HINDI BLOG : साखी...भावार्थ ...SAKHI ......CLASS 10 NCERT SOLUTIONS

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Thursday, 22 April 2021

साखी...भावार्थ ...SAKHI ......CLASS 10 NCERT SOLUTIONS

कबीर ......कवि-परिचय:

-कबीर का जन्म 1398 ई में काशी में हुआ था । 
-इन्होंने अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए तथा 1518 ई में वहीं पर उनका निधन हो गया । -कबीरदास भक्तिकाल की निर्गुणधारा की ज्ञानमार्गी सर्वश्रेष्ठ कवि थे ।
 -इनके गुरु रामानंद थे । 
-कबीर क्रांतिदर्शी कवि थे, इसलिए इन्होंने शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्त्व दिया ।
 -इनकी भाषा 'पंचमेल खिचड़ी' थी तथा इनकी भाषा को 'सधुककड़ी' भी कहा जाता है। 
-इन्होंने धार्मिक बाह्याडंबरों पर तीखा प्रहार करते हुए निराकार, निर्विकार, अरूप एकेश्वरवाद पर बल दिया। 
रचनाएँ - 'साखी', 'सबद' और  'रमैनी। 

साखियों की व्याख्या 

1.   ऐसी बाँणी --------------- सुख होइ।।

भावार्थ : प्रस्तुत साखी में  कबीर दास मीठी वाणी का महत्त्व बताते हुए कहते हैं कि 
-जब तक व्यक्ति के मन में 'मैं-मेरा' अर्थात अहंकार का भाव विद्यमान रहता है, तब तक वह द्वेष, अहंकार और घृणा की वाणी बोलता है। 
- किंतु मन में ईश्वर भक्ति का भाव आने पर प्रेम, स्नेह और करुणा की वाणी फूटती है जिससे बोलनेवाला और सुननेवाला दोनों ही सुख- शांति प्राप्त करते हैं। 
-कवि के कहने का अर्थ है कि हमें अपने अहंकार को समाप्त करके मधुर एवं विनम्र वचन  का प्रयोग करना चाहिए। 
- हमें अपने घमंड को भूलकर लोगों के प्रति प्रेम का व्यवहार करना चाहिए। 
-यदि हम दूसरों से अच्छे से बात करते हैं तो दूसरों को तो प्रसन्नता होती है, साथ-ही-साथ संतोष व सुख हमारे हृदय को भी पहुँचता है। 
-वाणी या बोली की मधुरता  सभी को आनंद प्रदान करती है। 

 शिल्प-सौंदर्य /विशेष :  
(i) 'सधुक्कडी' भाषा का प्रयोग है।
(ii) भाषा सरल,सुबोध किंतु अर्थपूर्ण है। 
 (iii) मीठी वाणी का महत्त्व दर्शाया गया है।
 (iv) दोहा छंद का प्रयोग हुआ है।
 (v) उपदेशात्मक शैली अपनाई गई है।
 (vi) 'बाँणी बोलिये' में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है। 
 

2.    कस्तूरी कुंड़लि------------------ नाँहि।।

भावार्थ :प्रस्तुत साखी में  कबीर दास जी मृग अर्थात हिरण का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि 
-जिस प्रकार मृग अपनी नाभि में कस्तूरी अर्थात सुगंधित पदार्थ के उपस्थित होने के बावजूद खुशबू आने पर उसे सारे वन में मूर्खों की भाँति ढूँढ़ता रहता है।   
-ठीक उसी प्रकार हम मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण ईश्वर को मंदिर-मस्जिदों में ढूँढ़ते  फिरते हैं, जबकि वह प्रत्येक मनुष्य के अंतःकरण में, हृदय में वास करते हैं।
- ईश्वर को इधर-उधर ढूँढ़ना व्यर्थ है, वह हमारे भीतर ही मौजूद हैं। 
-कबीर दास जी ईश्वर का महत्त्व समझाते हुए कहते हैं कि मनुष्य के घट यानी शरीर में ही परमात्मा का वास है अर्थात शक्ति का स्रोत हमारी भीतर ही मौजूद है, पर हमें इसका ज्ञान नहीं है। 
-हम उसे बाहर कर्मकांड आदि में ढूँढ़ते हैं।-
-अपने भीतर ईश्वर को ढूँढ़ने का यत्न भी नहीं करते। यही भ्रम है, यही हमारी भूल है।
 -मृग जैसी दशा हमारी भी है। ईश्वर हमारे अंदर ही विद्यमान हैं, लेकिन हमें इसका बोध ही नहीं और हम मृग की भाँति दर-दर भटकते हैं। 
 
शिल्प-सौंदर्य /विशेष :    
(i) ढोंग और आडंबर पर करारी चोट है।
(ii) 'सधुक्कडी' भाषा का प्रयोग है।
(iii) भाषा भावानुकूल, सहज, सुबोध  एवं सटीक है। 
(iv) दोहा छंद का प्रयोग हुआ है। 
(v) उपदेशात्मक शैली अपनाई गई है।
(vi) ''कस्तूरी कुंड़लि और 'दुनिया देखै' में अनुप्रास अलंकार तथा 'घटि-घटि' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग है।
 


3.     जब मैं था तब----------------------- देख्या माँहि।।

भावार्थ : कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मैं -अर्थात अहंकार का था मन में था तब तक ईश्वर का वास वहाँ नहीं था। 
-केवल मन में अज्ञान रूपी अंधकार ही समाया हुआ था। जब ज्ञान रूपी दीपक में स्वयं के स्वरूप को पहचाना तब मन में छाया अंधकार दूर हो गया। 
- मन निर्मल हो ईश्वर से अभिन्नता  का अनुभव करने लगा। 
-कबीर जी के कहने का तात्पर्य यह है कि जब उनमें अहंकार और घमंड था तब उन्हें ईश्वर की प्राप्ति कभी नहीं हुई, 
-किंतु जब से ईश्वर पर विश्वास यानी ईश्वर का वास उनके हृदय में हुआ है, तब से अहंकार का पूर्ण विनाश हो गया है।
-अतः जब उन्हें ज्ञान रूपी दीपक प्राप्त हुआ, तब से अज्ञानता का अंधकार मिट गया तथा उन्हें सच्चे सुख की प्राप्ति हुई। 

 शिल्प-सौंदर्य /विशेष :  
 (i) 'सधुक्कडी'  भाषा का प्रयोग है। 
 (ii) भाषा भावानुकूल, सहज, सुबोध एवं सटीक है।
(iii) उपदेशात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।  
(iv) 'दीपक देख्या' में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है। 



4.    सुखिया सब ----------------------------------रोवै।।

भावार्थ:प्रस्तुत साखी में स्वार्थी और परमार्थी की दशा के अंतर को दर्शाते हुए कबीर जी कहते हैं 
-कि सांसारिक भोगों में लगे लोग अपने अलावा किसी की चिंता नहीं करते। 
वह तो केवल खाते हैं और निश्चिंत होकर सोते हैं और सुखपूर्वक अपना जीवन बिताते हैं।
 दुखी तो कबीरदास जैसे चिंतक होते हैं, जो केवल अपने ही नहीं बल्कि समाज कल्याण की चिंता करते हैं। 
वे केवल  प्रभु के वियोग में व्याकुल रहते हैं और जब जागते हैं तो संसार की दशा देखकर रोते  हैं 
अर्थात औरों के सुख और भलाई के विषय में ही सोचते रहते हैं। 
कबीर दास जी सांसारिक विषयों में लिप्त लोगों पर व्यंग्य  करते हुए कहते हैं कि उन्हें विषयों से फुर्सत कहाँ ?
 वे हरि विरह को क्या जाने ? उन्हें अपने इष्ट के लिए कोई तड़प नहीं। 
सत्य है कि इस प्राप्ति के लिए कष्ट उठाना पड़ता है। 
कवि संस्कार को विषय-वासनाओं में लीन और ईश्वर भक्ति से हीन  देखकर दुख का अनुभव कर रहे हैं। 
कबीर उन्हें अज्ञानी मनाते हैं जो केवल सांसारिक सुखों में लिप्त होकर चैन की नींद सोते हैं। 

शिल्प-सौंदर्य /विशेष :  
 (i) 'सधुक्कडी' भाषा का प्रयोग है। 
(ii) भाषा भावानुकूल, सहज, सुबोध एवं सटीक है। 
(iii) उपदेशात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।  
(iv) 'सुखिया सब' और 'दुखिया दास' में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
 

5.     बिरह ------------------ बौरा होइ।।

भावार्थ :  कबीर दास जी प्रभु जी योगी की मनोदशा का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि
- जब किसी को भी वियोग दंश सताता है, तब उसकी वैसी ही दशा होती है जैसे साँप के काट लेने पर होती है। 
उस दशा में कोई मंत्र अर्थात उपाय असर नहीं करता है।  
परमात्मा के वियोग में व्यक्ति जीवित ही नहीं रह पाता और यदि वह जीवित रहता भी है तो उसकी दशा पागलों जैसी होती है अर्थात वह सामान्य जीवन नहीं जी पाता।
 कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर के विरह की व्यथा बड़ी मार्मिक होती है, जिसमें जीवित रहना बहुत कठिन है।  कवि के अनुसार विरह-व्यथा विष से भी अधिक मारक है, दारुण है। 
इस व्यथा का वर्णन शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह केवल अनुभूति का विषय है।
यहाँ सर्प और विष का उदाहरण देते हुए राम वियोगी जी की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है। 
कबीर के अनुसार विरह सर्प की भाँति है।  
इस विरह रूपी सर्प का विष जब तन में व्याप्त हो जाता है तब कोई भी मंत्र (झाड़-फूँक) इस विष से इंसान को नहीं बचा सकता है। 
राम का वियोगी विरह-व्यथा से जीता नहीं, अगर जीता है तो बावला हो जाता है, पागल हो जाता है।
 
शिल्प-सौंदर्य /विशेष :  
 (i) 'सधुक्कडी' भाषा का प्रयोग है। 
(ii) भाषा भावानुकूल, सहज, सुबोध एवं सटीक है।
(iii) उपदेशात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।  


6.     निंदक नेड़ा ----------------------- करै सुभाइ।।

भावार्थ :  प्रस्तुत साखी में कबीर दास जी ने निंदक की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि 
-निंदा करने वाले को सदा अपने आँगन में कुटिया बनाकर रखना चाहिए अर्थात अपने निकट रखना चाहिए क्योंकि वही हमारे दोषों को उजागर करता है। 
वह हमारी आचरणगत त्रुटियों को अपने स्वभाव एवं व्यवहार से दूर करने के लिए प्रेरित करता है।  
इस प्रकार बिना की साबुन और पानी के हमारे चित्त में बसी बुराइयाँ धुल  जाती हैं अर्थात हमारा स्वभाव निर्मल और शुद्ध हो जाता है। 
कबीरदास जी कहते हैं कि उपेक्षा न करके उसे आदर सहित अपने आँगन में कुटी बनाकर अपने निकट स्थान देना चाहिए। 
उसके व्यंग्य बाणों से विचलित नहीं होना चाहिए।
उससे लाभ यह होगा कि उसके द्वारा दिखाए गए दोषों को हम खोजकर समाप्त कर सकेंगे जिससे हमारा हृदय निर्मल होगा। 
ठीक उसी प्रकार जैसे वस्त्र को साफ करने के लिए साबुन और पानी की आवश्यकता होती है वैसे ही इनकी समालोचना हमारे स्वभाव की निर्मलता के लिए साबुन और पानी का कार्य करेगी। 

शिल्प-सौंदर्य /विशेष :  
(i) सर्प और विष का उदाहरण विरह-पीड़ा के लिए बहुत सटीक है।
(ii) साखी अनेकार्थ शब्दों का प्रयोग है। 
(iii) 'सधुक्कडी' भाषा का प्रयोग है। 
(iv) भाषा भावानुकूल, सहज, सुबोध एवं सटीक है।
(v) उपदेशात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।   



7.      पोथी पढ़ि ------------------- पंडित होइ।।

भावार्थ : कबीर दास जी का प्रेम का महत्त्व बताते हुए कह रहे हैं कि 
-चाहे कोई भी व्यक्ति कितनी भी बड़ी-बड़ी ज्ञान से भरी पुस्तकें पढ़ ले, किंतु वह ज्ञानी नहीं हो सकता है।  
यदि वह पूर्ण लग्न से ईश्वर प्रेम का एक अक्षर भी पढ़ ले तो वह अपने लक्ष्य अर्थात सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर लेगा अर्थात सच्ची लग्न से किया जाने वाला एकमात्र साधन है, जिससे हम सभी का दिल भी जीत सकते हैं व सभी चुनौतियों का सामना भी कर सकते हैं। 
कबीर प्रेम मार्ग की श्रेष्ठता पर बल देते हुए कहते हैं कि शास्त्र पढ़-पढ़कर सारा संसार नष्ट होता जा रहा है।
 युग बीतते चले जा रहे हैं लेकिन कौन सच्चे अर्थों में पंडित या विद्वान बन पाया ? 
किसने वह अलौकिक आनंद प्राप्त किया, जो प्रेम से मिलता है। 
कबीर की दृष्टि से जिसने राम के दो अक्षरों को जान लिया है, वही विद्वान है, पंडित है।
 प्रेम ह्रदय का भाव है, पढ़ना मस्तिष्क का। पढ़ाई साधक भी हो सकती है और बाधक भी है। 
 
शिल्प-सौंदर्य /विशेष :  
(i) 'सधुक्कडी' भाषा का प्रयोग है। 
(ii) भाषा भावानुकूल, सहज, सुबोध एवं सटीक है।
(iii) उपदेशात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।  
(iv) दोहा छंद  प्रयोग हुआ है। 
(v) 'पोथी पढ़ि-पढ़ि' में अनुप्रास अलंकार है और 'पढ़ि-पढ़ि' में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का प्रयोग हुआ है। 


8.     हम घर -----------------------हमारे साथि।।

भावार्थ : प्रस्तुत साखी में कबीरदास जी समाज कल्याण की भावना रखते हुए कह रहे हैं कि 

-हमने पहले ज्ञान की जलती लकड़ी की मशाल से अपने अंदर की बुराइयों के घर में आग लगा दी। 
अब उस ज्ञान की जलती लकड़ी को हमने अपने हाथों में उठा लिया है और अब उससे हम समाज की बुराइयों को जलाने का प्रयास करेंगे। 
जो भी हमारे साथ चलेगा, इस ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करने में साथ ही बनेगा, उसे भी मोह- माया, सांसारिक बंधन, अहंकार रूपी बुराइयों का अपना घर जलाना होगा। 
कबीर कहते हैं कि मैंने मोह-माया के केंद्र इस संसार को जला दिया है। 
ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले को इस घर (सांसारिक बंधन, माया, मोह) को भस्म करना पड़ता है।  
जैसे कि ज्ञान प्राप्ति के लिए भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए काम, क्रोध, मोह आदि विषयों का त्याग करना होगा क्योंकि यही ज्ञान प्राप्ति में बाधक तत्व हैं।  
अतः जो भी इस ब्रह्म-ज्ञान की ओर चलने के लिए मेरा साथी बनेगा, उसे भी अपना घर जलाना होगा। 


शिल्प-सौंदर्य /विशेष :    
(i) 'लिया मुराड़ा हाथि' मुहावरे का प्रयोग हुआ है। 
(ii) साखी अनेकार्थ शब्दों का प्रयोग है। 
(iii) 'सधुक्कडी' भाषा का प्रयोग है। 
(iv) भाषा भावानुकूल, सहज, सुबोध एवं सटीक है।
(v) उपदेशात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।   

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