आदर्श बदला
सवेरे का समय था, चारों ओर प्रकाश का राज था और सर्वत्र आनंद की वर्षा हो रही थी। बाग के फूल म रहे थे और पक्षीगण मधुर संगीत में मस्त थे। वृक्षों की शाखाएं सुगंधित पदन से खेल रही थीं और पत्ते से तालियाँ बजा रहे थे। इतने में साधुओं की एक मंडली आगरा नगर के अंदर मधारी ये स्वतंत्र प्रकृति व्यक्ति ईश्वर के भक्त थे और हरि भजन में तल्लीन थे। उनको सुर ताल की परवाह न थी से अपने राग में मान थे कि सिपाहियों ने आकर पेस डाल दिया और कडियाँ पहनाकर उन्हें मुगल बादशाह अकबर के दरबार में ले गए। अकबर के दरबार के प्रसिद्ध गवैये तानसेन ने यह शर्त रखी थी कि जो मनुष्य मानविया में मेरी बराबरी न कर सके. वह आगरा की सीमा के अंदर न गाए और यदि उसने ऐसा किया तो उसे मृत्यु दंड दिया जाएगा। बेचारे बनवासी साधुओं को पता न था परंतु अज्ञानता भी एक अपराध ही है इसलिए अभियुक्त दरबार में पेश किए गए। तानसेन ने गान-विद्या के कुछ प्रश्न किए, साधु उत्तर में मुँह ताकने लगे। अकबर के होंठ हिले और सबके का भाव कम था, सबको मृत्युदंड की आज्ञा हुई। केवल उसमें 'दस वर्ष का एक बालक छोड़ दिया गया। कहा गया कि यह अबोध बालक है. इसका दोष नहीं। बालक रोता हुआ. जंगल में अपनी कुटिया में पहुँचा। बाबा तुम कहाँ हो ? अब कौन मुझे प्यार करेगा ? मेरे बाबा को छीन लिया और मुझे इस अथाह संसार में अनाथ बनाकर छोड़ दिया। अब कौन मेरा पालन-पोषण करेगा ?'-इन्हीं विचारों में डूबा हुआ बालक देर तक रोता रहा। इतने में खड़ाऊ पहने हुए, हाथ में माला लिए हुए, 'राम-राम' जपते बाबा हरिदास कुटिया के अंदर आए. और कहने लगे, बैजू बेटा! अशात मत हो।" बैजू घबराकर उठा और महात्मा के चरणों से लिपट गया। बिलख-बिलखकर रोते हुए बैजू ने कहा, "महाराज, मेरे साथ अन्याय हुआ है। तानसेन ने मुझे तबाह कर दिया।"
हरिदास ने कहा, शांति, शांति।" बैजू चरणों से लिपटकर कहा, गुरुवर शांति जा चुकी है। अब मुझे प्रतिहिंसा की इच्छा है, प्रतिकार की आकांक्षा है।" हरिदास ने बैजू को उठाकर हृदय से लगाया और कहा, मैं तुझे वह शस्त्र दूंगा, जिससे तू अपने पिता की मृत्यु का बदला ले सके।
बैजू उछल पड़ा और बोला, "कहाँ है वह शस्त्र ?" हरिदास ने कहा, 'उसके लिए दस वर्ष तपस्या करनी होगी।" बैजू ने कहा, मैं इस समय गुस्से से पागल हो रहा है। दस वर्ष क्या मैं जीवन भर विपत्तियाँ उठाऊँगा कष्ट सहेंगा, भक्ति करूँगा परंतु यह शस्त्र अवश्य लुगा, जिससे प्रतिहिंसा की अग्नि शांत हो जाए। क्या दस वर्ष के बाद वह मिल जाएगा ?"
हरिदास ने कहा, "हाँ" हरिदास से आश्वासन पाकर बैजू का मन शांत हो गया। वह हरिदास के चरणों में झुक गया. "आप साक्षात ईश्वर हैं। आपका उपकार आजन्म नहीं
भूलूँगा।" इस घटना को बारह वर्ष बीत गए। जगत में बहुत से परिवर्तन हो गए, कई बस्तियाँ उजड़ गईं, वन बस गए, बूढ़े मर गए, नए लोग पैदा हो गए, जो तरुण थे उनके केश श्वेत हो गए।
बालक बैजू अब संगीत में निपुण युवक बन चुका था और गायन-विद्या में दिन-पर-दिन आगे बढ़ रहा था। उसके स्वर में जादू था और तान में एक आश्चर्यमयी मोहिनी आ
गई थी। वह गाता था तो पत्थर तक पिघल जाते और पक्षी मुग्ध हो जाते थे। एक दिन हरिदास ने हँसकर कहा, मेरे पास ज था, तुझे दे डाला। बैजू ! अब मेरे पास और कुछ नहीं है। अब तुम्हें एक गुरुदक्षिणा देनी होगी। " बैजू हाथ जोड़कर बोला, "गुरुवर! आपका उपकार जन्म भर सिर से न उतरेगा। आज्ञा करें।"
हरिदास बोले, "प्रतिज्ञा करो। " बैजू ने बिना सोचे-समझे कह दिया, "प्रतिज्ञा करता हूँ कि... । हरिदास ने वाक्य को पूरा किया, ....... "इस राग दिया से किसी को हानि नहीं पहुँचाऊँगा ।" बैजू का सूख गया, पर लड़खड़ाने लगे। बारह वर्ष के परिश्रम पर पानी फिर गया। बैजू ने होठ काटे दाँत पीसे वह हरिदास खूनकर छूटे पीकर रह गया किंतु गुरु को दिए वचन को टालने का साहस उसमें न था। दिन बीतते चले गए। एक सुंदर नवयुवक साधु आज फिर आगरा के बाजारों में गाता हुआ जा रहा है।
दुकानदारी और राहगीरों ने समझा कि मृत्यु इसके सिर पर मंडरा रही है। वे उठे, उन्होंने सोचा कि उसे तानसेन की शर्त की सूचना दे परंतु निकट पहुँचने से पूर्व ही मुग्ध होकर अपने आपको भूल गए। सिपाहियों ने भी हथकड़ियाँ सँभाल ली और पकड़ने के लिए साधु की और आए. परंतु पास आना था कि रंग पलट गया। साधु के मुख मंडल से तेज की रश्मिया फूट-फूट कर निकल रही थीं। वे आश्चर्य से उसके मुख की ओर देखने लगे, जहाँ सरस्वती का वास था और जहाँ से संगीत की मधुर ध्वनि की धारा वह रहीथी। साधु मस्त था और सुनने वाले भी मस्त थे। गाते-गाते साधु भी धीरे-धीरे चलता जा रहा था और श्रोताओं का समुदाय भी धीरे-धीरे पीछे चल रहा था। मुग्ध जन-समुदाय चलता गया, परंतु किसी को पता नहीं था कि वे किधर जा रहे हैं। जब एकाएक गाना बंद हो गया, जादू का असर टूट गया, तब लोगों ने देखा कि वे सब तानसेन के महल के आगे खड़े है। उन्होंने दुख और पश्चाताप से हाथ मले, "हाय रे! यह कहा आ गए? साधु अज्ञान से स्वयं मृत्यु के द्वार पर आ पहुंचा है।" तानसेन बाहर निकला, अपार भीड़ देखकर वह विस्मित हुआ। फिर बात समझकर बैजू से बोला, "तुम्हारे सिर पर आज शायद मृत्यु सवार हो रही है।"" नवयुवक साधु मुसकराया और बोला, "जी हाँ, मेरी आपके साथ गान विद्या पर चर्चा करने की अभिलाषा है।"
तानसेन ने लापरवाही से उत्तर दिया, ठीक है, अपनी इच्छा पूरी कर लो।" तभी सिपाहियों को हथकड़ियों का ध्यान आया। वे आगे बढ़े और उन्होंने नवयुवक साधु के हाथों में हथकड़ियाँ पहना दी और नवयुवक साधु को दरबार की ओर ले चले। दरबार में साधु को शर्तें सुनाई गई कि कल प्रातः काल नगर के बाहर वन में तुम दोनों का गान युद्ध होगा। यदि तुम हार गए तो तुम्हें मृत्यु दंड देने का तानसेन को पूर्ण अधिकार होगा और यदि तुमने उसे पराजित किया तो उसका जीवन तुम्हारे हाथ में होगा। नवयुवक साधु ने शर्तें स्वीकार की और सिपाही उसे बंदीगृह में ले गए।
वह नवयुवक साधु बैजू बावरा ही था। साधु की प्रार्थना पर सर्वसाधारण को भी उसके जीवन और मृत्यु का कौतुक देखने की आज्ञा दी गई थी। नियत समय पर बादशाह अकबर सिंहासन पर विराजमान थे, साथ ही नीचे तानसेन बैठा था और सामने फर्श पर नवयुवक बैजू बावरा बैठा था। अकबर की आज्ञा होते ही तानसेन ने कुछ प्रश्न संगीत विद्या के संबंध में बैजू से किए। बैजू ने उचित उत्तर दिए और लोगों ने हर्ष से तालियाँ बजाईं। सबके मुखों से "जय हो, जय हो." तथा बलिहारी की ध्वनियाँ निकलने लगीं।
बैजू ने सितार हाथ में लिया और जब उसके तारों को हिलाया तो जनता ब्रह्मानंद में डूब गई और वृक्षों के पत्ते तक थम गए। वायु रुक गई और सुनने वाले मंत्रमुग्ध होकर सिर हिलाने लगे। बैजू की उँगलियाँ सितार पर दौड़ रही थीं। लोगों ने आश्चर्य से देखा कि हिरन छलाँगें मारते हुए आए और बैजू के पास खड़े हो गए। बैजू । बावरा तल्लीन होकर सितार बजाता रहा बजाता रहा बजाता रहा।
हिरन मस्त थे, बैजू ने सितार हाथ से रख दिया और अपने कंठ से फूल मालाओं को उतारकर उन्हें पहना दिया। फूलों के स्पर्श से हिरनों को सुधि आई और वे चौकड़ी भरते हुए भागकर वृक्षों में छिप गए। बैजू ने कहा, "तानसेन! फूल मालाओं को अब यहाँ फिर मँगवाइए, तब मैं आपको संगीत विद्या में पूर्ण मानूँ ।"" तानसेन सितार हाथ में लेकर अपनी पूर्ण प्रवीणता के साथ बजाने लगा। ऐसा अच्छा सितार उसने अपने जीवन में कभी नहीं बजाया था। बजाते बजाते बहुत समय बीत गया। उसकी उँगलियाँ दुखने लगी। बहुत चेष्टा करने पर भी कोई हिरन नहीं आया, तब तानसेन की आँखों के सामने मृत्यु नाचने लगी। यह खिसियाकर बोला... "वे हिरन तो अकस्मात इधर आ निकले थे। राग का प्रभाव थोड़े ही था। साहस है तो अब दोबारा बुलाओ।"
बैजू मुसकराया और धीरे से बोला, "बहुत अच्छा।" यह कहकर उसने फिर सितार पकड़ लिया। एक बार फिर संगीत-लहरी वायुमंडल में लहराने लगी और फिर सुनने वाले संगीत सागर की तरंगों में डूबने लगे। हिरन बैजू के पास फिर आए। वे ही हिरन जिनकी ग्रीवाओं में फूल मालाएं पड़ी हुई थीं और जो राग की सुरीली ध्वनि के आकर्षण से आ गए थे। बैजू ने मालाएँ उतार लीं और हिरन कूदते हुए लोप हो गए। अकबर का तानसेन के साथ अगाध प्रेम था। उन्होंने जब उसकी मृत्यु निकट देखी तो कंठ भर आया।
लेकिन क्या करते ? तानसेन शर्त जो हार गया था। वे विवश होकर उठे और संक्षेप में निर्णय सुनाया- "बैजू बावरा की विजय और तानसेन की पराजय।"
तानसेन काँपता हुआ आगे बढ़ा। वह, जिसने स्वयं किसी को मृत्यु के घाट उतारते हुए दया नहीं की थी, उस समय दया के लिए प्रार्थना करने लगा। बैजू बावरा ने कहा, जहाँपनाह! मुझे प्राण लेने की इच्छा नहीं है। आप इस निष्ठुर नियम को हटा दीजिए कि जो आगरा की सीमाओं के अंदर गाएगा वह यदि तानसेन से हार जाए तो मरवा दिया जाएगा। अकबर ने अधीर होकर कहा, "यह नियम अभी इसी क्षण से खत्म है।" तानसेन बैजू के चरणों पर गिर पड़ा और दीनता से कहने लगा, "यह उपकार जीवन भर न भूलूँगा।"
बैजू ने उत्तर दिया- "बारह वर्ष पहले की बात है। तुमने मेरे पिता के प्राण लिए थे, यह उसी का बदला है।"
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