HINDI BLOG : अमूल्य भेंट

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Tuesday, 20 June 2023

अमूल्य भेंट

अमूल्य भेंट

लखीमपुर गाँव में रामदास नाम का एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था। वह बड़े कष्ट में जीवन व्यतीत कर रहा था। एक बार गाँव में एक साधु पुरुष कुछ दिनों के लिए पधारे। वह शाम के समय कुटिया के बाहर प्रवचन करते थे। कथा वाचन के दौरान उन्होंने गाँव से बीस कोस दूर स्थित एक मंदिर का उल्लेख किया और बताया कि मंदिर के देवता बड़े जाग्रत हैं और सबकी मनोकामना पूरी करते हैं। रामदास ने मन ही मन निश्चय किया कि वह मंदिर में ईश्वर के दर्शन कर उन्हीं से अपना दुखड़ा कहेगा। उसे विश्वास था कि उसकी इच्छा अवश्य पूरी होगी।

ऐसा सोचकर रामदास अगले दिन बीस कोस पैदल चलकर मंदिर पहुँचा। मंदिर में काफ़ी भीड़ थी। रामदास ने सोचा- मैं एकांत में ईश्वर के दर्शन करूंगा और अपने मन की बात कहूँगा । 
दिव्य पुरुष के यह पूछने पर कि इस बार वह क्या भेंट लाया है, रामदास ने कहा, "मैं संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु ज्ञान और विद्या की सौगात लाया हूँ। अब तो मैं ईश्वर के दर्शन कर सकता हूँ।"

दिव्य पुरुष हँसा और बोला, "रे अज्ञानी, ईश्वर तो सर्वज्ञ है, उससे बड़ा ज्ञानी भला और कौन है। उसके लिए यह ज्ञान की भेंट लाए हो जाओ और सबसे मूल्यवान वस्तु लेकर आओ।"

रामदास निराश होकर लौट आया। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। आखिर उसने खाली हाथ ही ईश्वर के दर्शन करने की ठान ली। अगले दिन वह फिर मंदिर की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसे किसी के कराहने का स्वर सुनाई दिया। उसने देखा कि पेड़ के नीचे एक कोढ़ी दर्द से तड़प रहा है। उसके घावों पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। वह भूखा भी लगता था। उसकी दशा देखकर रामदास को बड़ी दया आई। उसकी आँखें भर आई। उसके निकट जाकर उसे सांत्वना देते हुए रामदास बोला, "भाई, दुखी मत हो। मैं भी एक दीन-हीन प्राणी हूँ। मैं ईश्वर के दर्शन करने मंदिर जा रहा हूँ, वहाँ मैं तुम्हारे लिए भी प्रार्थना करूँगा। तुम चिंता मत करो, मैं प्रयत्न करके तुम्हारे खाने के लिए भी कुछ ले आऊँगा।"

रामदास का निश्चय और भी दृढ़ हो गया आज ईश्वर के दर्शन अवश्य करूँगा, कोई रोके तो भी न रुकूँगा।

हमेशा की तरह मंदिर के दरवाज़े पर दिव्य पुरुष खड़ा था, किंतु रामदास के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने स्वयं आगे बढ़कर रामदास का स्वागत किया। रामदास को लगा कि वह उसका मजाक उड़ा रहा है। अतः वह गिड़गिड़ा कर आँसू बहाते हुए कहने लगा, "हे देव, आज मुझे न रोकिएगा। आज मैं खाली हाथ आया हूँ। श्रद्धा के आँसुओं के अलावा मेरे पास कुछ नहीं है, पर मैं प्रभु के दर्शन किए बिना न जाऊँगा। "

दिव्य पुरुष बोला, "आपको किसने रोका है? हे श्रेष्ठजन, आज तो आप संसार की सबसे मूल्यवान भेंट लेकर आए हैं। आपकी आँख से टपके इन श्रद्धा के आँसुओं के सामने तो कीमती से कीमती मोती भी व्यर्थ हैं। प्रभु इन्हें अवश्य स्वीकार करेंगे।"

रामदास ने मंदिर में प्रवेश किया। प्रभु के दर्शन कर वह कृतार्थ हो गया। उसके नेत्रों से
अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। उसकी सारी पीड़ा, सारे दुख जाते रहे। वह हाथ जोड़कर विनती करने लगा, “हे प्रभु, आप अंतयामी, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ हैं। मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस इतनी शक्ति दीजिए कि अपने जैसे दूसरे प्राणियों के किसी काम आ सकूँ, उनकी सेवा कर सकूँ।" यह कहकर रामदास थाली में से प्रसाद के कुछ फल लेकर बाहर निकल आया। वह शीघ्र ही उस कोढ़ी के पास पहुँचना चाहता था। उसे मंदिर से बाहर आते देख दिव्य पुरुष ने पूछा, "क्यों रामदास, स्वर्ग छोड़कर कहाँ चल दिए ?"

"हे देव, जब मेरा एक साथी पीड़ा और भूख से कराह रहा है, मैं तब स्वर्ग में रहकर कैसे सुख प्राप्त कर सकता हूँ? मैंने ईश्वर से जो माँगना था, माँग लिया। अब तो यह देखना है कि वह देता है या नहीं। "

रामदास शीघ्र ही वहाँ पहुँचा जहाँ वह कोढ़ी को छोड़ आया था पर उसे वहाँ कोई नहीं दिखाई। | दिया। वह इधर-उधर नजर दौड़ाने लगा। तभी दिव्य पुरुष प्रकट हुआ और बोला, "रामदास किसे । खोज रहे हो? लाओ यह प्रसाद मुझे दो।"

"यह प्रसाद तो मैं उस दुखियारे के लिए लाया हूँ। वह कहीं दिखाई नहीं दे रहा।"

दिव्य पुरुष मुसकराते हुए बोला, "मैं ही तो वह दुखियारा हूँ।"

"पर उसके शरीर पर तो घाव थे।" रामदास चकित था।

"हाँ, पर तुम्हारे सहानुभूति के आँसुओं ने उसके सारे घाव ठीक कर दिए जानते हो, सहानुभूति से बढ़कर दुखी के लिए और कोई दवा नहीं है। अच्छा, अब मैं चलता हूँ। तुम भगवान की सेवा करो। वह तो सभी के हृदय मंदिर में विद्यमान है। मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है।"  यह कहकर दिव्य पुरुष अंतर्ध्यान हो गया। रामदास के जीवन में अब कोई कष्ट न रहा। 

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