HINDI BLOG : लालच बुरी बला है-कहानी 'अलिफ़ लैला' से

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Monday, 30 May 2022

लालच बुरी बला है-कहानी 'अलिफ़ लैला' से


बाबा अब्दुल्ला ने कहा कि मैं इसी बगदाद नगर में पैदा हुआ था। मेरे माँ-बाप मर गए, तो उनका धन उत्तराधिकार में मैंने पाया। वह धन इतना था कि उससे मैं जीवनभर आराम से रह सकता था, किंतु मैंने भोग-विलास में सारा धन शीघ्र ही उड़ा दिया। फिर मैंने जी-तोड़ परिश्रम कर धनार्जन किया और उससे अस्सी ऊँट खरीदे। मैं उन ऊँटों को किराए पर व्यापारियों को दिया करता था। उनके किराए से मुझे काफ़ी लाभ हुआ। एक बार हिंदुस्तान जाने वाले व्यापारियों का माल ऊँटों पर लादकर मैं बसरा ले गया वहाँ माल को जहाज़ों पर चढ़ाकर और अपना किराया तथा अपने ऊँट लेकर बगदाद वापस जाने लगा। रास्ते में एक बड़ा-सा हरा-भरा मैदान देखकर मैंने ऊँटों के पाँव बाँधकर उन्हें चरने छोड़ दिया और खुद आराम करने लगा। इतने में बसरा से बगदाद को जाने वाला एक फ़कीर भी मेरे पास आ बैठा। मैंने भोजन निकाला और उसे भी साथ में खाने को कहा। खाते-खाते हम लोग बातें भी करते जाते थे। उसने कहा, “तुम रात-दिन बेकार मेहनत करते हो। यहाँ से कुछ दूरी पर एक ऐसी जगह है, जहाँ अपार द्रव्य भरा पड़ा है। तुम इन अस्सी ऊँटों को बहुमूल्य रत्नों और अशर्फ़ियों से लाद सकते हो और वह धन तुम्हारे जीवनभर के लिए काफ़ी होगा।"
मैंने यह सुनकर उसे गले लगाया और यह जानना चाहा कि वह इससे कोई स्वार्थ सिद्ध तो नहीं करना चाहता है। मैंने उससे कहा, "तुम तो महात्मा हो, तुम्हें सांसारिक धन से क्या लेना-देना ? तुम मुझे वह जगह दिखाओ, तो मैं ऊँटों को रत्नादि से लाद लूँ। मैं वादा करता हूँ कि उनमें से एक ऊँट तुम्हें दे दूँगा।" मैंने कहने को तो कह दिया, किंतु मेरे मन में दूद्वंदूव होने लगा। कभी सोचता कि बेकार ही एक ऊँट उसे देने को कहा, कभी कि क्या हुआ, मेरे लिए उन्यासी ऊँट ही बहुत हैं। वह फ़कीर मेरे मन के द्वंद्व को समझ गया। उसने मुझे पाठ पढ़ाना चाहा और बोला, “एक ऊँट को लेकर मैं क्या करूँगा ? मैं तुम्हें इस शर्त पर वह जगह दिखाऊँगा कि तुम खजाने से लदे अपने ऊँटों में से आधे ऊँट मुझे दे दोगे। अब तुम्हारी मरजी है। तुम खुद ही सोच लो कि चालीस ऊँट क्या तुम्हारे लिए कम हैं ?" मैंने विवशता में उसकी बात स्वीकार कर ली। मैंने यह भी सोचा कि चालीस ऊँटों पर लादा गया धन ही मेरी कई पीढ़ियों के लिए काफ़ी होगा। हम दोनों एक अन्य दिशा में चले। एक पहाड़ के तंग दर्रे से निकलकर हम लोग पहाड़ों के बीच एक खुले पहुँचे। वह जगह बिल्कुल सुनसान थी। फ़कीर ने कहा, "ऊँटों को बिठा दो और मेरे साथ आओ।" मैं ऊँटों को बिठाकर उसके साथ गया। कुछ दूर जाकर फ़कीर ने सूखी लकड़ियाँ जमा करके चकमक पत्थर से आग निकाली और लकड़ियों को सुलगा दिया। आग जलने पर उसने अपनी झोली में से एक सुगंधित द्रव्य निकालकर आग में डाला। उसमें से धुएँ का एक जबरदस्त बादल उठा और वह एक ओर चलने लगा। कुछ दूर जाकर वह बादल फट गया और उसमें एक बड़ा टीला दिखाई दिया। जहाँ हम थे, वहाँ से टीले तक एक रास्ता भी बन गया। हम दोनों उसके पास पहुँचे तो टीले में एक द्वार दिखाई दिया। द्वार से आगे बढ़ने पर एक बड़ी गुफ़ा मिली, जिसमें जिन्नों का बनाया हुआ एक भव्य भवन दिखाई दिया। स्थान वह भवन इतना भव्य था कि मनुष्य उसे बना ही नहीं सकते थे। हम लोग उसके अंदर गए, तो देखा कि उसमें असीम द्रव्य भरा हुआ था। अशर्फ़ियों के एक ढेर को देखकर मैं उस पर ऐसे झपटा, जैसे किसी शिकार पर शेर झपटता है।


 मैंने ऊँटों की खुर्जियों में अशर्फ़ियाँ भरनी शुरू की। फ़कीर भी द्रव्य-संग्रह करने लगा, किंतु वह केवल रत्नों को भर रहा था। उसने मुझे भी अशर्फ़ियों को छोड़कर केवल रत्न उठाने को कहा। मैं भी ऐसा करने लगा। हम लोगों ने सारी खुर्जियाँ बहुमूल्य रत्नों से भर लीं। मैं बाहर जाने ही वाला था कि वह फ़कीर एक अन्य कमरे में गया और मैं भी उसके साथ चला गया। उसमें भाँति-भाँति की स्वर्ण निर्मित वस्तुएँ रखी थी। फ़कीर ने सोने को एक संदूकची खोली। उसमें से लकड़ी की एक डिबिया निकाली और उसे खोलकर देखा। उसमें एक प्रकार का मरहम रखा हुआ था। उसने डिबिया बंद करके अपनी जेब में रख ली। फिर उसने आग जलाकर उसमें सुगंधित द्रव्य डाला और मंत्र पढ़ा, जिससे वह महल, गुफा एवं टीला सभी गायब हो गए, जो उसने मंत्र बल से पैदा किए थे। अब हम लोग उसी मैदान में आ गए, जिसमें मेरे ऊँट बँधे बैठे थे। हमने सारे ऊँटों को खुर्जियों से लादा और वादे के अनुसार आधे-आधे ऊँट बाँटकर फिर उस तंग दरें से निकले जहाँ से होकर आए थे। बसरा और बगदाद के मार्ग पर पड़ने वाले मैदान में  पहुँचकर मैं अपने चालीस ऊँट लेकर बगदाद की ओर चला और फ़कीर चालीस ऊँट लेकर बसरे की ओर रवाना हुआ। मैं कुछ ही कदम चला था कि शैतान ने मेरे मन में लोभ भर दिया और मैंने पीछे की ओर दौड़कर फ़कीर को आवाज़ दी। वह रुका तो मैंने कहा, "साई जी ! आप तो भगवान के भक्त हैं। आप इतना धन लेकर क्या करेंगे ? आपको तो इससे भगवान की आराधना में कठिनाई ही होगी। आप अगर बुरा न मानें, तो मैं आपके हिस्से में से दस ऊँट ले लूँ । आप तो जानते ही हैं कि मेरे जैसे सांसारिक लोगों के लिए धन का महत्त्व होता है।" फ़कीर इस पर मुसकराया और बोला, "अच्छा, दस ऊँट और ले जाओ।" जब फ़कीर ने अपनी इच्छा से बगैर हीला-हुज्जत किए दस ऊँट मुझे दे दिए, तो मुझे और लालच ने धर दबाया और मैंने सोचा कि इससे दस ऊँट और ले लूँ , इसे तो कोई फर्क पड़ना नहीं है। अतएव मैं उसके पास फिर गया और बोला, "साई जी आप कहेंगे कि यह आदमी बार-बार परेशान कर रहा है, लेकिन मैं सोचता हूँ कि आप जैसे संत महात्मा तीस ऊँटों को भी कैसे सँभालेंगे ? इससे आपकी साधना-आराधना में बहुत विघ्न पड़ेगा। इनमें से दस ऊँट मुझे और दे दीजिए।" फ़कीर ने फिर मुसकरा कर कहा, "तुम ठीक कहते हो, मेरे लिए बीस ऊँट ही काफ़ी हैं। तुम दस ऊँट और ले लो।" दस ऊँट और लेकर मैं चला, किंतु मुझ पर लालच का भूत बुरी तरह सवार हो गया था या यह समझो कि वह फ़कीर ही अपनी निगाहों और अपने व्यवहार से मेरे मन में लालच पैदा किए जा रहा था। मैंने अपने रास्ते से पलटकर पहले जैसी बातें कहकर और दस ऊँट उससे माँगे। उसने हँसकर यह बात भी स्वीकार कर ली और दस ऊँट अपने पास रखकर दस ऊँट मुझे दे दिए, किंतु मैं अभागा इतने से भी संतुष्ट न हुआ। मैंने बाकी दस ऊँटों का विचार अपने मन से निकालना चाहा, किंतु मुझे उनका ध्यान बना रहा। मैं रास्ते से लौटकर एक बार फिर उस फ़कीर के पास गया और बड़ी मिन्नतें करके बाकी के ऊँट भी उससे माँगे वह हँसकर बोल, "भाई, तेरी तो नीयत ही नहीं भरती। अच्छा यह बाकी दस ऊँट भी ले जा, भगवान तेरा भला करें।" सारे ऊँट पाकर भी मेरे मन का खोट न गया। मैंने उससे कहा, "साई जी आपने इतनी कृपा की है, तो वह मरहम की डिबिया भी दे दीजिए, जो आपने जिन्नों के महल से उठाई थी।" उसने कहा, " मैं यह डिबिया नहीं दूँगा ।" अब मुझे उसका लालच हुआ। मैं फ़कीर से उसे देने के लिए हुज्जत करने लगा। मैंने मन में निश्चय कर लिया था कि यदि फ़कीर ने अपनी इच्छा से वह डिबिया नहीं दी, तो मैं ज़बरदस्ती करके उससे डिबिया ले लूँगा। मेरे मन की बात को जानकर फ़कीर ने वह डिबिया भी मुझे दे दी और कहा, "तुम डिबिया जरूर ले लो, लेकिन यह जरूरी है कि तुम इस मरहम की विशेषता समझ लो। अगर तुम इसमें से थोड़ा-सा मरहम अपनी बाई आँख में लगाओगे, तो तुम्हें सारे संसार के गुप्त कोश दिखाई देने लगेंगे ।
अगर तुमने इसे दाहिनी आँख में लगाया, तो तुम सदैव के लिए अपनी दोनों आँखों से अंधे हो जाओगे। मैंने कहा, “साईं जी ! आप तो इस मरहम के पूरे जानकार हैं। आप ही इसे मेरी आँख में लगा दें। "फ़कीर ने मेरी बाई आँख बंद की और थोड़ा-सा मरहम लेकर पलक के ऊपर लगा दिया। मरहम लगते ही वैसा ही हुआ, जैसा उस फ़कीर ने कहा था यानी दुनिया भर के गुप्त और भूमिगत धन-कोष मुझे दिखाई देने लगे। मैं लालच में अंधा तो हो ही रहा था। मैंने सोचा कि अभी और कई खजाने होंगे, जो नहीं दिखाई दे रहे हैं। मैंने दाहिनी आँख बंद की और फ़कीर से कहा, "इस पर भी मरहम लगा दो ताकि बाकी खजाने भी मुझे दिखने लगें।" फ़कीर ने कहा, "ऐसी बात न करो, अगर दाहिनी आँख में मरहम लगा, तो तुम हमेशा के लिए अंधे हो जाओगे।" 
मेरी अक्ल पर परदा पड़ा हुआ था । मैंने सोचा कि यह फ़कीर मुझे धोखा दे रहा है। यह भी संभव है कि दाहिनी आँख में मरहम लग जाने से मुझे उस फ़कीर की शक्तियों के रहस्य मालूम हो जाएँ। वह फ़कीर बार-बार कहता रहा कि यह मूर्खता भरी ज़िद छोड़ो और मरहम को दाईं आँख में लगवाने की बात न करो, किंतु मैं यही समझता रहा कि वह स्वार्थवश ही मेरी दाई आँख में मरहम नहीं लगा रहा है।" उसने मुझसे कहा, " भाई, तू क्यों ज़िद कर रहा है ? मैंने तेरा जितना लाभ कराया है, क्या उतनी ही हानि मेरे हाथ से उठाना चाहता है ? मैं एक बार भलाई करके अब तेरे साथ बुराई क्यों करूँ ?" किंतु मैंने कहा, "जैसे आपने अभी तक मेरी हर ज़िद पूरी की, वैसे ही आखिरी ज़िद भी पूरी कर दीजिए। अगर इससे मेरी कोई हानि होगी, तो उसकी जिम्मेदारी मुझ पर ही होगी, आप पर नहीं। "फ़कीर ने कहा, " अच्छा, तू अपनी बरबादी चाहता है, तो वही सही । यह कहकर उसने मेरी दाहिनी आँख की पलक पर भी उस मरहम को लगा दिया। मरहम लगते ही मैं बिल्कुल अंधा हो गया। मुझे अपार दुख हुआ। मुझे अपनी मूर्खता भी याद न रही। मैंने फ़कीर को भला-बुरा कहना शुरू किया और कहा, "अब यह सारा धन मेरे किस काम का ? तुम मुझे अच्छा कर दो और अपने हिस्से के चालीस ऊँट लेकर चले जाओ।" उसने कहा, " अब कुछ भी नहीं हो सकता, मैंने तुम्हें पहले ही चेतावनी दी थी।" मैंने उससे बहुत अनुनय-विनय की, तो वह बोला, “मैंने तो तुम्हारी भलाई का भरसक प्रयत्न किया था और तुम्हें हमेशा सत्परामर्श ही दिया था, किंतु तुमने मेरी बातों को कपटपूर्ण समझा और गलत बातों के लिए जिद की। अब जो कुछ हो गया है, वह मुझसे ठीक नहीं हो सकता। तुम्हारी दृष्टि कभी वापिस नहीं लौटेगी। "मैंने उससे गिड़गिड़ाकर कहा, " साई जी, मुझे अब कोई लालच नहीं रहा । आप शौक से धन-संपदा और मेरे सभी अस्सी ऊँट ले जाइए, सिर्फ मेरी आँखों की ज्योति वापस दिला दीजिए।" उसने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि सारे ऊँट और उन पर लदी हुई संपत्ति लेकर वह बसरा की ओर चल दिया। ऊँटों के चलने की आवाज सुनकर मैं चिल्लाया, "साई जी इतनी कृपा तो कीजिए कि इस जंगल में इसी दशा में न छोड़िए। अपने साथ मुझे भी ले चलिए। रास्ते में कोई व्यापारी बगदाद जाता हुआ मिलेगा, तो मैं उसके साथ हो लूँगा।" किंतु उसने मेरी बात न सुनी और चला गया। अब मैं अँधेरे में और भूख-प्यास से तड़पने लगा। इधर-उधर भटकने लगा। मुझे मार्ग का भी ज्ञान न था कि पैदल ही चल देता। अंत में थककर गिर गया। सौभाग्य से दूसरे ही दिन व्यापारियों का एक दल बसरा से बगदाद को जाते हुए उस मार्ग से निकला। वे लोग मेरी हालत पर तरस खाकर मुझे बगदाद ले आए। अब मेरे सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं रहा कि मैं भीख माँगकर पेट पालूँ। मुझे अपनी लालच और मूर्खता का इतना खेद हुआ कि मैंने कसम खा ली कि किसी से भीख नहीं लूँगा। उसकी दर्द भरी कहानी सुनकर खलीफ़ा ने कहा, “ तुम अपनी हालत के लिए खुद ज़िम्मेदार हो, अल्लाह तुम्हें माफ़ करे । अब तुम जाकर सारी भिक्षुक-मंडली को अपना वृत्तांत बताओ ताकि सभी को मालूम हो कि लालच का क्या फल होता है । अब तुम भीख माँगना छोड़ दो । मेरे खज़ाने से तुम्हें हर रोज़ पाँच रुपए मिला करेंगे और यह व्यवस्था तुम्हारे जीवनभर के लिए होगी। "बाबा अब्दुल्ला ने ज़मीन से सिर लगाकर कहा, "सरकार के आदेश का मैं खुशी से पालन करूँगा ।"



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