HINDI BLOG : 2024

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Thursday, 17 October 2024

छोटा जादूगर


 पठित गद्यांश 
अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न 

दस बज चुके थे-----------------------------------------मोटर वाला मेरे बताए हुए पथ पर चल पड़ा। 

(क) लेखक ने छोटे जादूगर को कहाँ और किस स्थिति में देखा ?
 उत्तर - लेखक ने छोटे जादूगर को साफ धूप में सड़क के किनारे देखा था, जहाँ एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा हुआ था। मगर खेल दिखाते समय वह स्वयं काँप जाता था। उसकी वाणी में प्रसन्नता नहीं थी।

(ख) दूसरों को हँसाने की चेष्टा में छोटे जादूगर का स्वर क्यों लड़खड़ा रहा था ?
 उत्तर - दूसरों को हँसाने की चेष्टा में छोटे जादूगर का स्वर लड़खड़ा रहा था, क्योंकि उसकी माँ ने कहा था कि जल्दी वापस आना। मेरी घड़ी समीप है।

(ग) भीड़ में लेखक को देखकर छोटे जादूगर की स्थिति कैसी हो गई ?
 उत्तर - भीड़ में लेखक को देखकर छोटा जादूगर क्षण भर के लिए मूर्तिमान हो गया।

(घ) छोटे जादूगर द्वारा "क्यों न आता!" कहने से कौन-सा भाव झलकता है ?
 उत्तर - छोटे जादूगर द्वारा 'क्यों न आता!' कहने से विवशता और आर्थिक विपन्नता का भाव झलकता है। इन शब्दों से स्पष्ट है कि आना उसकी मज़बूरी थी। इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं था।



लघु उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दीजिए -

(क)  लड़के ने लेखक को कार्निवल के मैदान में आने का क्या कारण बताया ?
 उत्तर - लड़के ने लेखक को कार्निवल के मैदान में आने का कारण बताते हुए कि माँ बीमार हैं इसलिए मैं उसकी दवा-दारू खरीदने और पथ्य देने तथा स्वयं का पेट भरने के लिए कुछ पैसे कमाने आया हूँ, क्योंकि मेरे पिताजी जेल में हैं।

(ख) लेखक ने लड़के को कितने टिकट खरीदकर दिए ?
 उत्तर - लेखक ने लड़के को बारह टिकट खरीदकर दिए।

(ग) हिंडोले से लेखक को किसने पुकारा ?
 उत्तर - हिंडोले से लेखक को छोटे जादूगर ने पुकारा।

(घ) लेखक की पत्नी द्वारा दिए गए रुपये से छोटे जादूगर ने क्या-क्या खरीदा ?
 उत्तर - लेखक की पत्नी के द्वारा दिए गए रुपये से छोटे जादूगर ने पकौड़ी और एक सूती कंबल खरीदा।

(ङ) लता-कुंज का वर्णन कीजिए। 
 उत्तर - लता-कुंज एक छोटा सा बनावटी महल था। वहाँ संध्या होने पर साँय-साँय की आवाज़ आती थी। डूबते हुए सूर्य की अंतिम किरणें पत्तियों से विदाई लेती नज़र आती थीं। यह लता-कुंज चारों तरफ से सुनसान था

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दीजिए -

(क) पहली बार छोटे जादूगर को देखकर लेखक को उसके अभाव में भी संपूर्णता की झलक क्यों          दिखाई दी ?
 उत्तर - पहली बार छोटे जादूगर को देखकर लेखक को उसके अभाव में भी संपूर्णता की झलक दिखाई दी, क्योंकि वह सबको खाते-पीते देख रहा था। मगर किसी से कुछ माँग नहीं रहा था। अभावग्रस्त होते हुए भी उसके मन में संतोष और तृप्ति का भाव था।

(ख) तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही वह बालक अपने परिवार की ज़िम्मेदारी क्यों उठा रहा था ?
 उत्तर - तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही वह बालक अपने परिवार की ज़िम्मेदारी उठा रहा था, क्योंकि उसके पिता देश के लिए जेल में थे और घर पर उसकी माँ बीमार थी, जिसकी देखभाल के लिए उसके सिवा घर पर और कोई नहीं था।

(ग) बॉटेनिकल -उद्यान में छोटे जादूगर का खेल देखने वाले हँसते-हँसते लोट-पोट क्यों हो गए ?
 उत्तर -बॉटेनिकल उद्यान में छोटे जादूगर का खेल देखने वाले हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए, क्योंकि उसके सभी खिलौने अभिनय करने लगे थे। भालू मनाने लगा था। बिल्ली रूठने लगी थी। बंदर घुड़कने लगा था। गुड़िया का ब्याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला आदि सभी कार्य जादूगर की बातों से हो रहे थे।

(घ) लड़का खेल-तमाशा क्यों दिखाना चाहता था ?
उत्तर-  लड़का खेल-तमाशा दिखाना चाहता था, क्योंकि उसको ऐसा करने से कुछ पैसे मिल जाएँगे, तो वह अपनी बीमार माँ को दवाइयाँ व पथ्य देगा और खुद का भी पेट भरेगा।

(ङ)  “सारा संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नाच रहा था।" इस कथन से लेखक क्या स्पष्ट करना चाहते हैं ?
 “सारा संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नाच रहा था।" इस कथन से लेखक ने संसार के सत्य को अनावृत्त करना चाहा है। संसार की स्वार्थपरता और भौतिकता की चकाचौंध के बीच जीवन का सार्वभौमिक सत्य लेखक के समक्ष उपस्थित हो जाता है। इसे देखकर लेखक किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में खड़ा रह जाता है और सारा संसार उसे एक जादू की भाँति नाचता हुआ प्रतीत होता है।

चाँदी का जूता (प्रश्न-उत्तर) CLASS 8

चाँदी का जूता (प्रश्न-उत्तर)
(क) हॉस्टल का लापरवाह वेंकटेश्वर राव इतना सुव्यवस्थित कैसे हो गया था ?
उत्तर - हॉस्टल का लापरवाह वेंकटेश्वर राव तो वैसे का वैसा ही था। हॉस्टल में उसकी सब चीजें अस्त-व्यस्त रहती थी। उसे व्यवस्था और करीने की आदत नहीं थी। घर की बैठक की सजावट उसकी पत्नी रमा ने की थी, जिसको देखकर लेखक को लगा था कि उसका मित्र अब सुव्यवस्थित हो गया है।

(ख) वेंकटेश्वर राव और उनकी पत्नी रमा ने सीमा की विशेषताएँ बताते हुए क्या कहा ?
 उत्तर - वेंकटेश्वर राव और उनकी पत्नी रमा ने सीमा की विशेषताएँ बताते हुए कहा कि उसने एम०ए० प्रथम श्रेणी में पास कर स्वर्ण पदक प्राप्त किया है। अब पी.एच.डी कर रही है। डी लिए भी करना चाहती है। वह कॉलेज पढ़ाने जाती है और घर का सारा काम भी करती है। साथ ही साथ सास-ससुर दोनों की सेवा भी करती है।

(ग) वेंकटेश्वर राव के भाई के घर की विडंबना क्या थी ?
उत्तर - वेंकटेश्वर राव के भाई के घर की विडंबना यह थी कि वे पचास हजार रुपए दहेज में लेकर मैट्रिक पास बहू को घर लाए थे। यदि उससे कोई भी काम करने के लिए कहता, तो फौरन उलटा जवाब देती थी कि वह घर की बेगारी करने नहीं आई है। वह अपने पिताजी द्वारा दिए गए रुपयों का जिक्र करते हुए कहती कि उससे नौकर रख लो।

(घ) राव ने 'ऐश-ट्रे' को उनके थोथे आदर्शों का उपहास करने वाला अविस्मरणीय चिह्न क्यों कहा ?
उत्तर - राव तो दहेज लेना नहीं चाहते थे, परंतु अपनी पत्नी रमा के दबाव में आकर उन्हें दहेज माँगना पड़ा। इसके फलस्वरूप उन्हें साठ हजार रुपयों के सहित चाँदी का बना 'ऐश-ट्रे', जो उलटे पैर के जूते की आकृति का था, मिला, जिसको उन्होंने अपने थोथे आदर्शों का उपहास करने वाला अविस्मरणीय चिह्न कहा था।

(ङ) वह कौन-सी विवशता थी, जिसके तहत लेखक ने विवाह में उचित रकम देने की बात सीमा के पिता से कही ?
उत्तर - दहेज माँगने के लिए रमा ने अपने पति पर दबाव डाला था, जिसके तहत राव ने विवाह में उचित रकम देने की बात सीमा के पिता से कही। रमा उनकी पत्नी थी और पुत्र के विवाह को लेकर उसकी अनेक आकांक्षाएँ थीं। वह स्वयं दहेज की माँग करने की अपेक्षा पति पर दवाब बना रही थी कि वे दहेज की रकम माँगे। उसके आगे वेंकटेश्वर राव झुक गए।

(च) वेंकटेश्वर राव यदि पत्नी के आग्रह के सामने न झुकते, तो क्या वे अपने साथ न्याय करते ?
उत्तर - वेंकटेश्वर राव यदि पत्नी के आग्रह के सामने न झुकते, तो वह अपने साथ तो न्याय करते ही, साथ ही सीमा और पूरे समाज की लड़कियों के साथ भी न्याय करते। पत्नी के दबाव में आकर भी किया गया गलत कार्य तो गलत ही कहलाता है। मात्र पत्नी के आग्रह और प्रसन्नता का तो उन्होंने विचार किया, परंतु उन्होंने न स्वयं के विचारों का मान रखा और न दूसरों के।

CLASS 9 वैज्ञानिक चेतना के वाहक : रामन


(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (25-30 शब्दों में) लिखिए-

1. कॉलेज के दिनों में रामन् की दिली इच्छा क्या थी?
उत्तर - कॉलेज के दिनों में रामन् की दिली इच्छा यही थी कि वे अपना सारा जीवन शोध कार्यों को समर्पित कर दें। परंतु उन दिनों कैरियर के रूप में शोधकार्य को जीवन भर के लिए अपनाने की कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी।

2. वाद्ययंत्रों पर की गई खोजों से रामन् ने कौन-सी भ्रांति तोड़ने की कोशिश की?
उत्तर - वाद्य यंत्रों पर की गई खोजों और वैज्ञानिक सिद्धांतों के 
(ख) आधार पर रामन् ने पश्चिमी देशों की इस भ्रांति को तोड़ने की कोशिश की कि भारतीय वाद्ययंत्र विदेशी वाद्य-यंत्रों की तुलना में घटिया हैं। उन्होंने वाद्ययंत्रों के कंपन के पीछे छिपे गणित पर अच्छा-खासा काम किया और कई शोध-पत्र भी प्रकाशित किए।

3. रामन् के लिए नौकरी संबंधी कौन-सा निर्णय कठिन था और क्यों ? 
                                            अथवा

सरकारी नौकरी छोड़ना रामन् के लिए एक कठिन निर्णय क्यों था? 'वैज्ञानिक चेतना के वाहक' पाठ के आधार पर लिखिए।

उत्तर -उस ज़माने के प्रसद्धि शिक्षा शास्त्री सर आशुतोष मुखर्जी ने रामन् के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में रिक्त प्रोफेसर पद को स्वीकार कर लें। रामन् के समक्ष नौकरी संबंधी यह निर्णय अत्यंत कठिन था कि वे सुख-सुविधापूर्ण सरकारी नौकरी में बने रहें या उसे छोड़कर इस पद को स्वीकार कर लें। अंततः रामन् ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पद को स्वीकार किया और माँ सरस्वती की साधना हेतु सरकारी नौकरी की सुख-सुविधाओं को त्याग दिया।

4. सर चंद्रशेखर वेंकट रामन् को समय-समय पर किन-किन पुरस्कारों से सम्मानित किया गया?
उत्तर -'रामन् प्रभाव' की खोज ने रामन् को विश्व के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों की श्रेणी में प्रतिस्थापित कर दिया। समय-समय पर उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1924 में रॉयल सोसाइटी की सदस्यता, 1929 में 'सर' की उपाधि तथा 1930 में विश्व के सर्वोच्च 'नोबेल पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें रोम के मेत्यूसी पदक, रॉयल सोसाइटी के ह्यूज पदक, फिलोडेल्फिया इंस्टीट्यूट के फ्रैंकलिन पदक, सोवियत रूस के लेनिन पुरस्कार इत्यादि से सम्मानित किया गया।

5. रामन को मिलने वाले पुरस्कारों ने भारतीय-चेतना को जाग्रत किया। ऐसा क्यों कहा गया है?

उत्तर- रामन को मिलने वाले पुरस्कारों ने भारतीय चेतना को जाग्रत किया क्योंकि उन्हें ये सम्मान और पुरस्कार उस दौर में मिले, किब भारत अंग्रेज़ों के अधीन था। दासता की बेड़ियों में जकडी भारतीय जनता के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का निरंतर हास हो रहा था। ऐसी परिस्थिति में रामन् की इन उपलब्धियों ने भारत को एक नई गरिमा प्रदान की और इसे विश्व में शीर्ष स्थान पर प्रतिस्थापित कर दिया।

 निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (50-60 शब्दों में) लिखिए- 

1. रामन् के प्रारंभिक शोधकार्य को आधुनिक हठयोग क्यों कहा गया है?
उत्तर - कलकत्ता में सरकारी नौकरी करते हुए भी रामन् ने अपनी वैज्ञानिक जिज्ञासा और स्वाभाविक रुचि को अक्षुण्ण बनाए रखा। दफ्तर से छुट्टी मिलते ही वे बहू बाजार स्थित 'इंडियन एसोसिऐशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस' की प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों की सहायता से शोधकार्य करते थे। इस संस्था की प्रयोगशाला में संसाधनों का नितांत अभाव था। यह एक आधुनिक हठयोग ही था, जिसमें साधक रामन् दिनभर दफ़्तर की कड़ी मेहनत के पश्चात् सीमित संसाधनों की सहायता से प्रयोगशाला में शोधकार्य करते थे। रामन् अपनी इच्छाशक्ति के बल पर भौतिक विज्ञान को समृद्ध बनाने का प्रयास करते रहे और उन्होंने विज्ञान को नवीन ऊँचाइयाँ प्रदान की।

2. रामन् की खोज 'रामन् प्रभाव' क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - रामन् ने अनेक ठोस रवों और तरल पदार्थों पर प्रकाश किरणों के प्रभाव का अध्ययन किया और यह पाया कि, जब एक वर्षीय प्रकाश की किरण किसी तरल या ठोस रवेदार पदार्थ से होकर गुज़रती है तो गुज़रने के पश्चात् उसके वर्ण में परिवर्तन आता है। कारण यह है कि एकवर्षीय प्रकाश किरण के फोटॉन जब तरल अथवा ठोस रखे से गुज़रते हुए इनके अणुओं से टकराते हैं तो इसके परिणामस्वरूप उसकी ऊर्जा का कुछ अंश या तो खो जाता है या उसमें बढ़ोत्तरी हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप प्रकाश के वर्ण में परिवर्तन हो जाता है। एक वर्षीय प्रकाश की किरणों में सर्वाधिक ऊर्जा बैंगनी तथा सबसे कम ऊर्जा लाल वर्ण के प्रकाश में होती है। रामन् की इसी खोज को 'रामन् प्रभाव' के नाम से जाना जाता है।

3. 'रामन् प्रभाव' की खोज से विज्ञान के क्षेत्र में कौन-कौन से कार्य संभव हो सके ?
उत्तर - रामन् की खोज 'रामन् प्रभाव' की सहायता से पदार्थों के अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन करना सरल हो गया। पहले इसके लिए 'इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोस्कोपी' की मदद ली जाती थी, जिसमें त्रुटियों की संभावना अधिक रहती थी परंतु रामन् स्पेक्ट्रोस्कोपी की मदद से यह कार्य अत्यंत सहज हो गया। यह तकनीक एकवर्णीय प्रकाश के वर्ण में परिवर्तन के आधार पर पदार्थों के अणुओं और परमाणुओं की संरचना की सटीक जानकारी प्रदान करती है। इससे प्रयोगशाला में पदार्थों का संश्लेषण तथा अनेक पदार्थों का कृत्रिम रूप से निर्माण संभव हो गया है।

4. देश को वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन प्रदान करने में सर चंद्रशेखर वेंकट रामन् के महत्वपूर्ण योगदान पर प्रकाश डालिए ।
                             अथवा
रामन् का वैज्ञानिक व्यक्तित्व प्रयोगों और शोधपत्र लेखन तक ही सिमटा हुआ नहीं था। उनके अंदर एक राष्ट्रीय चेतना थी। इस कथन के आलोक में चंद्रशेखर वेंकट रामन् के योगदान पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर - रामन् को अपने संघर्ष के प्रारंभिक दिनों में काम-चलाऊ उपकरणों की मदद से एक साधारण-सी प्रयोगशाला में कार्य करना पड़ा था। इसीलिए उन्होंने एक उन्नत प्रयोगशाला और शोध संस्थान की स्थापना की। यह संस्था ' उत्तर - रामन् को अपने संघर्ष के प्रारंभिक दिनों में काम-चलाऊ उपकरणों की मदद से एक साधारण-सी प्रयोगशाला में कार्य करना पड़ा था। इसीलिए उन्होंने एक उन्नत प्रयोगशाला और शोध संस्थान की स्थापना की। यह संस्था 'रामन् रिसर्च इंस्टीट्यूट' के नाम से जानी जाती है। रामन् के अंदर एक राष्ट्रीय चेतना थी और वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि तथा चिंतन के विकास में उन्होंने सैकड़ों शोध छात्रों का मार्गदर्शन किया, जिन्होंने आगे चलकर बहुत अच्छा काम किया। इस प्रकार ज्योति से ज्योति प्रज्वलित होती रही और कई छात्र उच्च पदों पर प्रतिष्ठित हुए। उन्होंने 'करेंट साइंस' नामक एक पत्रिका का संपादन भी किया। इसके अतिरिक्त भौतिकी में अनुसंधान के विकास हेतु 'इंडियन जनरल ऑफ फिजिक्स' नामक शोध-पत्रिका भी निकाली। वे लोगों में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति पूर्णतः समर्पित थे।

5. सर चंद्रशेखर वेंकट रामन् के जीवन से प्राप्त होनेवाले संदेश को अपने शब्दों में लिखिए।
                                                  अथवा
रामन् वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर - सर चंद्रशेखर वेंकट रामन् ने अपने व्यक्तित्व के प्रकाश की किरणों से संपूर्ण देश को आलोकित किया। वे वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने हमें सदैव यही संदेश दिया कि हम अपने इर्द-गिर्द घट रही विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं को वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तथा उसी के अनुसार उसकी जाँच-पड़ताल करें। उन्होंने विभिन्न वाद्य यंत्रों, समुद्र की अथाह जलराशि तथा प्रकाश की किरणों में से वैज्ञानिक सिद्धांतों को ढूँढ़ निकाला। उनका व्यक्तित्व हमें यह प्रेरणा देता है कि हम भी अपने आसपास बिखरी चीजों और विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं और रहस्यों पर से पर्दा उठाएँ और विज्ञान को समुन्नत बनाने का प्रयास करें।


 निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए-

1. उनके लिए सरस्वती की साधना सरकारी सुख-सुविधाओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी।
उत्तर- यह कथन सर चंद्रशेखर वेंकट रामन् के विशिष्ट व्यक्तित्व और वैज्ञानिक चेतना के प्रति उनके समर्पण का सूचक है। कलकत्ता के वित्त विभाग में अफसर के रूप में तैनात रामन् दफ्तर से छुट्टी मिलने के बाद बहू बाज़ार स्थित प्रयोगशाला में जाकर शोधकार्य रूपी कठिन साधना करते थे। विज्ञान के प्रति उनके इस समर्पण ने उन्हें सुख-सुविधापूर्ण सरकारी नौकरी को छोड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पद को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया। इससे स्पष्ट होता है कि रामन् के लिए माँ सरस्वती की साधना सरकारी सुख-सुविधाओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी।

2. हमारे पास ऐसी न जाने कितनी ही चीजें बिखरी पड़ी हैं, जो अपने पात्र की तलाश में हैं।
उत्तर - यह कथन हमें रामन् के जीवन से प्रेरणा लेते हुए प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों और घटनाओं को वैज्ञानिक दृष्टि से देखने और सोचने की शिक्षा देता है। हमारे आसपास प्रकृति में अनगिनत चीजें बिखरी पड़ी हैं। ब्रह्मांड के कई रहस्य ऐसे हैं, जिनपर पर्दा पड़ा हुआ है। आवश्यकता है दृढ़ इच्छाशक्ति और अटूट लगन के साथ विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं और वस्तुओं की वैज्ञानिक दृष्टि से छानबीन करने तथा उसपर गहराई से मनन करने की। जाने कितने ही रहस्य वैज्ञानिक करकमलों द्वारा परदे से बाहर आने की प्रतीक्षा में है। परंतु इसके लिए हमें रामन् की तरह अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित होना होगा।

3. यह अपने आपमें एक आधुनिक हठयोग का उदाहरण था। 
उत्तर - यह कथन विज्ञान के प्रति रामन् के स्वाभाविक रुझान और समर्पण को व्यक्त करता है। 'हठयोग' प्राचीन योग साधना का वह अंग है, जिसमें साधक अत्यंत कठिन मुद्राओं और आसनों के द्वारा सिद्धि प्राप्त करता है। सर चंद्रशेखर वेंकट रामन् कलकत्ता के वित्त विभाग में अफ़सर के रूप में तैनात थे। दिन भर दफ़्तर की कड़ी मेहनत के बाद छुट्टी मिलते ही वे बहू बाज़ार स्थित 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस' की मामूली-सी प्रयोगशाला में पहुँचते और कामचलाऊ उपकरणों की सहायता से शोधकार्य रूपी कठिन साधना करते। सीमित संसाधनों वाली उस अभावग्रस्त प्रयोगशाला में दिन भर के थके रामन् विज्ञान को समृद्ध करने का प्रयास करते। उनकी यह कठिन साधना आधुनिक हठयोग का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

Sunday, 25 August 2024

CLASS 10 मनुष्यता


कविता का भावार्थ 

1. विचार लो कि मर्त्य हो.......................................................  जो मनुष्य के लिए मरे।।

भावार्थ– मैथिलीशरण गुप्त जी की यह कविता मनुष्यता पर आधारित है। कवि ने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में मृत्यु की सच्चाई बताई है। मनुष्य को समझाया है कि जब मृत्यु निश्चित ही है तो फिर इसका भय क्यों? जीवन रहते उसे सार्थक बनाइए और ऐसे कार्य कीजिए कि मरने के बाद भी दुनिया आपको स्मरण करे जब तक जियो गर्व के साथ और मरो भी तो गर्व के साथ कि हम इस संसार में अपनी कुछ अच्छाइयाँ छोड़कर जा रहे हैं। मरने के बाद भी दुनिया तुम्हें स्मरण करेगी। तुम्हारी यह मृत्यु ही सुमृत्यु होगी। स्वयं के लिए जीना तो पशु-तुल्य जीना है जो केवल अपना पेट भरना ही जानते हैं। वास्तव में परहित के लिए जीना ही मनुष्यता की सही परिभाषा है। 

काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य –
1.  'सुमृत्यु' को समझाते हुए दूसरों के लिए जीने की प्रेरणा दी गई है। 
2.  संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है। 
3.  उद्बोधनात्मक शैली व तुकांत रचना की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। 
4.  जो जिया, पशु-प्रवृत्ति, आप आप शब्दों में अनुप्रास अलंकार व पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार की छटा दिखाई देती है।


2. उसी उदार की कथा सरस्वती ........................................................  जो मनुष्य के लिए मरे।।

भावार्थ - इन पंक्तियों में कवि ने उदार मनुष्य के जीवन के महत्त्व का वर्णन करते हुए कहा है जो दूसरों के लिए जीता है;  उसका जीवन एक कहानी बन जाता है। सरस्वती भी उसका गुणगान करती है। धरती ऐसे उदार मनुष्य को जन्म देकर उसके प्रति अपना आभार प्रकट करती है जो इस संसार में एकता और आत्मीयता का भाव रखता है। ऐसे लोगों का यश पूरे संसार में फैल जाता है। वास्तव में वह सभी प्राणियों में श्रेष्ठ और पूजनीय माना जाता है। वह अपना सारा जीवन कल्याण के कार्यों में लगा देता है। सच्चा मानव संसार के लिए ही जीता है और संसार के लिए ही मरता है।

काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य - 
1. कवि की भाषा सरस, सरल और प्रभाव पूर्ण है।
2.  खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है जो कि  संस्कृत भाषा से प्रभावित है। 
3. अनुप्रास और मानवीकरण अलंकार है।
4.  'सजीव कीर्ति गूँजती' में मानवीकरण अलंकार है। 
5. सदा-सजीव और समस्त-सृष्टि में 'स' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है।
6.  वीर रस की प्रधानता है।

3. क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ------------------------------------ जो मनुष्य के लिए मरे।।

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने समाज का कल्याण करने वाले कुछ उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए यह समझाने का प्रयास किया है कि उसी मानव का जीवन ही सफल होता है जो दूसरों के लिए जीता है। राजा रंतिदेव ने अपने सामने पड़ा भोजन का थाल भिक्षु को दे दिया था जबकि वे स्वयं भूखे रहे। महर्षि दधीचि ने असुरों के वध के लिए अपनी अस्थियों का दान कर दिया था। दानवीर कर्ण ने अपने कवच व कुंडल उतार दिए थे। गांधार नरेश शिवि ने अपने शरीर का मांस कबूतर की प्राण रक्षा के लिए दे दिया था। यह शरीर तो नश्वर है आत्मा अमर है, फिर हम इस नश्वर शरीर के लिए मृत्यु से क्यो डरते हैं? सच्चा मनुष्य वही है, जो दूसरों के कल्याण के लिए जीता है और परहित के लिए मरता भी है।

काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य – 
1.  अनेक उदाहरणों द्वारा परोपकार का महत्व बताया गया है। 
2.. खड़ी बोली का प्रयोग है जिसमें संस्कृत का प्रभाव दिखता है। 
3...वीर रस की अभिव्यक्ति है और प्रश्न शैली का प्रयोग है। 
4..भाषा अलंकृत है। अनुप्रास अलंकार की झलक है।
5. तुकांत शब्दों का प्रयोग हुआ है। 


4. सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही---------------------------------------------  जो मनुष्य के लिए मरे।।

भावार्थ -  कवि ने सहानुभूति को हमारी सबसे बड़ी पूँजी इसलिए कहा है क्योंकि इससे आप किसी के भी मन को जीत सकते हैं। सहानुभूति आपको उदार तथा महान बनाती है। दूसरों के प्रति दया तथा सहानुभूति का व्यवहार करके संपूर्ण धरती को वश में किया जा सकता है। अच्छे व्यवहार की ओर सभी खिंचे चले आते हैं। महात्मा बुद्ध ने तत्कालीन गलत धारणाओं का विरोध किया था किंतु अंत में लोगों को उनकी बात माननी ही पड़ी थी। सच्चा मनुष्य वास्तव में वही है। जो परोपकारी है। जिसका जीना और मरना दूसरों के लिए है। वही सफल है।

काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य –
 1.  कवि उदारता का संदेश देते हुए सहानुभूति का महत्व बता रहे हैं।
 2.  संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली और प्रश्न शैली प्रयुक्त हुई है। 
3.  भाषा अलंकृत है और अनुप्रास अलंकार की छटा कवि ने बिखेरी है। 
4.  तुकांत शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है।


5. रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में  --------------------------------------------जो मनुष्य के लिए मरे।।

भावार्थ - इन पंक्तियों में कवि ने अहंकारी न बनने के लिए कहा है और यह समझाने का प्रयास किया है कि धनवान होने पर अहंकार में अंधे मत बनो। यह धन तो आता-जाता रहता है। उसे पाकर घमंड करना मूर्खता है। ईश्वर परमपिता हैं। संसार के पालक और संरक्षक हैं। इसलिए कोई स्वयं को अनाथ न समझे। कई बार मनुष्य परिजनों और धन का साथ पाकर स्वयं को सनाथ समझने लगता है और घमंडी हो जाता है, लेकिन ऐसा मानव सच्चा मानव नहीं है। सच्चा मनुष्य तो वही है जो जग-कल्याण करता है। आवश्यकता पड़ने पर अपना शरीर तक बलिदान करने से भी पीछे नहीं हटता। वह प्राणी भाग्यहीन है जो असंतुष्ट-अशांत और अतृप्त रहता है।

काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य - 
1. मनुष्य को अहंकार न करने का संदेश देते हुए कवि ने संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया है। 
2. लयात्मक भाषा है। 
3.  तुकांत शब्दों का सुंदर प्रयोग मिलता है।
4. यथासंभव अलंकारों की छटा बिखरी है।
5. उद्बोधन शैली का प्रयोग किया गया है। 
6. भाषा में प्रवाह है। सामासिक शब्दों का प्रयोग है।


6. अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े ------------------------------------------------- जो मनुष्य के लिए मरे।।

भावार्थ - इन पंक्तियों में कवि मनुष्य को परोपकार करने तथा मानवीयता का पालन करने के लिए कहते हैं। कवि के अनुसार ऐसा जीवन जीयो जो दूसरों के काम आ सके। एक-दूसरे की मदद करो। ऐसे लोग देव-तुल्य होते हैं। ऐसे लोगों की हमारे देश में कमी नहीं है। इतिहास पर नजर डालें तो असंख्य ऐसे उदाहरण मिलेंगे।
कवि के अनुसार जीवन उसी का सफल है जो परोपकार करता है। एक-दूसरे के सहयोग से महान कार्य करो और अमर हो जाओ। व्यर्थ है वह जीवन जो किसी के काम न आ सके।

काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य - 
1. कवि ने देव-तुल्य जीवन बिताने के लिए और परोपकारी बनने का संदेश दिया है। 
2. उद्बोधन शैली का प्रयोग किया गया है। 
3. भाषा खड़ी बोली है और संस्कृत से प्रभावित है।
4. 'अनंत अंतरिक्ष' समक्ष स्वबाहु में अनुप्रास अलंकार है।
5.  तुकांत शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है। 
6. भाषा में प्रवाह है।


7. 'मनुष्य मात्र बंधु है' यही बड़ा विवेक है ------------------------------------------  जो मनुष्य के लिए मरे।।

भावार्थ - इन पंक्तियों में मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं कि समस्त मानव-जाति एक-दूसरे की सहायक बने। सबको अपना भाई-बंधु माने। संसार में ऐसे लोग ही विवेकी माने जाते हैं। संसार की विविधता केवल मनुष्य के कर्मों द्वारा मिले फल हैं। यह केवल बाहरी भेद हैं। मूल रूप से सभी प्राणी एक हैं। सब एक ही परमपिता की संतान हैं। उनका रचयिता एक है। सब में एक ही चेतना, एक ही प्राण और एक ही ईश्वर समाया है। फिर भी विडंबना देखो कि एक-दूसरे की विपदा और दुख को हरने का प्रयास नहीं किया जाता। यही इस संसार का सबसे बड़ा अनर्थ है। मनुष्य मात्र का यह कर्तव्य है कि परस्पर भाईचारे की भावना स्थापित करे। यही सच्ची मनुष्यता है।

काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य - 
1. कवि के द्वारा परस्पर सहयोग की भावना विकसित करने का संदेश दिया गया है। 
2. खड़ी बोली में संस्कृत का प्रभाव है। 
3. भाषा में लयात्मककता है। 
4. यथासंभव अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
 5. वीर रस की अभिव्यक्ति है।
 तुकांत शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है।


8. चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए-------------------------------------------  जो मनुष्य के लिए मरे।।

भावार्थ - इन पंक्तियों में जीवन की अनेक रुकावटों को मार्ग से हटाते हुए आगे बढ़ने का संदेश दिया गया है। हमें विपत्तियों से घबराना नहीं चाहिए और लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। हम सबका अंतिम लक्ष्य समाज में एकता और भाईचारा लाना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें प्रयासरत रहना है। आपसी मतभेद को समाप्त करके आपस में मिल-जुलकर रहना है। अपनी सफलता के साथ-साथ दूसरों को भी सफल बनाने की कोशिश करें यही सच्चा समर्थ भाव है। सच्चा मानव वही है जो दूसरों के लिए जीता है और दूसरों के लिए मरता है।

काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य – 
1.  कवि ने इन पंक्तियों के माध्यम से परस्पर मिल-जुलकर रहने का संदेश दिया है। समस्त संसार को एक परिवार 
      मानना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए। 
2.  संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है। 
3.  लयात्मक भाषा है। 
4.  तुकांत शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है। 
5.  समास का प्रयोग यथास्थान किया गया है। 
6.  विपत्ति-विघ्न में अनुप्रास अलंकार है।


Thursday, 30 May 2024

कहानी - सही उत्तर


सही उत्तर

राजा भोज बड़े उदार और कुशल शासक थे। अपनी प्रजा का हाल-चाल जानने के लिए वे अकसर वेश बदलकर घूमा करते थे। उनके दरबार में महाकवि कालिदास का बड़ा सम्मान था। कालिदास महाकवि होने के साथ-साथ अत्यंत बुद्धिमान व व्यवहार कुशल भी थे।

एक दिन राजा भोज वेश बदलकर कालिदास के साथ प्रजा का कुशल-क्षेम जानने के लिए नगर में घूम रहे थे। बातों-बातों में राजा भोज ने कालिदास से पूछा, "महाकवि बताओ, खाता कौन है?" प्रश्न बड़ा अटपटा-सा था। कालिदास कुछ सोच में पड़ गए। राजा भोज ने हँसते हुए कहा, "क्यों, पड़ गए न सोच में!" कालिदास बोले, "राजन, बिना सोचे समझे उत्तर देने वाला मूर्ख होता है।"

"प्रश्न तो बड़ा सीधा-सा है महाकवि। ऐसे प्रश्नों के उत्तर के लिए बुद्धिमानों को विचार नहीं करना पड़ता।" राजा ने कहा।

"तो आप ही इसका उत्तर देने की कृपा करें", कालिदास बोले।

"अच्छा ठीक है। सीधे से प्रश्न का सीधा-सरल उत्तर है कि भूखा ही खाता है" राजा भोज उत्तर दिया। "गलत" कालिदास ने कहा। ने

राजा भोज बोले, "प्रमाणित कीजिए।"

"अवश्य। कल मैं अपनी बात प्रमाणित करूंगा," कालिदास ने उत्तर दिया।

अगले दिन कालिदास के कहे अनुसार राजा भोज ने पंडित का और कालिदास ने उनके शिष्य का वेश धारण किया। कालिदास ने राजा से कहा, "राजन ध्यान रखिएगा कि आपको कुछ नहीं बोलना है, जो बोलना है, मैं बोलूँगा। बस आप मेरे साथ चलते रहिएगा।"

राजा भोज ने कहा, "ठीक है।"

दोनों चल दिए। चलते-चलते दोपहर हो गई। दोनों को ज़ोरों से भूख लग रही थी। सामने ही उन्हें एक बड़ी हवेली दिखाई दी। दोनों ने सोचा कि हमने ब्राह्मण वेश धारण किया हुआ है अतः हवेली के द्वार पर भोजन मिल ही जाएगा। वे दोनों हवेली के द्वार पर जा पहुँचे। सेठ का मुनीम वहीं खड़ा था। उसने पूछा, "आप कौन हैं? आपको क्या चाहिए?" कालिदास कटु स्वर में बोले, "मूर्ख, देखते नहीं हो हम कौन हैं? तुम बताओ, तुम कौन हो?" मुनीम को बड़ा क्रोध आया और वह भुनभुनाता हुआ भीतर चला गया। राजा भोज चकित से कालिदास का मुँह देखने लगे।

तभी सेठ की दासी बाहर आई। उन्हें देखकर उसने भी पूछा, "आप लोग कौन हैं?" कालिदास फिर बोले, "आँखें होते हुए भी तुम्हें नहीं दिखाई देता कि हम कौन हैं। दोपहर का समय है, हम भूखे हैं।" दासी को भी क्रोध आ गया। गुस्से से बोली, "भूखे हैं तो मैं क्या करूँ।" यह कहकर वह अंदर चली गई।

तभी सेठ और सेठानी मंदिर से पूजा करके लौटे। द्वार पर दो जनों को खड़ा देखकर सेठ पूछा, "कौन हैं आप लोग ? क्या कुछ दान चाहिए?" कालिदास चिढ़कर बोले, "क्या कहा-दान लगता है इस हवेली में रहने वाले सभी मूर्ख हैं। हमें देखकर भी नहीं पहचानते। हम पंडित हैं। हमारे साथ ये हमारे गुरु हैं। हम भूखे हैं, इसलिए यहाँ आए हैं।" अपने लिए मूर्ख शब्द सुनकर सेठ गुस्सा आ गया। उसने चिल्लाकर दरबान से कहा, "इन पंडितों को धक्के देकर बाहर निकाल दो।"

यह सुनते ही दोनों वहाँ से भाग खड़े हुए। कुछ दूर जाकर राजा बोले, "महाकवि, यह नाटक है?"

"नाटक नहीं महाराज, यह आपके उत्तर को गलत सिद्ध करने का प्रमाण था। समझे आप?" कालिदास ने कहा। "अब मैं आपको आपके प्रश्न का सही उत्तर दूँगा।"

कुछ महीने बाद कालिदास और राजा ने फिर से पंडित का वेश धारण किया और उसी हवेली के सामने जा पहुँचे। राजा भोज तो डर रहे थे कि कहीं मार न खानी पड़े पर का "देखते रहिए राजन। आज मैं आपको बढ़िया भोजन खिलवाऊँगा। बस आप कुछ न बोलिएगा।" तभी हवेली में से वही दासी बाहर आई। कालिदास बोले, "धन्य हो, धन्य हो । बड़ी सौभाग्यवती हो बहन। तभी सेठानी भी आ पहुँची। कालिदास उसे देखते ही बोल उठे, "धन्य हो माँ। साक्षात सीता मैया का रूप हो देवी।" संयोग से सेठ और उनका मुनीम भी उसी समय बाहर से हवेली सीता मैया का उस्होंने पूछा, "क्या बात है ? कौन हैं ये लोग ? " कालिदास तुरंत बोल उठे, "धन्य है सेठ जी। मस्तक पर क्या तेज है! आपका सूर्य चमक रहा है। सब मंगल ही मंगल है।" कालिदास की बात सुनकर सेठ बड़ा प्रसन्न हुआ। कालिदास आगे कहने लगे, "आप तो दाता के दाता दानवीर कर्ण हैं। ईश्वर आपका भला करे। हम चलते हैं। भोजन का समय हो गया है।"

सेठ आगे बढ़कर बोला, "नहीं पंडित जी, आप ऐसे नहीं जाएँगे। आज हवेली में भोजन करके ही जाइएगा।" फिर मुनीम से कहा, "मुनीम जी, इनके लिए भोजन की व्यवस्था कीजिए।" आदर के साथ दोनों को आसन पर बिठाकर भोजन परोसा गया।

दोनों ने छककर स्वादिष्ट भोजन किया और दान-दक्षिणा लेकर लौटे।

कुछ आगे चलकर कालिदास ने कहा, "कहिए राजन कैसी रही? यह था आपके प्रश्न का सही उत्तर। भूखा नहीं खाता बल्कि जो पाता है वही खाता है।" राजा भोज कालिदास के कंधे पर हाथ रखकर मुसकराने लगे।




Monday, 27 May 2024

मणि की चोरी - पौराणिक कथा


मणि की चोरी

बहुत समय पहले द्वारिका पुरी में कृष्ण के राज्य में सत्रजित नाम का एक यादव नायक था। वह द्वारिका में सबसे धनवान व्यक्ति था। उसका भवन अत्यंत वैभवशाली था और उसके घोड़े और गायें सर्वोत्तम थीं। सबसे बड़ी बात थी कि प्रभास तीर्थ के देवता भगवान सूर्य की उस पर विशेष कृपा थी। वह भगवान सूर्य का अनन्य उपासक था। भगवान सूर्य ने अपनी कृपा के चिह्न स्वरूप उसे स्यमंतक नाम की मणि प्रदान की थी। स्यमंतक मणि एक ऐसा चामत्कारिक रत्न था जिसकी समुचित पूजा करने पर वह निकृष्ट धातुओं को भी स्वर्ण में परिवर्तित कर देता था।

स्यमंतक मणि की सहायता से सत्रजित ने अकूत संपत्ति एकत्र कर ली थी और वह अभिमानी एवं अहंकारी हो गया था। सत्रजित कृष्ण से घोर शत्रुता रखता था और उन्हें अन्य यादव नायकों की तरह भगवान मानने को तैयार नहीं था। वह अपनी संपत्ति वैभव-विलास में उड़ा रहा था। दूसरी ओर कृष्ण उसकी संपदा का बड़ा भाग राज्य हित में लगाना चाहते थे, जिसके लिए सत्रजित बिलकुल तैयार नहीं था।

यादवों की धर्म रक्षा हेतु कृष्ण सत्रजित से मिलने उसके भवन गए। सत्रजित ने गले में स्यमंतक मणि धारण कर रखी थी। सूर्य के प्रकाश में मणि भव्यता के साथ दमक रही थी। ऐसा लगता था मानो एक छोटा सूर्य अपने प्रभा-मंडल के साथ उग आया हो। कृष्ण की दृष्टि मणि पर टिकी थी ऐसा सत्रजित को लग रहा था। कृष्ण ने सौहार्द्रपूर्ण ढंग से यादवों की रक्षा हेतु संपत्ति की माँग का प्रश्न उठाया पर अहंकारी सत्रजित ने उनकी एक बात भी नहीं मानी। उसे लगा कि कृष्ण उसकी मणि हथियाना चाहते हैं।

कृष्ण को नीचा दिखाने के लिए सत्रजित ने एक षड्यंत्र रचा। उसने मणि अपने भाई प्रसेनजित को देकर उसे जंगल में सूर्य देवता की पवित्र गुफा में रख देने के लिए कहा। प्रसेनजित के जाने के बाद सत्रजित ने पूरी द्वारिका में इस बात का प्रचार कर दिया कि कृष्ण ने उसकी स्यमंतक मणि चुरा ली है। कृष्ण छली और कपटी है। कृष्ण के लिए यह आरोप असहनीय था। वे नहीं चाहते थे कि यादवों का उनमें विश्वास टूट जाए। इसके लिए स्वयं को निरपराध सिद्ध करना आवश्यक था और स्यमंतक मणि को खोज लाना भी बहुत ज़रूरी था। अतः कृष्ण ने घोषणा की कि वे स्यमंतक मणि ढूँढ़ कर लाएँगे या आत्मघात कर लेंगे।

दुर्भाग्य से प्रसेनजित जब जंगल में जा रहा था तो उसका सामना भयंकर सिंह से हो गया। सिंह मणि की चमक से आकर्षित हो गया था। प्रसेनजित ने बहादुरी से सिंह का मुकाबला किया किंतु आखिर में उसके हाथों मारा गया। मणि लेकर सिंह कुछ दूर ही गया था कि उसकी मुठभेड़ एक विशालकाय रीछ से हुई। रोछ अत्यंत बलवान और शक्तिशाली था। सिंह रीछ के हाथों मारा गया और रीछ वह मणि लेकर अपनी गुफा में चला गया।

उधर सत्रजित अपने भाई के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था कि तभी उसे समाचार मिला कि प्रसेनजित जंगल में सिंह के हाथों मारा गया है। सत्रजित पर मानो वज्रपात हुआ। उसका अहंकार, आत्मविश्वास, यादवों पर आधिपत्य जमाने की महत्त्वाकांक्षा, सब ध्वस्त हो गया।

स्यमंतक मणि की खोज में शिकारी वेश में श्रीकृष्ण उसी जंगल में पहुँचे जहाँ प्रसेनजित गया था। बहुत खोजने पर उन्हें एक स्थान पर प्रसेनजित का मृत शरीर पड़ा मिला पर उसके पास स्यमंतक का कोई नामो निशान नहीं था, केवल उस जंजीर का कुछ भाग गले में लटका था जिसमें कृष्ण ने मणि को सत्रजित के गले में देखा था। कृष्ण को विश्वास हो गया कि मणि प्रसेनजित के ही पास थी।

कुछ दूर आगे चलने पर उन्हें झाड़ी के पास सिंह का मृत शरीर दिखाई दिया। सिंह के पंजे में प्रसेनजित के वस्त्र का टुकड़ा फँसा हुआ था। यह वही सिंह था जिसने प्रसेनजित को मारा था। सिंह के पास किसी विशालकाय रीछ के बड़े-बड़े पैरों के निशान थे। ये निशान एक दिशा में जा रहे थे। कृष्ण ने उन पदचिह्नों का पीछा किया तो वे एक गुफा के सामने पहुँच गए। कृष्ण को विश्वास था कि रीछ मणि लेकर इसी गुफा में गया है।

कृष्ण गुफा में प्रवेश कर गए। बड़ी अद्भुत थी वह गुफा। उसमें एक लंबा रास्ता था जो अंत में एक विशाल कक्ष में जाकर समाप्त हुआ। कृष्ण ने वहाँ कुछ रीछ बालकों को उस मणि के साथ खेलते देखा। संभवतः वह रीछों की गुफा थी।

तभी गुफा में घोर गर्जना हुई। श्रीकृष्ण ने देखा कि एक विशालकाय रीछ तेज़ी से उनकी ओर बढ़ा आ रहा है। कृष्ण के पास अवसर न था। अतः दोनों गुत्थमगुत्था होकर युद्ध करने लगे। दोनों एक दूसरे के वार को बचाने का प्रयास कर रहे थे। काफ़ी देर तक दोनों इसी प्रकार लड़ते रहे। रीछ वृद्ध होते हुए भी बड़ा शक्तिशाली था। अंत में कृष्ण ने रीछ को दोनों हाथों से उठाकर गुफा के फर्श पर पटक दिया।

रीछ के अचरज की सीमा न थी। उसे आज तक कोई हरा नहीं सका था। वास्तव में वह रीछ और कोई नहीं, रामायण काल का जांबवान था। जांबवान ने गौर से कृष्ण की ओर देखा। उसे श्रीकृष्ण में अपने प्रभु श्रीराम की छवि दिखाई दी। तुरंत जांबवान को प्रभु का दिया वायदा याद आ गया कि मैं द्वापर युग में एक बार तुमसे फिर मिलूँगा।

जांबवान श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा माँगने लगा। उसने अपने प्रभु राम को तुरंत क्यों नहीं पहचान लिया, इसका उसे बड़ा दुख था। उसके नेत्रों से अश्रु बहने लगे, शरीर पुलकित हो उठा। उसके आनंद की सीमा न रही। उसका जीवन सुफल हो गया था।

श्रीकृष्ण से जंगल में आने का कारण और गुफा तक पहुँचने की पूरी कहानी सुनने के बाद जांबवान ने वह मणि आदरपूर्वक कृष्ण को सौंप दी। अपने प्रभु के दर्शन पाने के लिए उसने लंबी प्रतीक्षा की थी। हर्षातिरेक में उसका कंठ अवरुद्ध हो गया। कृष्ण उसकी दशा समझ रहे थे।

जांबवान और उसके परिवार को आशीर्वाद देकर कृष्ण मणि लेकर गुफा से बाहर आ गए और सत्रजित से मिलने चल दिए।

स्यमंतक को दुबारा पाकर सत्रजित की खुशी का ठिकाना न था। उसकी आँखों से मोह व अहंकार का परदा हट गया था। श्रीकृष्ण के चरणों में गिरकर उसने अपने पापों के लिए क्षमा माँगी। कृष्ण को भी इस बात की खुशी थी कि द्वारिका पुरी के समस्त नागरिकों में अपने प्रति विश्वास को बचाने में वे सफल रहे थे। उन्होंने स्वयं को मणि की चोरी के आरोप से मुक्त कर लिया था।