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कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Sunday, 29 June 2025

कहानी 'आप जीत सकते हैं'



'आप जीत सकते हैं

एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में एक डॉलर डाला, लेकिन कोई पेंसिल नहीं ली। फिर वह ट्रेन में चढ़ गया, लेकिन दरवाज़े बंद होने से ठीक पहले, कार्यकारी अधिकारी अचानक ट्रेन से बाहर निकला और भिखारी के पास वापस  गया। उसने पेंसिलों का एक गुच्छा पकड़ा, और कहा, "मैं कुछ पेंसिल लूँगा। उनकी कीमत सही है। आखिरकार, आप एक व्यवसायी व्यक्ति हैं और मैं भी," और वह वापस ट्रेन में चढ़ गया। छह महीने बाद, कार्यकारी अधिकारी एक पार्टी में गया। भिखारी भी वहाँ था, सूट और टाई पहने हुए। भिखारी ने कार्यकारी अधिकारी को पहचान लिया, उसके पास गया, और कहा, "आप शायद मुझे नहीं पहचानते, लेकिन मुझे याद है।" फिर उसने छह महीने पहले हुई घटना के बारे में बताया। कार्यकारी अधिकारी ने कहा, "अब जब आपने मुझे याद दिलाया है, तो मुझे याद है कि आप भीख माँग रहे थे। आप यहाँ सूट और टाई पहनकर क्या कर रहे हैं?" भिखारी ने जवाब दिया, "शायद आपको पता नहीं है कि आपने उस दिन मेरे लिए क्या किया। आप मेरे जीवन में पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने मुझे दान देने के बजाय, मेरी गरिमा वापस लौटाई, जब आपने पेंसिलों का एक गुच्छा पकड़ा और कहा, 'इनकी कीमत सही है। आखिरकार, आप एक व्यवसायी व्यक्ति हैं और मैं भी।' आपके जाने के बाद, मैंने खुद से सोचना शुरू किया-मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? मैं भीख क्यों माँग रहा हूँ? मैंने अपने जीवन के साथ कुछ रचनात्मक करने का फैसला किया। मैंने अपना बैग पैक किया, काम करना शुरू किया और यहाँ मैं हूँ। मैं बस आपको मेरी गरिमा वापस देने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ। उस घटना ने मेरी ज़िंदगी बदल दी।"

भिखारी के जीवन में क्या बदला ? जो बदला वह था उसका 'आत्म-रूपांतरण' था।

Saturday, 21 June 2025

भक्ति कथा : मणिदास पर भगवान जगन्नाथ की कृपा

 मणिदास पर भगवान जगन्नाथ की कृपा 

श्री जगन्नाथ पुरी धाम में मणिदास नाम के माली रहते थे। इनकी जन्म तिथि का ठीक ठीक पता नहीं है परंतु संत बताते है कि मणिदास जी का जन्म संवत् 1600 के लगभग जगन्नाथ पुरी में हुआ था। फूल-माला बेचकर जो कुछ मिलता था, उसमें से साधु-ब्राह्मणों की वे सेवा भी करते थे, दीन-दु:खियों को, भूखों को भी दान करते थे और अपने कुटुम्‍ब का काम भी चलाते थे। अक्षर-ज्ञान मणिदास ने नहीं पाया था; पर यह सच्‍ची शिक्षा उन्‍होंने ग्रहण कर ली थी कि दीन-दु:खी प्राणियों पर दया करनी चाहिये और दुष्‍कर्मो का त्‍याग करके भगवान का भजन करना चाहिये। संतो में इनका बहुत भाव था और नित्य मणिराम जी सत्संग में जाया करते थे।

मणिराम का एक छोटा सा खेत था जहां पर यह सुंदर फूल उगाता। मणिराम माली प्रेम से फूलों की माला बनाकर जगन्नाथ जी के मंदिर के सामने ले जाकर बेचनेे के लिए रखता। एक माला सबसे पहले भगवान को समर्पित करता और शेष मालाएं भगवान के दर्शनों के लिए आने वाले भक्तों को बेच देता। फूल मालाएं बेचकर जो कुछ धन आता उसमे साधू संत, गौ सेवा करता और बचे हुए धन से अपने परिवार का पालन पोषण करता था। कुछ समय बाद मणिदास के स्‍त्री-पुत्र एक भयंकर रोग की चपेट में आ गए और एक-एक करके सबका परलोक वास हो गया। जो संसार के विषयों में आसक्त, माया-मोह में लिपटे प्राणी हैं, वे सम्‍पत्ति तथा परिवार का नाश होने पर दु:खी होते हैं और भगवान को दोष देते हैं; किंतु मणिदास ने तो इसे भगवान की कृपा मानी।

उन्‍होंने सोचा- मेरे प्रभु कितने दयामय हैं कि उन्‍होंने मुझे सब ओर से बन्‍धन-मुक्त कर दिया। मेरा मन स्‍त्री-पुत्र को अपना मानकर उनके मोह में फँसा रहता था, श्री हरि ने कृपा करके मेरे कल्‍याण के लिये अपनी वस्‍तुएँ लौटा लीं। मैं मोह-मदिरा से मतवाला होकर अपने सच्‍चे कर्तव्‍य को भूला हुआ था। अब तो जीवन का प्रत्‍येक क्षण प्रभु के स्‍मरण में लगाउँगा। मणिदास अब साधु के वेश में अपना सारा जीवन भगवान के भजन में ही बिताने लगे। हाथों में करताल लेकर प्रात: काल ही स्‍नानादि करके वे श्री जगन्नाथ जी के सिंह द्वार पर आकर कीर्तन प्रारम्‍भ कर देते थे। कभी-कभी प्रेम में उन्‍मत्त होकर नाचने लगते थे। मन्दिर के द्वार खुलने पर भीतर जाकर श्री जगन्‍नाथ जी की मूर्ति के पास गरुड़-स्‍तम्‍भ के पीछे खड़े होकर देर तक अपलक दर्शन करते रहते और फिर साष्‍टांग प्रणाम करके कीर्तन करने लगते थे।

कीर्तन के समय मणिदास को शरीर की सुधि भूल जाती थी। कभी नृत्‍य करते, कभी खड़े रह जाते। कभी गाते, स्‍तुति करते या रोने लगते। कभी प्रणाम करते, कभी जय-जयकार करते और कभी भूमि में लोटने लगते थे। उनके शरीर में अश्रु, स्‍वेद, कम्‍प, रोमांच आदि आठों सात्त्विक भावों का उदय हो जाता था। उस समय श्री जगन्नाथ जी के मन्दिर में मण्‍डप के एक भाग में पुराण की कथा हुआ करती थी। कथावाचक जी विद्वान तो थे, पर भगवान की भक्ति उनमें नहीं थी। वे कथा में अपनी प्रतिभा से ऐसे-ऐसे भाव बतलाते थे कि श्रोता मुग्‍ध हो जाते थे। एक दिन कथा हो रही थी, पण्डित जी कोई अदभुत भाव बता रहे थे कि इतने में करताल बजाता ‘राम-कृष्‍ण-गोविन्‍द-हरि’ की उच्‍च ध्‍वनि करता मणिदास वहाँ आ पहुँचा। मणिदास तो जगन्नाथ जी के दर्शन करते ही बेसुध हो गया। 

मणिराम माली को पता नहीं कि कहाँ कौन बैठा है या क्‍या हो रहा है। वह तो उन्‍मत्त होकर नाम-ध्‍वनि करता हुआ नाचने लगा। कथा वाचक जी को उसका यह ढंग बहुत बुरा लगा। उन्‍होंने डाँटकर उसे हट जाने के लिये कहा, परंतु मणिदास तो अपनी धुन में था। उसके कान कुछ नहीं सुन रहे थे। कथा वाचक जी को क्रोध आ गया। कथा में विघ्‍न पड़ने से श्रोता भी उत्तेजित हो गये। मणिदास पर गालियों के साथ-साथ थप्‍पड़ पड़ने लगे। जब मणिदास को बाह्यज्ञान हुआ, तब वह भौंचक्‍का रह गया। सब बातें समझ में आने पर उसके मन में प्रणय कोप जागा। उसने सोचा- जब प्रभु के सामने ही उनकी कथा कहने तथा सुनने वाले मुझे मारते हैं, तब मैं वहाँ क्‍यों जाऊँ ? जो प्रेम करता है, उसी को रूठने का भी अधिकार है। मणिदास आज श्री जगन्नाथ जी से रूठकर भूखा-प्‍यासा पास ही के एक मठ में दिनभर पड़ा रहा। 

मंदिर में संध्या-आरती हुई, पट बंद हो गये, पर मणिदास आया नहीं। रात्रि को द्वार बंद हो गये। पुरी-नरेश ने उसी रात्रि में स्‍वप्‍न में श्री जगन्‍नाथ जी के दर्शन किये। प्रभु कह रहे थे- तू कैसा राजा है! मेरे मन्दिर में क्‍या होता है, तुझे इसकी खबर भी नहीं रहती। मेरा भक्त मणिदास नित्‍य मन्दिर में करताल बजाकर नृत्‍य किया करता है। तेरे कथावाचक ने उसे आज मारकर मन्दिर से निकाल दिया। उसका कीर्तन सुने बिना मुझे सब फीका जान पड़ता है। मेरा मणिदास आज मठ में भूखा-प्‍यासा पड़ा है। तू स्‍वयं जाकर उसे सन्‍तुष्‍ट कर। अब से उसके कीर्तन में कोई विघ्‍न नहीं होना चाहिये। कोई कथावाचक आज से मेरे मन्दिर में कथा नहीं करेगा। मेरा मन्दिर तो मेरे भक्तों के कीर्तन करने के लिये सुरक्षित रहेगा। कथा अब लक्ष्‍मी जी के मन्दिर में होगी। 

उधर मठ में पड़े मणिदास ने देखा कि सहसा कोटि-कोटि सूर्यों के समान शीतल प्रकाश चारों ओर फैल गया है। स्‍वयं जगन्‍नाथ जी प्रकट होकर उसके सिर पर हाथ रखकर कह रहे हैं- बेटा मणिदास! तू भूखा क्‍यों है। देख तेरे भूखे रहने से मैंने भी आज उपवास किया है। उठ, तू जल्‍दी भोजन तो कर ले! भगवान अन्‍तर्धान हो गए। मणिदास ने देखा कि महाप्रसाद का थाल सामने रखा है। उसका प्रणयरोष दूर हो गया। प्रसाद पाया उसने। उधर राजा की निद्रा टूटी। घोड़े पर सवार होकर वह स्‍वयं जाँच करने मन्दिर पहुँचा। पता लगाकर मठ में मणिदास के पास गया और प्रणाम् करके अपना स्वप्न सुनाया। 

राजा ने विनती करके कहा कि आप पुनः नित्य की भाँति भगवान को कीर्तन सुनाया करे। मणिदास में अभिमान तो था नहीं, वह राज़ी हो गया। राजा ने उसका सत्‍कार किया। करताल लेकर मणिदास स्‍तुति करता हुआ श्री जगन्‍नाथ जी के सम्‍मुख नृत्‍य करने लगा। उसी दिन से श्री जगन्‍नाथ-मन्दिर में कथा का बाँचना बन्‍द हो गया। कथा अब तक श्री जगन्‍नाथ जी के मन्दिर के नैर्ऋत्‍य कोण में स्थित श्री लक्ष्‍मी जी के मन्दिर में होती है। 

 मणिदास जीवन भर श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में कीर्तन करते रहे। अन्‍त मे श्री जगन्‍नाथ जी की सेवा के लिये लगभग 80 वर्ष की आयु में मणिदास जी भगवान् के दिव्‍य धाम पधारे। 

जय श्री राधे 🙏🌹
संकलित

Friday, 20 June 2025

कहानी 'जलपरी '

एक राजकुमार था। उसका नाम था तेजप्रताप । जैसा नाम वैसा काम । तेजप्रताप बहुत जिद्दी था। वह जिस किसी चीज को पाने की जिद्द कर लेता उसे हासिल कर के ही रहता था।

एक रात तेजप्रताप ने सपने में एक अत्यंत सुंदर जलपरी को देखा। उसकी सुंदरता देख कर तेजप्रताप उस पर मोहित हो गया। उसने जलपरी से शादी करने की मन में ठान ली।

अगले दिन राजकुमार तेजप्रताप ने अपने पिता से कहा, "पिता जी मैं जलपरी से शादी करूँगा।" इतना सुनना था कि उसके पिता ने कहा, "बेटा तेजप्रताप तू पागल हो गया है क्या?"

"जलपरी समुद्र के अंदर रहती है, वहाँ तुम कैसे जा पाओगे। समुंद्र के अंदर बड़े खतरनाक जानवर रहते हैं।
वह तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे।
तुम जलपरी से शादी करने की जिद्द छोड़ दो।" "नहीं पिता जी मैं जलपरी को अपनी रानी बना कर ही रहूँगा। वह जहाँ भी रहती होगी उसे वहाँ से ढूँढ़ कर लाऊँगा। मेरा यह आखिरी फैसला है।" इतना कह कर राजकुमार तेजप्रताप अपनी तलवार ले कर घोड़े पर बैठा और जलपरी से शादी करने के लिए चल दिया।

कई दिनों की कठिन यात्रा के बाद राजकुमार तेजप्रताप समुंद्र के पास जा पहुँचा।

वहाँ पहुँच कर राजकुमार तेजप्रताप ने समुंद्र देव से हाथ जोड़ कर कहा, "हे समुंद्र देव मैं आप की शरण में आया हूँ, आप हमारी मदद कीजिए । मैं इस समुंद्र के बीच रहने वाली जलपरी से शादी करना चाहता हूँ।" राजकुमार तेजप्रताप की बात सुनकर समुंद्र देव जल में प्रकट हो कर बोले, "राजकुमार मैं तुम्हारी हिम्मत देख कर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें एक नाव दे रहा हूँ। तुम इसमें बैठ कर जलपरी तक आसानी से पहुँच जाओगे। यह नाव तुम्हें जलपरी के महल तक पहुँचा देगी। रास्ते में तुम्हे बड़े-बड़े सर्प, मगरमच्छ, जहरीले जीव-जंतु राक्षस तथा खतरनाक दरियाई घोड़े मिलेंगे। तुम सबको मारते काटते आगे बढ़ते जाना। समुंद्र के बीच पहुँचते ही तुम्हें पानी पर तैरता हुआ एक सुंदर महल दिखाई देगा। महल के बाहर बड़े-बड़े दो राक्षस पहरा देते मिलेंगे। उन्हें तुम मार कर महल के अंदर घुस जाना। महल के अंदर जलपरी पलंग पर सोती मिलेगी। उसके पास पहुँच कर जैसे ही जलपरी को छुओगे तो जलपरी उठ कर बैठ जाएगी। और तुमसे एक सवाल पूछेगी। अगर तुम जलपरी के सवाल का जवाब दे दोगे तो जलपरी तुमसे शादी करने को तैयार हो जाएगी। अगर तुम उसके सवाल का जवाब नहीं दे सके तो जलपरी तुम्हें तोता बना कर अपने महल में हमेशा के लिए कैद कर लेगी।

"मैं तुम्हें यह सोने की अँगूठी दे रहा हूँ इसे तुम पहन लो इस अँगूठी के पहनने से जलपरी के सवाल का जवाब मालूम हो जाएगा।"

राजकुमार समुंद्र देव से इजाजत लेकर आगे की ओर नाव में बैठ कर चल दिया।

ठुमार तेजप्रताप बड़े-बड़े सर्पों, राजकुमार मगरमच्छों, जहरीले जीवों, राक्षसों तथा दरियाई घोड़ों को मारते काटते कई दिनों की यात्रा के बाद समुद्र के बीच समुद्र में तैरते जलपरी के महल के पास जा पहुँचा। महल के बाहर पहरा दे रहे दो राक्षसों को तलवार से मार कर महल के अंदर जा पहुँचा।
वहाँ जलपरी एक पलंग पर गहरी नींद में सोई हुई थी। राजकुमार तेजप्रताप ने जलपरी के पलंग के पास पहुँच कर जैसे ही उसके बदन को छुआ वैसे ही जलपरी नींद से जागकर पलंग पर बैठ गई।

जलपरी ने राजकुमार तेजप्रताप से पूछा, "तुम कौन हो और यहाँ किस लिए आए हो ?"

जलपरी की बात सुन राजकुमार तेजप्रताप बोला, "मेरा नाम राजकुमार तेजप्रताप है। मैं धर्मपुर के राजा चंदन सिंह का पुत्र हूँ। मैं यहाँ तुमसे शादी करने के लिए आया हूँ। इतनी बात सुनकर जलपरी बोली, "तुम बड़े हिम्मत वाले राजकुमार हो। मैं तुम्हें देख कर बहुत खुश हूँ। मैं तुमसे शादी करने को तैयार हूँ। मगर तुम्हें हमारे एक सवाल का जवाब देना होगा। अगर तुमने मेरे सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं तुमसे शादी कर लूँगी। अगर तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया तो मैं तुम्हें तोता बना कर इस पिंजड़े में हमेशा के लिए कैद कर लूँगी।"

जलपरी ने पूछा, "बताओ सुबह जो निकलता है, शाम को डूब जाता है, वह क्या है? समुंद्र देव की दी हुई अँगूठी ने राजकुमार तेजप्रताप के कान में धीरे से कहा, "कह दो सूरज है"। कुछ देर रुक कर राजकुमार तेजप्रताप ने कहा, "सूरज है।" इतना सुनते ही जलपरी हँस पड़ी और पलंग से नीचे उतर कर राजकुमार तेजप्रताप से लिपट कर बोली, "तुम्हारा उत्तर सही है, आज से मैं तुम्हारी पत्नी बन गई। मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे महल चलने को तैयार हूँ।"

राजकुमार तेजप्रताप ने अपनी जेब में रखा सिंदूर निकाला और जलपरी की माँग में भर कर जलपरी को अपनी रानी बना लिया। जलपरी ने तुरंत एक उड़न खटोला मँगवाया और उसमें राजकुमार तेजप्रताप के संग बैठ कर धर्मपुर राज्य की ओर उड़ चली।





Thursday, 19 June 2025

कहानी खुश रहने का राज'

किसी गाँव में एक ऋषि रहते थे। लोग उनके पास अपनी कठिनाइयाँ लेकर आते थे और ऋषि उनका मार्गदर्शन करते थे। एक दिन एक व्यक्ति, ऋषि के पास आया और उनसे पूछा, "गुरुदेव हमेशा खुश रहने का राज क्या है?" ऋषि ने उससे कहा कि तुम मेरे साथ जंगल मैं तुम्हें खुश रहने का राज बताता हूँ।

ऐसा कहकर ऋषि और वह व्यक्ति जंगल की तरफ चलने लगे। रास्ते में ऋषि ने एक बड़ा-सा पत्थर उठाया और उस व्यक्ति से कहा इसे लेकर चलो। उस व्यक्ति ने पत्थर को उठाया और वह ऋषि के साथ-साथ जंगल की तरफ चलने लगा।

कुछ समय बाद उस व्यक्ति के हाथ में दर्द होने लगा लेकिन वह चुप रहा और चलता रहा। लेकिन जब चलते हुए बहुत समय बीत गया और उस व्यक्ति से दर्द सहा नहीं गया तो उसने ऋषि से कहा कि उसे दर्द हो रहा है।



तो ऋषि ने कहा का राज' इस पत्थर को नीचे रख दो। पत्थर को नीचे रखने पर उस व्यक्ति को बड़ी राहत महसूस हुई।



तभी ऋषि ने कहा, "यही है खुश रहने का राज।" व्यक्ति ने कहा, "गुरुवर मैं समझा नहीं। ऋषि बोले जिस तरह इस पत्थर को एक मिनट तक हाथ में रखने पर थोड़ा-सा दर्द एक घंटे तक हाथ में रखें तो थोड़ा ज्यादा दर्द होता है और अगर इसे और ज़्यादा समय तक उठाए रखेंगे तो दर्द बढ़ता जाएगा, उसी तरह दुखों के बोझ को जितने ज्यादा समय तक उठाए रखेंगे, उतने ही ज़्यादा हम दुखी और निराश रहेंगे। यह हम पर निर्भर करता है कि हम दुखों के बोझ को एक मिनट तक उठाए रखते हैं या जिंदगी भर। अगर तुम खुश रहना चाहते हो तो दुख रूपी पत्थर को जल्दी से जल्दी नीचे रखना सीख लो और हो सके तो उसे उठाओ ही नहीं।


Wednesday, 18 June 2025

कहानी 'चंद्रगुप्त की विजय का रहस्य'

चंद्रगुप्त की विजय का रहस्य

ईसा से 305 वर्ष पूर्व भारत में सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का शासन था। चंद्रगुप्त भारत के महान शासकों में से एक थे। एक बार यूनान के सम्राट सेल्यूकस के साथ चंद्रगुप्त का युद्ध हुआ। युद्ध में सेल्यूकस बुरी तरह पराजित हुआ और उसे अपना गंधार प्रदेश दंडस्वरूप चंद्रगुप्त को देना पड़ा।

सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलेन का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य से करके उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। सेल्यूकस युद्ध में हुई अपनी पराजय के कारणों पर निरंतर विचार करता रहा, किंतु वह यह समझ नहीं पा रहा था कि उसकी विश्व-विजयी सेना को पराजय कैसे मिली?

एक दिन वह अपने चतुर कूटनीतिज्ञ मेगस्थनीज़ के साथ बैठा अपनी पराजय के कारणों पर विचार कर रहा था। उसने मेगस्थनीज़ से पूछा, "चंद्रगुप्त की विजय किसके कुशल नेतृत्व के कारण हुई है?"

सम्राट की बात का उत्तर देते हुए मेगस्थनीज़ ने कहा, "सम्राट चंद्रगुप्त की जो विजय हुई है, उसका कारण उनका कुशल नेतृत्व नहीं है। उनकी इस विजय के प्रेरणा स्त्रोत हैं-चंद्रगुप्त के गुरु, मार्गदर्शक और महान कूटनीतिज्ञ 'चाणक्य'।"

"चाणक्य ! यह नाम तो मैं बहुत पहले से सुन रहा हूँ। मैं उस महान कूटनीतिज्ञ के दर्शन करना चाहता हूँ। मैं उस महान व्यक्ति को निकट से देखना चाहता हूँ।" सेल्यूकस ने कहा।

मेगस्थनीज़ बोला, "सम्राट, इसमें क्या बाधा है! इस समय आप भारत सम्राट चंद्रगुप्त के सम्माननीय अतिथि हैं। हम आज ही चाणक्य के दर्शनों के लिए चलते हैं।"

सेल्यूकस मेगस्थनीज़ के साथ घोड़े पर बैठकर चाणक्य के दर्शनों के लिए चल पड़ा। सेल्यूकस सोच रहा था कि महान चाणक्य का भवन तो बड़ा भव्य होगा। उसकी रक्षा के लिए अनेक सैनिक तैनात होंगे। मन-ही-मन ऐसी कल्पना करता हुआ वह गंगा पार कर गया, लेकिन उसे कहीं भी भव्य महलों के दर्शन नहीं हुए। तभी उसने एक व्यक्ति से चाणक्य के घर का पता पूछा। उस व्यक्ति ने सामने एक साधारण से मकान की ओर संकेत कर दिया। सेल्यूकस को लगा कि वह व्यक्ति उससे मज़ाक कर रहा है।

सेल्यूकस ने पुनः पूछा, "मुझे प्रधानमंत्री चाणक्य का पता चाहिए, किसी अन्य चाणक्य का नहीं।" वह व्यक्ति बोला, "यह प्रधानमंत्री चाणक्य का ही निवास स्थान है।"

यह सुनते ही सेल्यूकस आश्चर्यचकित रह गया। इतना महान व्यक्ति जो देश का प्रधानमंत्री है, इतने साधारण घर में रहता है! सेल्यूकस उस मकान के द्वार पर पहुँचे तो एक ब्रह्मचारी ने उनका स्वागत किया और अंदर एक अँधेरी कोठरी में अपने गुरु के पास ले गया।

चाणक्य उस समय 'अर्थशास्त्र' लिखने में व्यस्त थे। उनके आगे एक दीपक जल रहा था और वे मृगचर्म पर बैठकर, भोजपत्र पर मयूर पंख से लिख रहे थे। ब्रह्मचारी ने जैसे ही आगंतुकों का परिचय कराया, वैसे ही चाणक्य ने अपने सामने जल रहे दीपक को बुझा दिया और दूसरा दीपक जला दिया।

सेल्यूकस यह देखकर हैरान रह गया। उसने चाणक्य से एक दीपक बुझाकर दूसरा दीपक जलाने का रहस्य पूछा। चाणक्य बोले, “पहले मैं राजकीय कार्य कर रहा था, इसलिए राजकीय सहायता से प्राप्त दीपक जला रहा था। अब मैं आपसे बातें करूँगा, इसलिए मैंने राजकीय दीपक बुझा दिया और अपना दीपक जला लिया।"

चाणक्य की बात सुनकर सेल्यूकस ने उनके चरण छू लिए। उन्हें चंद्रगुप्त की सफलता का रहस्य पता चल गया। मन-ही-मन चाणक्य को प्रणाम करते हुए सेल्यूकस मेगस्थनीज़ के साथ वापस लौट आए।

श्रेष्ठ पुरुषों का चरित्र सदैव अनुकरणीय होता है तथा वे सादा जीवन, उच्च विचार में विश्वास रखते हैं।


Thursday, 12 June 2025

कहानी 'अछूत व्यक्ति'

'अछूत व्यक्ति'

एक दिन गौतम बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एकदम शांत बैठे हुए थे। उन्हें इस प्रकार बैठे हुए देख उनके शिष्य चिंतित हुए कि कहीं वे अस्वस्थ तो नहीं हैं। एक शिष्य ने उनसे पूछा कि आज वह मौन क्यों बैठे हैं। क्या शिष्यों से कोई गलती हो गई है ? इसी बीच एक अन्य शिष्य ने पूछा कि क्या वह अस्वस्थ हैं? पर बुद्ध मौन रहे।

तभी कुछ दूर खड़ा व्यक्ति ज़ोर से चिल्लाया, "आज मुझे सभा में बैठने की अनुमति क्यों नहीं दी गई?" बुद्ध आँखें बंद करके ध्यानमग्न हो गए। वह व्यक्ति फिर से चिल्लाया, "मुझे प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं मिली ?" इसी बीच एक उदार शिष्य ने उसका पक्ष लेते हुए कहा कि उसे सभा में आने की अनुमति प्रदान की जाए। बुद्ध ने आँखें खोलीं और बोले, "नहीं वह अछूत है, उसे आज्ञा नहीं दी जा सकती।" यह सुन शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ।

बुद्ध उनके मन के भाव समझ गए और बोले, "हां, वह अछूत है।" इस पर कई शिष्य बोले कि हमारे धर्म में तो जात-पात का कोई भेद ही नहीं, फिर वह अछूत कैसे हो गया ? तब बुद्ध ने समझाया, "आज वह क्रोधित होकर आया है। क्रोध से जीवन की एकाग्रता भंग होती है। क्रोधी व्यक्ति प्रायः मानसिक हिंसा कर बैठता है। इसलिए वह जब तक क्रोध में रहता है तब तक अछूत होता है। इसलिए उसे कुछ समय एकांत में ही खड़े रहना चाहिए।" क्रोधित शिष्य भी बुद्ध की बातें सुन रहा था, पश्चाताप की अग्नि में तपकर वह समझ चुका था कि अहिंसा ही महान कर्त्तव्य व परम धर्म है। वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और कभी क्रोध न करने की शपथ ली।

आशय यह कि क्रोध के कारण व्यक्ति अनर्थ कर बैठता है, क्रोध में जल रहे व्यक्ति को पता नहीं होता कि वह क्या कर रहा है और पल भर के क्रोध के कारण वह गलत कदम उठा बैठता है और बाद में उसे पश्चाताप होता है कि उसने क्या कर दिया, इसलिए हमें कभी भी क्रोध नहीं करना चाहिए।

Sunday, 8 June 2025

वैज्ञानिक चेतना के वाहक 'चंद्रशेखर वेंकट रामन्

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन्
                      पाठ का सार

इस पाठ में लेखक ने महान् भारतीय वैज्ञानिक श्री चंद्रशेखर वेंकट रामन् के जीवन संघर्ष तथा उनकी असाधारण उपलब्धियों का बखूबी चित्रण किया है। सन् 1921 में एक समुद्री यात्रा के दौरान समुद्र की नीलवर्णीय आभा उनकी जिज्ञासा का कारण बनी। इन्होंने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और विश्व भर में विख्यात बन गए।

स्कूल और कॉलेज में उच्च अंक तथा स्वर्णपदक पाने वाले रामन् को मात्र अठारह वर्ष में भारत सरकार के वित्त-विभाग में नियुक्ति मिली। सन् 1930 में नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय वैज्ञानिक रामन् के मन में अपने देश के प्रति अथाह श्रद्धा थी। भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर तथा भारत में विज्ञान की उन्नति के अभिलाषी वेंकट रामन् के जीवन संघर्ष तथा एक प्रतिभावान छात्र से एक महान वैज्ञानिक तक की गाथा को लेखक ने प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।

7 नवंबर सन् 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नगर में जन्में श्री रामन् बचपन से ही वैज्ञानिक रहस्यों को सुलझाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। अपने कॉलेज के दिनों से ही इन्होंने शोधकार्यों में दिलचस्पी लेना प्रारंभ कर दिया था। उनका प्रथम शोधपत्र 'फिलॉसॉफिकल मैगजीन' में प्रकाशित हुआ था। बहू बाज़ार स्थित 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस' की प्रयोगशाला में अभावों के बावजूद वे भौतिक विज्ञान को समृद्ध बनाने की साधना करते रहे। इन्हीं दिनों रामन् वाद्य यंत्रों की ओर आकृष्ट हुए और विभिन्न देशी तथा विदेशी वाद्ययंत्रों पर शोध करके पश्चिमी देशों की इस भ्रांति को तोड़ा कि भारतीय वाद्य यंत्र विदेशी वाद्य यंत्रों की अपेक्षा घटिया हैं। इन्होंने अनेक ठोस रवेदार तथा तरल पदार्थों पर प्रकाश की किरणों का अध्ययन किया तथा 'रामन् प्रभाव' की खोज ने भौतिकी के क्षेत्र में एक क्रांति उत्पन्न कर दी। रामन् की खोज के परिणामस्वरूप अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सरल हो गया। रामन् प्रभाव की खोज ने इन्हें विश्व के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। सन् 1929 में रामन् को 'सर' की उपाधि प्रदान की गई। इन्हें विश्व के सर्वोच्च 'नोबेल पुरस्कार' तथा देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। रामन् वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की प्रतिमूर्ति थे। रामन् ने अपने बचपन में संसाधनों के अभाव को झेला इसीलिए उन्होंने बंगलौर में 'रामन् रिसर्च इंस्टीट्यूट' नामक शोध संस्थान की स्थापना की तथा 'इंडियन जनरल ऑफ फिजिक्स' नामक शोध-पत्रिका प्रारंभ की। आज हमें भी रामन् के जीवन से प्रेरणा लेने और प्रकृति में छिपे रहस्यों को अनावृत करने की आवश्यकता है।


Saturday, 7 June 2025

Important points Class 10 बड़े भाई साहब मुख्य बिंदु


समूची शिक्षा के तौर-तरीकों पर व्यंग्य किया गया है :
 (i) अंग्रेजी पढ़ना लिखना या बोलना आए या न आए, लेकिन उस पर अत्यधिक बल दिया जाता है। 
(ii) अपने देश के इतिहास के अतिरिक्त दूसरे देशों के इतिहास को जानकारी व्यर्थ में करवाना।
 (iii) रटत शिक्षा प्रणाली पर बल दिया जाता है। बच्चा समझे या न समझे, लेकिन उसे विषय को रहना ही पड़ता है। इस प्रकार विषय के प्रति रुचि समाप्त हो जाती है। (iv) अलजबरा व ज्योमेट्री ऐसे विषय है कि निरंतर अभ्यास करने पर भी गलत हो जाते हैं। 
(v) छोटे-छोटे विषयों पर लंबे-चौड़े निबंध लिखवाना जो बच्चों की रुचि के विपरीत होती है। अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसी शिक्षा प्रणाली का कोई लाभ नहीं जो बच्चों के लिए लाभदायक न होकर बोझ की तरह हो। 

बड़े भाई द्वारा छोटे भाई पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए अपनाई गई युक्तियाँ-
 (i) वह हमेशा छोटे भाई के खेलकूद और उसकी स्वच्छंदता पर नियंत्रण रखता है। 
(ii) वह भाई द्वारा न पढ़ने और खेलने में मन लगाने पर लंबे-लंबे भाषण देता है। उसे भयभीत करने का हर संभव प्रयास भी करता है; जैसे कठिन पढ़ाई, अपने फेल होने की बात, खेलकूद से दूर रहना आदि।
(iii) लेखक द्वारा मनमानी करने पर उसे घमंड न करने की सीख देता है। ऐतिहासिक उदाहरणों द्वारा, जैसे- रावण, शैतान, शाहेरुम जैसे बड़े-बड़े अभिमानियों की फजीहत के उदाहरण देता है।
(iv) वह आचरण की महिमा को महत्त्वपूर्ण बताकर लेखक को अपमानित करता है। 
(v) वह इतिहास, अलजबरा, निबंध लेखन की शिक्षा को व्यर्थ बताता है। 
(vi) वह किताबी शिक्षा की बजाय जीवन के अनुभव को अधिक काम की चीज बताता है। 

बड़े भाई साहब का चारित्रिक (चरित्र-चित्रण) विशेषताएँ : (i) अध्ययनशील व गंभीर प्रवृत्ति- बड़े भाई साहब स्वभाव से ही अध्ययनशील थे। वे हरदम किताबें खोले बैठे रहते थे। उनमें रटने की प्रवृत्ति थी। वे गंभीर प्रवृत्ति के हैं। वे अपने छोटे भाई के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते हैं। उनका गंभीर स्वभाव हो उन्हें विशष्टता प्रदान करता है। 
(ii) घोर परिश्रमी - भाई साहब भले ही पढ़ाई को ठीक प्रकार से नहीं समझ पाते थे लेकिन उन्होंने परिश्रम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ये एक ही कक्षा में तीन-तीन बार फेल होकर भी लगन से पढ़ते रहे। वे दिन-रात पढ़ते थे। उनकी तपस्या बड़े-बड़े तपस्वियों को भी मात करती है। 
(iii) वाक्पटु-बड़े भाई साहब वाक् कला में निपुण हैं। वे अपने छोटे भाई से ऐसे-ऐसे उदाहरण देकर बातें करते हैं कि वह उनके सामने नतमस्तक हो जाता है। उन्हें शब्दों को सुंदर ढंग से प्रस्तुत करना आता है। यही कारण है कि वे अपने छोटे भाई पर अपना पूरा दबदबा बनाए रखते हैं। (iv) संयमी व कर्तव्यपरायण - बड़े भाई साहब अत्यंत संयमी व कर्तव्यपरायण थे। उनका मन भी खेलने व पतंग उड़ाने का करता था; परंतु सोचते थे कि यदि व यह सब करेंगे तो अपने छोटे भाई को क्या सँभालेंगे। वे अपने कर्तव्य को भी बखूबी निभाते थे। जब उन्होंने देखा कि छोटे भाई को अपने अव्वल आने पर अभिमान हो गया है तो समय रहते उसे ऐसे आड़े हाथों लिया कि छोटे भाई का सिर श्रद्धा से झुक गया। 
(v) उपदेश देने की कला में निपुण - बड़े भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे। छोटे भाई को समझाने के लिए ऐसे-ऐसे सूक्ति- बाण चलाते थे कि उसका दिल पढ़ाई से उचाट हो जाता। 

अपने माता-पिता का उदाहरण : 
अपने माता-पिता का उदाहरण द्वारा छोटे भाई को समझाना कि जीवन में अनुभव पुस्तकीय ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण है। जीवन की समझ अनुभवों से आती है। हमारे बड़ों को हमसे अधिक जीवन की समय है। हम जिन परिस्थितियों में घबरा जाते हैं, बड़े-बुजुर्ग उन्हीं परिस्थितियों में समस्या का हल निकाल लेते हैं। उनके माता-पिता ने भले ही उनके जितनी किताबें न पड़ी हों, हाँ, लेकिन अपने अनुभव के आधार पर उन्हें दुनियादारी की असंख्य बातें पता है। 

बड़े भाई साहब की अंग्रेजी के बारे में नसीहत : 
अंग्रेजी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है। उसे पढ़ने के लिए रात-दिन आँखें फोड़नी पड़ती है और खून जाताना पड़ता है। ऐरागैराखेरा अग्रेजी नहीं पढ़ सकता। बड़े-बड़े विद्वान भी शुद्ध नहीं लिख पाते बोलना तो दूर अंग्रेजी पढ़ने-समझने के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता है। वे अपना उदाहरण भी देते थे कि उन्हें कितनी कठिनाई होती है अंग्रेज़ी पढ़ने में। 


बड़े भाई साहब पाठ से प्रेरणा : 
हमें अपनी स्थिति, शक्ति को समझना चाहिए उसी के अनुसार करना चाहिए। जो कार्य हम स्वयं नहीं करते, उसकी दूसरों से उम्मीद करना व्यर्थ है यदि हम खुद योग्य नहीं है, सफल नहीं है, तो हम किसी को उपदेश देने का अधिकार खो बैठते हैं। हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि परीक्षा के तनाव में सारा समय किताबों को पढ़ते रहने की अपेक्षा पढ़ाई सहज रूप से करें। पढ़ाई की रटने की बजाय उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए। अपनी समझ को विकसित करें क्योंकि खेल-कूद पढ़ाई में बाधक नहीं बल्कि सहायक होता है। 

बड़े भाई साहब द्वारा छोटे भाई की सफलता को बेकार सिद्ध करने के लिए दिए गए तर्क :
 बड़े भाई साहब छोटे भाई की सफलता को बेकार सिद्ध करने के लिए पहला तर्क यह देते हैं कि केवल किताबी ज्ञान व्यर्थ होता है। असली चीज़ है- बुद्धि का विकास। उनका दूसरा तर्क यह है कि सच्ची सफलता परिश्रम करने से ही प्राप्त होती है। लेखक की सफलता आकस्मिक है। एक बार संयोग से वह प्रथम आ गया है, किंतु हर बार ऐसा नहीं होगा। अन्य तर्क यह है कि जीवन में किताबों का नहीं अनुभव का महत्त्व होता है। उस मामले में यह अभी बहुत छोटा है। 

बड़े भाई साहब के अध्ययनशील स्वभाव पर व्यंग्य :
 इस टिप्पणी में गहरा व्यंग्य है। बड़े भाई साहब स्वभाव से बहुत अध्ययनशील जान पड़ते हैं। जब भी देखो वे हमेशा पढ़ने में लगे रहते हैं। यहाँ तक कि वे पढ़-पढ़कर अपना चेहरा कांतिहीन कर लेते हैं किंतु उनका अध्ययन एक नाटक था। वे समझते तो, कुछ नहीं थे। जब वे रटते-रटते बोर हो जाते थे, तब किताबों और कॉपियों के हाशियों पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचने लगते थे । 

बड़े भाई साहब का पतंग पकड़कर भागना:
  बड़े भाई साहब का पतंग पकड़कर भागना यह सिद्ध करता है कि उनके अंदर भी एक बच्चा छिपा हुआ है। उनमें भी खेलकूद और मौज-मस्ती करने की उमंग पैदा होती है। लेकिन उन्होंने उसे दबा रखा है। यदि वे पुस्तकों के बोझ को छाती से हटा लें, तो वे भी उल्लास और उत्साह से भरी जिंदगी जी सकते हैं। 

'अहंकार मनुष्य का विनाश करता है।’ - बड़े भाई के उदाहरण : 
अहंकार मनुष्य का विनाश कर देता है। अहंकार के कारण 'रावण' का भी नाश हो गया था। रावण भूमंडल का स्वामी था। वह एक चक्रवर्ती राजा था। संसार के सभी राजा उसके अधीन थे। वह अंग्रेज़ों से भी अधिक बलशाली व महान था, परंतु अहंकारी होने के कारण उसका विनाश हो गया। यहाँ तक कि 'आग' और 'पानी' के देवता भी रावण के दास थे, परंतु घमंड ने रावण का नामों-निशान तक मिटा दिया। रावण को मरते समय कोई उसे एक चुल्लू पानी देने वाला भी नहीं बचा। अभिमानी आदमी दीन-दुनिया दोनों से हाथ धो लेता है। बड़े भाई साहब ने शैतान का उदाहण भी दिया कि इसी 'अहंकार' के कारण ईश्वर ने शैतान को नरक में ढकेल दिया था। शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार किया था इसलिए वह भी भीख माँग- माँगकर मर गया। बड़े भाई साहब ने लेखक के परीक्षा में पास होने की तुलना अंधों के हाथ बटेर लगने से करते हुए कहा कि गुल्ली डंडे में भी कभी-कभी अंधा चोट निशाने पर लगा देता है, पर इससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं बन जाता। 

बड़े भाई साहब के अनुसार जीवन की समझ : 
कोबड़े भाई साहब के अनुसार जीवन की समझ अनुभव रूपी ज्ञान से आती है, जो कि जीवन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उनके अनुसार पुस्तकीय ज्ञान से हर कक्षा पास करके अगली कक्षा में प्रवेश मिलता है, लेकिन वे इस पुस्तकीय ज्ञान को अनुभव में उतारे बिना अधूरा मानते हैं। दुनिया को देखने, परखने तथा बुजुर्गों के जीवन से हमें अनुभव रूपी ज्ञान को प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि यह ज्ञान अनुभव पर आधारित होता है। हमारे बड़े-बुजुर्ग बेशक शिक्षित नहीं होते थे, परंतु वे अपने अनुभव से हर विपरीत परिस्थिति में भी समस्या का समाधान निकाल लेते थे। इसलिए उनके अनुसार अनुभव पढ़ाई से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है, जिससे जीवन को परखा और सँवारा जाता है तथा जीवन को समझने की समझ आती है। 

शैतान और शाहेरूम का अहंकार का उदाहरण :
 शैतान को यह अभिमान हुआ था कि ईश्वर का उससे बढ़कर सच्चा भक्त कोई है ही नहीं, तो उसे स्वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया। इसी प्रकार शाहेरूम को भी अहंकार हो गया था। बाद में वह भी भीख माँग- माँगकर मर गया अर्थात दोनों का ही अहंकार करने से नामो-निशान मिट गया। 

छोटे भाई के मन में बड़े भाई साहब के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होना : 
बड़े भाई साहब अक्सर अपने छोटे भाई को पढ़ाई में दिलचस्पी लेने के लिए कभी प्यार से, तो कभी डाँटकर समझाने का प्रयास करते रहते थे, लेकिन छोटा भाई खेल-कूद कर भी हर कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर लेता। इससे उसमें अभिमान-सा आ गया था। इस अभिमान को भाई साहब ने जिस युक्ति से दूर किया, उससे छोटे भाई के मन में उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। 

कहानी के अनुसार बड़े भाई साहब को प्राप्त विशेषाधिकार : 
'बड़े भाई साहब' कहानी में बड़े भाई लेखक से पाँच साल बड़े थे। इस नाते उन्हें अपने छोटे भाई को डाँटने-डपटने का पूरा अधिकार था। इतने पर भी यदि छोटा भाई (लेखक) बेराह चलने की कोशिश करेगा, तो वे थप्पड़ का प्रयोग करने से भी पीछे नहीं हटेंगे। उनके अनुसार बड़ा होने के कारण उनका यह विशेषाधिकार स्वयं विधाता भी उनसे नहीं छीन सकता। 

छोटा भाई अपने भाई से डरना: 
छोटा भाई अपने बड़े भाई की भाँति हर समय पढ़ने-लिखने में रुचि नहीं रखता था । वह प्रतिभाशाली तो था परंतु खेलकूद, सैर-सपाटे, दोस्तों के साथ गप्पें मारने जैसे कामों में उसे अधिक आनंद आता था। समय को व्यर्थ नष्ट करने पर बड़े भाई साहब उसे कड़ी डाँट लगाते थे तथा बात-बात पर उपदेश देते थे। हर समय बड़े भाई की फटकार और घुड़कियाँ सुनकर वह सहम-सा जाता था। अतः पढ़ाई के अतिरिक्त जब भी वह कोई अन्य कार्य करता तब वह डरता रहता कि कहीं भाईसाहब उसे डाँट न दें।

Class 10 साखी - कबीर मुख्य बिंदु

साखी - कबीर मुख्य बिंदु 

मीठी वाणी का महत्त्व : 
मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता प्राप्त होती है क्योंकि मीठी वाणी बोलने से मन का अहंकार समाप्त हो जाता है तथा मन प्रसन्न होता है और मन प्रसन्न रहने से तन भी शीतल रहता है। मीठी वाणी सुननेवालों को सुख तथा प्रसन्नता की अनुभूति कराती है इसलिए सदा दूसरों को सुख पहुँचाने वाली व अपने को भी शीतलता प्रदान करने वाली मीठी वाणी ही बोलनी चाहिए। 

संसार में सुखी व्यक्ति और दुखी व्यक्ति : 
संसार में सुखी वही व्यक्ति है, जिसने घट-घट और कण-कण में बसने वाले ईश्वर से प्रीति कर ली है, उसके तत्व ज्ञान को जान और मान लिया है। दुखी मनुष्य वह है, जो दिन में खाकर और रात में सोकर हीरे जैसे अनमोल जीवन को व्यर्थ गँवाकर भौतिक सुखों की चकाचौंध में खोया हुआ है। यहाँ जो व्यक्ति संसार के विषयों से अनासक्त होकर ईश्वर में मन को लगाए हुए है, वह 'जागना' (जागरूकता) का प्रतीक है और जो व्यक्ति विषय-विकारों में लिप्त है, भौतिक दृष्टि से उसकी आँखें बेशक खुली हुई हैं, पर वास्तव में वह सोया हुआ है, अर्थात 'सोना' (उदासीनता) का प्रतीक है। 

कबीर का निंदक को अपने निकट रहने रखने का परामर्श : 
संत कबीर ने हमें अपने दोहों के माध्यम से करणीय तथा अकरणीय की सीख दी है। उनका एक दोहा, हमें अपने स्वभाव को निर्मल करने का एक विचित्र उपाय बता रहा है। उसके अनुसार, हमें निंदक व्यक्ति को सदा अपने पास रखना चाहिए। जब-जब वह हमारी कमियाँ, हमारी बुराइयाँ हमारे सामने रखेगा, तब-तब हमें उन्हें दूर करने का या अपनी बुराइयों को अच्छाइयों में रूपांतरित करने का अवसर मिलेगा और इस प्रकार स्वतः हमारा स्वभाव निर्मल हो जाएगा। इस प्रकार, निंदा करने वाले व्यक्ति का साथ स्वभाव को निर्मल बनाने का एक सरल उपाय है। कबीर के अनुसार सच्चा ज्ञानी : केवल शास्त्र पढ़ने को कबीर ज्ञान नहीं मानते। शास्त्र विद्या कभी-कभी व्यक्ति को अहंकारी बना देती है। यह अहंकार हमारे अंदर अनेक विकारों को जन्म देता है। एक बार अंहकार मन में आ जाए तो सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता है जबकि एक प्रेम का भाव मन में पैदा होने से अन्य सभी विकार मिट जाते हैं और व्यक्ति सच्चा ज्ञानी बन जाता है। इस प्रकार कबीर सच्चा ज्ञानी उसे मानते हैं जिसके हृदय में प्रत्येक जड़-चेतन के लिए, संपूर्ण सृष्टि के लिए भरपूर प्रेम है। जिसके हृदय में किसी अन्य विकार के लिए कोई स्थान नहीं है वही सच्चा ज्ञानी है। 

मृग के उदाहरण द्वारा कबीर ने संदेश :
 मृग की नाभि में एक विशेष प्रकार की सुगंध समाई होती है। यह उस सुगंध से आकर्षित होता है और उस सुगंध की तलाश में इधर-उधर भटकता है। जीवन भर भटकाव के बावजूद भी वह समझ नहीं पाता कि यह सुगंध कहाँ से आ रही है क्योंकि वास्तव में उसका स्रोत कहीं बाहर नहीं उसी के शरीर में होता है। यही स्थिति हम सभी की है जो ईश्वर को पाना चाहते हैं किंतु उसकी तलाश, तीर्थ स्थानों और कर्मकांडों में करते हैं और उन्हीं में उलझकर जीवन गंवा देते हैं। यदि हमें एहसास हो जाए कि ईश्वर कण-कण में है, हमारे रोम-रोम में भी उसी का वास है, तो हमें उसके लिए भटकना नहीं होगा। हमें सर्वत्र, हर रूप में ईश्वर के दर्शन हो पाएँगे। 

कबीर के अनुसार ईश्वर को न देख सकने के कारण : संसार में दो तरह के लोग हैं। एक वे जो सांसारिक भोग विलास में लिप्त रहकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने में ही विश्वास रखते हैं। दूसरे वे जिन्हें ईश्वर से बिछड़ने का एहसास है और ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। कबीर ने लोगों को दो श्रेणियों में बाँटा है-सुखी और दुखी। कबीर खुद को दुखी लोगों की श्रेणी में रखते हैं क्योंकि वे भौतिक सुख साधनों में सुख नहीं ढूंढ पाते। उन्हें तो ईश्वर के विरह से पीड़ा होती है और वे ईश्वर को प्राप्त करना अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य मानते हैं और ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर निरंतर बढ़ना चाहते हैं।

 कबीर के अनुसार निंदक के साथ व्यवहार : 
जो व्यक्ति सबकी निंदा करता रहे, सब में बुराई ढूँढता रहे, वह निंदक कहलाता है। सामान्यतः ऐसे लोगों सब दूर रहना चाहते हैं। कोई उन्हें पसंद नहीं करता। किंतु कबीर का मानना है कि निंदक व्यक्ति का साथ हमारे स्वभाव को निर्मल बना सकता है। जितना हम निंदक के पास रहेंगे, उतना ही हमें अपनी कमियों को जानने का अवसर मिलता रहेगा और हम उन्हें दूर कर पाएँगे। अतः हमें निंदक को अपने से दूर नहीं बल्कि अपने करीब रखना चाहिए। वह किसी शुभचितक की तरह हमारी सहायता करता है, भले अप्रत्यक्ष रूप से ही। 

कबीर के दोहों का प्रतिपाद्य : 
कबीर, संत संप्रदाय के श्रेष्ठ कवियों में से एक है। उन्होंने अनुभवजन्य ज्ञान को दोहों में पिरोकर जीवंत बना दिया है। कबीर ने अपने जीवन में खूब भ्रमण किया, जिसके कारण उनकी भाषा में अनेक भाषाओं के शब्द शामिल हो गए हैं। जन-जन की भाषा को उन्होंने अपनाया और अपने स्वभाव को निर्मल बनाने का, ईश्वर प्राप्ति का, अहंकार रहित जीवन जीने का मार्ग सुझाया है। कबीर ने सदैव बाहरी आडंबर का विरोध करके मानव सेवा रूपी सच्ची भक्ति का ही समर्थन किया है। 

ईश्वर भक्ति से कबीर का अहंकार दूर होना : 
कबीर ने अपने जीवन में प्राप्त अनुभव के आधार पर, जो ज्ञान प्राप्त किया, उसे अपने दोहों के माध्यम से हम तक पहुँचाया। उसी अनुभव के आधार पर, उन्होंने सदा धर्म के नाम पर किए जाने वाले कर्मकांडों का विरोध किया तथा सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति और जनसेवा को ही सच्चा धर्म बताया। उनके अनुसार विकारों से मुक्त होना ही सच्चे भक्तों की पहचान है। जैसे-जैसे हम भक्ति में लीन होते जाते हैं, हमारा अहंकार दूर होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो स्पष्ट है कि हम भक्ति के उचित मार्ग पर नहीं चल रहे हैं। संत कबीर ने अहंकार से मुक्त होकर प्रेम भाव की उत्पत्ति को ही सच्चे ज्ञान की परिभाषा माना है। कबीर का हृदय अहंकार शून्य था तथा प्रेम से भरपूर था। यही उनके ईश्वर भक्त होने की पहचान है। 

अपने अंदर का दीपक दिखाई देने पर अँधियारा मिट जाना : 
प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में, रोम-रोम में ईश्वर का, परम आनंद का वास होता है। किंतु भौतिक संसार में लिप्त होकर हम इस अनुभूति से दूर होते चले जाते हैं। परिणामस्वरूप हमारे हृदय में ज्ञान का दीपक बुझ जाता है और अज्ञान का अंधकार छाया रहता है। यदि हम ज्ञान के मार्ग पर चल पड़े और सच्चे हृदय से भक्ति करें तो धीरे-धीरे अहंकार, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या आदि विकारों से मुक्त होते जाते हैं और प्रेम का भाव हमारे हृदय में विस्तार लेने लगता है। ज्ञान रूपी दीपक जब हृदय में प्रज्ज्वलित हो जाता है तब अज्ञान का अंधकार मिट जाता है। प्रत्येक जड़-चेतन के प्रति समान रूप से प्रेम पैदा हो जाता है। वास्तव में संपूर्ण संसार एक समान पाँच तत्वों से मिलकर बना है, किसी में कोई भेद नहीं है। यह भेद हमें तभी तक दृष्टिगत होता है, जब तक हम अज्ञान में होते हैं। ज्ञान का दीपक जल जाने पर हर ओर केवल उस, एक ही तत्व, परमसत्ता, ईश्वर के दर्शन होने लगते हैं। 

कबीर की साखियाँ / दोहे आज भी प्रासंगिक हैं : 
कबीर की साखियाँ / दोहे हमेशा की तरह आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं क्योंकि साखियों में कहीं भी पुस्तकीय ज्ञान नहीं है। कबीर ने जगह-जगह घूमकर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया था तथा उनके अनुभव का क्षेत्र बड़ा विस्तृत था। इसलिए अनुभव के आधार पर होने के कारण ये साखियाँ आज भी प्रासंगिक हैं और भविष्य में भी रहेंगी। 


साखी के आधार पर कबीर द्वारा बताए गए जीवनमूल्य: कबीर की प्रत्येक साखी मानव जीवन को जीवन-मूल्यों से प्रेरित करती है। उनमें से एक, जैसे वाणी की मधुरता का महत्त्व कबीर प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक मानते हैं। वाणी की मधुरता से सोच-समझ कर बोली गई वाणी से तथा दूसरों को सुख पहुँचाने वाली वाणी से मनुष्य संसार में किसी को भी अपना प्रिय बना सकता है।

कथा सागर कहानी वफादार कुत्ता

वफादार कुत्ता 

अमीर महाजन था। दयावान था। सुबह सैर पर जाते हुए एक छोटा-सा भटका हुआ पिल्ला मिल गया। महाजन को उसे देखकर दया आ गई। घर ले आया। उसकी बच्चों की तरह देखभाल करने लगा। पिल्ला भी घर की निगरानी करता और बच्चों से खेलता-कूदता।


महाजन बीमार पड़ गया। पिल्ला अब कुछ बड़ा था। पास बैठा रहता। आँखों में उसके दर्द झलकता था। रात्रि को महाजन बीमारी के कारण कहराने लगा। पिल्ला बार-बार देखता, प्यार करता। सारी रात देखता रहा। दूसरे दिन महाजन की मृत्यु हो गई। पिल्ला एक कोने में आंखों में आँसू लिए बैठा रहा। पार्थिव शरीर को श्मशानघाट ले गए। अग्रि देनी थी। आखिरी बार कुत्ते ने पैरों को चूमा। सामने बैठ गया। अग्नि शरीर को दी गई। सामने कुत्ता शांत था। परिवार के सदस्यों की नज़र पड़ी। देखा वह कुत्ता हमेशा के लिए शांत था। सब लोग हैरान रह गए कि एक जानवर ऐसा वफादार हो सकता है। कुत्ते को भी वहीं पर दफना दिया गया। वह भी एक परिवार का हिस्सा था।

सब लोग सोच में थे कि कुत्ता इंसान से अधिक वफादार जानवर है। दर्द महसूस करता है। काश! इंसान भी जानवरों से कुछ सीख ले।

Thursday, 10 April 2025

समर्पण कविता व्याख्या

पाठ में संकलित 'समर्पण' कविता कवि रामावतार त्यागी द्वारा रची गई है। इसमें कवि ने मातृभमि के प्रति भक्ति व प्रेम का भाव प्रकट कर अपना सब कुछ न्योछावर करने का संकल्प प्रकट किया है। यह कविता देश-प्रेम पर आधारित है। 

सप्रसंग व्याख्या

(1) मन समर्पित -------------------------और भी हूँ।

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक 'सुनहरी धूप' के पाठ-1 'प्रियतम' नामक कविता से ली गई हैं। इस कविता के रचियता  'श्रीरामावतार त्यागी जी'  हैं। इस कविता में  मातृभूमि के लिए देशप्रेम, समर्पण व त्याग का भाव व्यक्त किया गया है।

व्याख्या-कवि कहते हैं कि मेरे देश की धरती के लिए मेरा मन समर्पित है और मेरा शरीर भी इसके लिए समर्पित है। कवि देश की धरती अर्थात् मातृभूमि के लिए कुछ और भी बहुत कुछ देना चाहते हैं। वे धरती माँ से कहते हैं कि हे मातृभूमि! तुझे मैं सब कुछ भेंट करना चाहता हूँ।

(2) माँ तुम्हारा ऋण-----------------------------------और भी दें।

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक 'सुनहरी धूप' के पाठ-1 'प्रियतम' नामक कविता से ली गई हैं। इस कविता के रचियता  'श्रीरामावतार त्यागी जी'  हैं। इन पंक्तियों में कवि ने स्वदेश के प्रति अपने प्रेम को प्रकट किया है। अपना सर्वस्व देश के लिए भेंट करने का निवेदन कर रहे हैं।

व्याख्या-कवि के हृदय में स्वदेश प्रेम का महासागर हिलोरे ले रहा है।  वह अपने तन, मन, प्राण और रक्त की एक-एक बूँद देश को समर्पित करना चाहते हैं। कवि कहते हैं कि हमारी धरती माँ का हम पर बहुत बड़ा उपकार है। इस धरती ने हमें बहुत कुछ दिया है और हम अपना सब  कुछ देकर भी इस माँ का ऋण नहीं चुका सकते हैं। कवि धरती माँ से यह प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि माँ!  तुम्हारा बहुत ऋण है, परंतु  मैं एकदम गरीब हूँ अर्थात् तुम्हारा ऋण चुकाने में असमर्थ हूँ। किंतु मैं फिर भी इतना निवेदन कर रहा हूँ कि जब भी मैं थाल में अपना सिर सजा कर लाऊँ, तो तब तुम मेरी वह भेंट दया करके स्वीकार कर लेना। अर्थात् मैं देश के लिए अपना बलिदान करूँ तो उसे मना मत करना। कवि कहते हैं कि मेरा मन भी और प्राण भी तुम्हें समर्पित हैं, मेरे रक्त का एक-एक कण भी तुम्हें समर्पित है। हे देश की धरती, मैं इससे भी अधिक और कुछ भी तुम्हें भेंट करना चाहता हूँ।

भाव - कवि अपने देश की रक्षा करते हुए बलिदान देना चाहते हैं। 

(3) माँज दो तलवार और भी दूँ।
व्याख्या - इन पंक्तियों में कवि ने देश की रक्षा के लिए युद्ध भूमि में जाने की इच्छा प्रकट की है। कवि कहते हैं कि वे अपने दाएँ हाथ में तेज़ धार वाली तलवार लेकर और कमर पर ढाल बाँधकर मातृभूमि की रक्षा करना चाहते हैं। कवि को यह विश्वास है कि धरती माँ का  पूरा आशीर्वाद उनके सर पर है। वे अपने सभी सपने, अपनी जिज्ञासा और आयु का एक-एक पल धरती माँ को भेंट करना चाहते हैं। 

भाव - कवि मातृभूमि के लिए अपना जीवन न्योछावर करना चाहते हैं। 

तोड़ता हूँ -------------------------------------------------और भी दूँ। 
व्याख्या - इन पंक्तियों में कवि अपने परिवार, गाँव और रिश्तेदारों से क्षमा माँग रहे हैं। वे सबसे नाता तोड़कर देश के लिए शहीद होने जा रहे हैं।  वे अपने दाएँ हाथ में तलवार और बाएँ  हाथ में देश का झंडा लेकर देश की रक्षा के लिए बलिदान देने जा रहे हैं। वे अपने बगीचे के सभी फूल और घर की एक-एक ईंट व घर से जुड़ी हर वस्तु धरती माँ को भेंट करना चाहते हैं। 

भाव - कवि अपने जीवन से जुड़ी हर वस्तु चढ़ाने के बाद भी संतुष्ट नहीं हैं। वे धरती माँ के लिए कुछ और भी देना चाहते हैं। 




प्रश्न-उत्तर 


प्रश्न - 'समर्पण' कविता के माध्यम से कवि क्या कहना चाहते हैं ?

उत्तर - इस कविता के माध्यम से कवि यह कहना चाहते हैं कि अपनी मातृभूमि के प्रति हर व्यक्ति के मन में समर्पण, त्याग और श्रद्धा की भावना होनी चाहिए।


प्रश्न - कवि अपने समर्पण से संतुष्ट क्यों नहीं हैं ?

उत्तर - कवि अपने समर्पण से संतुष्ट नहीं है, क्योंकि देश की धरती का ऋण बहुत बड़ा है और उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि देश के लिए तन, मन और जीवन के अतिरिक्त कुछ और भी समर्पित करना चाहिए।


प्रश्न - कवि थाल में सजाकर देश की धरती को क्या भेंट करना चाहते हैं ?

उत्तर - कवि अपने शीश को थाल में सजाकर अपने देश की धरती को भेंट करना चाहते हैं। कवि स्वयं पर मातृभूमि का  ऋण मानते हैं अतः वे अपना सर्वस्व देश हेतु समर्पित करना चाहते हैं।



प्रश्न - कवि अपने गाँव और अपने घर से मोह का बंधन क्यों तोड़ना चाहते हैं ?

उत्तर - कवि अपने गाँव और अपने घर से मोह का बंधन तोड़ना चाहते हैं, क्योंकि वे देश के सच्चे सपूत हैं और वे अपने देश की रक्षा के लिए स्वयं को समर्पित करना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई भी मोहपाश उन्हें बंधन में जकड़ सके अतः वे मुक्त होकर देश को सर्वस्व अर्पित करना चाहते हैं।


प्रश्न - 'नीड़ का तृण-तृण समर्पित' कहकर कवि ने किस ओर संकेत किया है ?

उत्तर -  'नीड़ का तृण-तृण समर्पित' कहकर कवि ने अपने देश के रक्षा के लिए अपने घोंसले अर्थात घर के तिनके-तिनके को भी समर्पित करने की ओर संकेत किया है। कवि ने स्पष्ट किया है कि मातृभूमि की रक्षा के लिए घर, परिवार, समाज और स्वयं को हँसते-हँसते समर्पित कर देना चाहिए।


प्रश्न - कवि के समर्पण की भावना को अपने शब्दों में लिखिए। 

उत्तर - कवि ने अपने देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देना चाहते हैं, क्योंकि उनके अंदर देशभक्ति की सच्ची भावना है अर्थात वे अपने देश के सच्चे सपूत हैं तथा अपने को शरीर अर्पित कर देना चाहते हैं। वे अपने आप को धरती माँ का कर्ज़दार समझते हैं जिसका कर्ज़  वे अपना बलिदान देकर भी नहीं चूका सकते हैं। उनके समर्पण की भावना अनमोल है क्योंकि वे अपने तन, मन, धन और जीवन को मातृभूमि पर सहर्ष न्योछावर करने को तत्पर हैं।