HINDI BLOG : Class 9 Sanskrit Lesson-5 Anuvaad suktimoktikm SAAR/पाठ-5 सूक्तिमौक्तिकम् पाठ का अनुवाद

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Wednesday, 10 November 2021

Class 9 Sanskrit Lesson-5 Anuvaad suktimoktikm SAAR/पाठ-5 सूक्तिमौक्तिकम् पाठ का अनुवाद


पाठ का अनुवाद :
नीति-ग्रंथों की दृष्टि से संस्कृत साहित्य काफी समृद्ध है। इन ग्रंथों में सरल और सारगर्भित भाषा में नैतिक शिक्षाएँ दी गई हैं। इनके द्वारा मनुष्य अपना जीवन सफल और समृद्ध बना सकता है। ऐसे ही मूल्यवान कुछ सुभाषित इस पाठ में संकलित किए गए हैं। 
* मनुष्य को अपने आचरण की रक्षा करनी चाहिए। धन नश्वर है। वह कभी आता है तो कभी चला जाता है। 
* जैसा व्यवहार स्वयं को अच्छा न लगे, वैसा व्यवहार दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए । 
*मीठे बोल सभी को प्रिय लगते हैं। अतः मीठा बोलना चाहिए। मनुष्य को बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए। 
* महापुरुष अपने लिए कुछ नहीं करते हैं। वे सदा परोपकार करते रहते हैं। इसका कारण है कि महापुरुषों का पृथ्वी पर आगमन परोपकार के लिए ही होता है। 
* मनुष्य का गुणों के लिए यत्न करना चाहिए। गुणों के द्वारा वह महान बनता है।
* सज्जन लोगों की मित्रता स्थायी होती है, जबकि दुर्जन लोगों की मित्रता अस्थायी। 
* हंस तालाब की शोभा होते हैं। यदि ये किसी तालाब में इस नहीं हैं तो यह उस तालाब के लिए हानिकर है।
* गुणज्ञ व्यक्ति को पाकर गुण गुण बन जाते हैं, परंतु निर्गुण को प्राप्त करके वे ही गुण दोष बन जाते हैं। 

1. वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च। 
   अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।।        -मनुस्मृतिः 

शब्दार्थाः - वित्तम् - धन, ऐश्वर्य , वृत्तम्- आचरण, चरित्र , अक्षीणः - नष्ट नहीं होता , क्षीणः नष्ट होना , वृत्ततः – आचरण से हृतः नष्ट हो जाना , एति - आता है , याति - जाता है , संरक्षेत् - रक्षा करनी चाहिए , यलेन - प्रयत्नपूर्वक । 
अर्थ- हमें अपने आचरण की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि धन तो आता है और चला जाता है, धन के नष्ट हो जाने पर मनुष्य नष्ट नहीं होता है। परंतु चरित्र या आचरण के नष्ट हो जाने पर मनुष्य भी नष्ट हो जाता है।

2. श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । 
    आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥        - विदुरनीति : 
शब्दार्थाः -श्रूयतां-सुनो, धर्मसर्वस्व - धर्म के तत्व को , श्रुत्वा - सुनकर , अवधार्यताम् - ग्रहण करो , प्रतिकूलानि - विपरीत , परेषाम् - दूसरों के प्रति , समाचरेत् - आचरण नहीं करना चाहिए , आत्मन : -अपने । 
अर्थ- धर्म के तत्व को सुनो और सुनकर उसको ग्रहण करो , उसका पालन करो । अपने से प्रतिकूल व्यवहार का आचरण दूसरों के प्रति कभी नहीं करना चाहिए अर्थात् जो व्यवहार आपको अपने लिए पसंद नहीं है, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए।

3. प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः। 
तस्माद् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥               - चाणक्यनीतिः 
शब्दार्था : - प्रियवाक्यप्रदानेन प्रिय वाक्य बोलने से , तुष्यन्ति प्रसन्न होते हैं , जन्तवः- प्राणी , वक्तव्यम् कहने चाहिए , वचने - बोलने में, दरिद्रता-गरीबी, कंजूसी । 
अर्थ- प्रिय वचन बोलने से सब प्राणी प्रसन्न होते हैं तो हमें हमेशा मीठा ही बोलना चाहिए। मीठे वचन बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए। 

4. पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः। 
   स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः। 
  नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः 
  परोपकाराय सतां विभूतयः ॥       -सुभाषितरत्नभाण्डागारम्  
शब्दार्थाः- नद्यः- नदियाँ , की भलाई के लिए । अम्भ : -पानी पिबन्ति - पीती हैं , वृक्षाः पेड़ , खादन्ति खाते हैं , खलु - निश्चित हो वारिवाहा : - बादल , सस्य -अनाज , अदन्ति- खाते हैं , सता - सज्जना की , विभूतयः- धन - संपत्ति , परोपकाराय - दूसरों की भलाई के लिए। 
अर्थ- नदियों अपना पानी स्वयं नहीं पीतीं। पेड़ अपने फल स्वयं नहीं खाते, निश्चित ही बादल अनाज (फसल) का नहीं खाते (इसी प्रकार) सज्जनों (श्रेष्ठ लोगों) की धन- सम्पत्तियाँ दूसरों के लिए ही होती हैं। 

5. गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा। 
    गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः ॥  - मृच्छकटिकम् 
शब्दार्थाः- गुणेषु- गुणों में. प्रयत्नः कोशिश , पुरुषै : - पुरुषों के द्वारा कर्तव्यः- करना चाहिए , हि - निश्चित ही , सदा - हमेशा , गुणयुक्तः- गुणवान् , दरिद्रः- गरीब , अपि - भी, ईश्वर : -ऐश्वर्यशाली , समः- समान , न - नहीं, गुणैः - गुणों से 
अर्थ- मनुष्य को सदा गुणों को ही प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। गरीब होता हुआ भी वह गुणवान व्यक्ति ऐश्वर्यशाली गुणहीन के समान नहीं हो सकता (अर्थात् वह उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है।)

6.आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण 
   लध्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्। 
   दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना 
  छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥    -नीतिशतकम् 
शब्दार्था : - आरम्भगुर्वी- आरंभ में लंबी , क्रमेण- धीरे-धीरे , क्षयिणी - घटते स्वभाव वाली , पुरा-पहले , लघ्वी - छोटी , वृद्धिमती - लंबी होती हुई , पूर्वार्द्ध - पूर्वाह्न , अपरार्द्ध - अपराह्न , छायेव - छाया के समान, भिन्ना- अलग-अलग , खल- दुष्ट , सज्जनानाम्- सज्जनों की । 
अर्थ- आरंभ में लंबी फिर धीरे-धीरे छोटी होने वाली तथा पहले छोटी फिर धीरे-धीरे बढ़ने वाली पूर्वाह्न तथा अपराह्न काल की छाया की तरह दुष्टों और सज्जनों की मित्रता अलग-अलग होती है।

7. यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु 
   हंसा महीमण्डलमण्डनाय । 
   हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां 
   येषां मरालैः सह विप्रयोगः ॥ - भामिनीविलास
शब्दार्था: - महीमण्डल- पृथ्वी , मण्डनाय- सुशोभित करने के लिए , गता : - चले जाने वाले भवयु होने मराले : हंसों से , हंसा - हंस , सरोवराणां- तालाबों का , विप्रयोगः - अलग होना , हानि : - हानि , सह- साथ, तेषां- उनका, येषां- उनका । 
अर्थ- पृथ्वी को सुशोभित करने वाले हंस भूमण्डल में (इस पृथ्वी पर) जहाँ कहाँ (सर्वत्र) भी प्रवेश करने में समर्थ हानि तो उन सरोवरों की ही है, जिनका हंसों से वियोग (अलग होना) हो जाता है। 

8.  गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति
     ते निर्गुण प्राप्य भवन्ति दोषाः। 
    आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः 
     समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः।।   - हितोपदेशः

शब्दार्था: - गुणज्ञेषु - गुणों को जानने वालों में गुणवान ) निर्गुणगुणहीन , दोषा : - दुर्गुण , आस्वाद्यतायाः स्वादयुक्त जलवाली , आसाद्य- प्राप्त करके , प्रवहन्ति - बहती हैं , नद्यः - नदियाँ , अपेयाः न पीने योग्य, प्राप्य- प्राप्त करके,भवन्ति-हो जाती हैं ।  
अर्थ- गुणवान लोगों में रहने के कारण ही गुणों को सगुण कहा जाता है। गुणहीन को प्राप्त करके व दुर्गुण (दोष) बन जाते हैं । जिस प्रकार नदियाँ स्वादयुक्त जलवाली होती हैं, परंतु समुद्र को प्राप्त करके न पीने योग्य अर्थात् ( कुस्वादु, या नमकीन ) हो जाती हैं। 

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