती हूँ?"
सजनसिंह ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा- "बेटी, तुम्हारा सुहाग अमर हो। तुमने मेरी बात रख ली। मुझ-सा भाग्यशाली संसार में और कौन होगा ?"
-मुंशी प्रेमचंद
No comments:
Post a Comment
If you have any doubt let me know.