HINDI BLOG : May 2021

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Monday, 31 May 2021

Top Best Famous Moral Stories In Hindi ......लघु कथाएँ - अनुपम दान...संकल्प की ताकत...कृतज्ञता की पराकाष्ठा

Top Best Famous Moral Stories In Hindi  
1.प्रेरक प्रसंग- अनुपम दान

 यह प्रेरक प्रसंग बंगाल का है। एक बार एक वृद्ध भिखारिन भीख माँगने निकली। 
एक घर के आगे रुक कर उसने दरवाजे पर भीख देने के लिए आवाज लगाई। 
उसकी आवाज़ सुनकर एक बालक उस दरवाजे से बाहर निकला। बुढ़िया ने उससे भीख में कुछ देने की याचना की।

उस वृद्ध भिखारिन की दयनीय दशा को  देखकर बालक को उस पर दया आई।
 बालक घर के अंदर अपनी माँ  के पास जाकर बोला, "माँ  दरवाजे पर एक बूढ़ी भिखारिन आई है। 
मुझे बेटा कह कर वह कुछ कुछ माँग रही है ।" 

बेटे की बात सुनकर माँ  ने बेटे से कहा, "जाओ, बेटा उसे कुछ चावल दे दो।"
 माँ की बात सुनकर बालक बोला, "माँ चावल से उसका क्या भला होगा ? माँ आपने जो सोने के कंगन हाथों में पहने हैं यही उतार कर दे दीजिए। 
मैं बड़ा होकर आपको दूसरे कंगन बनवा दूँग
 
बेटे की बात सुनकर माँ  ने तुरंत ही अपने कंगन उतारे और बेटे को दे दिए। 
लड़के ने बाहर जाकर बूढ़ी भिखारिन को वे कंगन दे दिए। जब वह लड़का बड़ा हुआ तो वह बंगाल का बहुत प्रसिद्ध विद्वान और समाज सुधारक बना। 
एक दिन उस लड़के ने अपनी माँ के पास जाकर कहा, "माँ आप अपने हाथों का नाप दे दो। मुझे आपके लिए कंगन बनाने हैं।"

ऐसे महापुरुष जितने महान होते हैं, उनकी मांएं भी उतनी ही महान होती हैं। 
माँ ने बेटे को उत्तर दिया, "बेटा !अब मेरी उम्र कंगन पहनने की नहीं है। अगर तुम मेरे कंगन बनवाने की जगह कलकत्ते के गरीबों के लिए एक अस्पताल और यहाँ के बच्चों की पढ़ाई के लिए कॉलेज खुलवा दे। 
जहाँ गरीबों को पूरी तरह नि: शुल्क सुविधाएँ  मिलें। माँ की बात सुनकर पुत्र ने अपनी माँ की इच्छानुसार वैसा ही किया। 
वह महान पुत्र व महापुरुष थे - महान विद्वान और समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर। 

2.  संकल्प की ताकत 

लंदन का एक उपनगर था वालवर्थ। वहाँ के निवासी आपराधिक कृत्यों के लिए बदनाम थे। 
अशिक्षित लोगों की इस बस्ती को सभ्य समाज में उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था। 
यहाँ के लोग आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने के कारण बहुत बदनाम थे। उन्हें समाज घृणा की दॄष्टि से देखता था। 

 एक बार वहाँ पर कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़ने वाला एक लड़का यहाँ रहने के लिए आया। उसने यहाँ की दैनिक स्थिति को देखा। 
उसे यह सब देखकर बहुत दुःख हुआ और उसने इसे बदलने का निश्चय किया। सबसे पहले उसने वहाँ के बच्चों को इकट्ठा किया और उन्हें पढ़ाना शुरू किया। 

धीरे-धीरे पढ़ाई के साथ-साथ उसने उन्हें अच्छे संस्कार देना भी शुरू किया। 
यह सब देखकर बस्ती के लोग उससे बड़े प्रभावित हुए।  उन्होंने सोचा कि इस संसार में कोई तो है जो उनके बच्चों की परवाह करता है। 
उन्हें अच्छी बातें सीखा रहा है, उन्हें पढ़ा रहा है। 

कुछ दिनों के बाद उस युवक ने वहाँ रहने वाले बड़े लोगों को भी रविवार के दिन कक्षा में आने के लिए मना लिया। अब वह उन्हें भी शिक्षा के साथ-साथ अच्छी बातें भी सिखाने लगा। 
उन लोगों में भी परिवर्तन आने लगा और वहाँ के सभी लोग उसका बहुत आदर करने लगे। 

जब कुछ समय बीत गया तो उसने बस्ती वालों से एक संकल्प लेने के लिए कहा। बस्ती वाले भी संकल्प लेने को तैयार हो गए। 
उस लड़के ने उनसे संकल्प लिया कि वे सप्ताह में एक दिन कोई अपराध नहीं करेंगे । बस्ती वालों ने वैसा ही किया इस प्रकार एक दिन अपराध मुक्त जीवन जीकर बस्ती वालों को बहुत अच्छा लगा। 

फिर बस्ती वालों ने स्वयं संकल्प लिया कि वे एक दिन नहीं बल्कि सप्ताह में चार दिन कोई अपराध नहीं करेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे बस्ती और बस्ती में रहने वालों की स्थिति में सुधार आने लगा।
 बस्ती में रहने वाले लोगों ने अच्छे काम करने शुरू कर दिए। धीरे-धीरे अपराधियों के लिए कुख्यात एक उपनगर की परिस्थिति बदलने लगी और अब वह बस्ती समय के साथ सभ्य लोगों का शहर बन गया था। 

कुछ समय बाद वह युवक में भारत आया और यहाँ दीनबंधु एंड्रयूज के नाम से प्रसिद्ध हुआ।  
यह प्रेरक प्रसंग हमें यह सीख देता है कि निरंतर प्रयास करने से बड़े-से-बड़े और कठिन-से-कठिन कार्य भी संभव हो जाते है। 

3. कृतज्ञता की पराकाष्ठा 

आधुनिक हिंदी के पितामाह कहलाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र जी अपनी उदारता के कारण कंगाल हो चुके थे। 
एक समय ऐसा भी आया जब उनके पास इतने भी पैसे नहीं थे कि वे टिकट खरीदकर अपने पास आए हुए पत्रों का उत्तर भेज सकें। 

उनके पास जो भी पत्र आते थे, वे उनके उत्तर लिखते और फिर उन्हें लिफाफे में बंद करके मेज पर रख देते । उनकी स्थिति ऐसी थी कि वे नहीं खरीद सकते थे, अगर टिकट लगाने के लिए पैसे होते, तो उन पत्रों के जवाब भेजे जाते। धीरे-धीरे उनकी मेज पर पत्रों की एक ढेरी एकत्र होती चली गई । 

उनके एक मित्र ने जब पत्रों की यह ढेरी देखी तो उस मित्र ने उन्हें पाँच रुपए के डाक टिकट लाकर दिए, पत्रों पर डाक टिकट लगाए गए, फिर वह पत्र लेटर बॉक्स में डाले गए। 
भारतेंदु जी ने बहुत मुसीबतें देखीं पर उन्होंने मुसीबतों से हिम्मत नहीं हारी। 
उनकी ऐसी हिम्मत का परिणाम यह हुआ कि कुछ समय बाद उनकी स्थिति थोड़ी-थोड़ी ठीक होती चली । 

लेकिन जब-जब वह अपने उस मित्र से मिलते थे, तब-तब वे जबरदस्ती अपनी मित्र की जेब में पाँच रुपए डाल देते थे और उनसे कहते, "शायद आपको स्मरण नहीं, कि आपके पाँच रुपए  मुझ पर ऋण हैं।"

एक दिन भारतेंदु जी उनके उस मित्र ने कहा, "लगता है कि मुझे अब आपसे मिलना बंद कर देना पड़ेगा।"

मित्र की यह बात सुनकर भारतेंदु बाबू  के नेत्र भर आए।
 वे मित्र से बोले, "भाई तुमने मुझे उस समय पाँच रुपए दिए थे, जब मैं बड़ी मुसीबत में था। 
मैं जीवन भर भी तुम्हें  प्रतिदिन पाँच रुपए देता रहूँ, तब भी तुम्हारे ऋण से मुक्त नहीं हो सकता।"

यह थी भारतेंदु जी की 'कृतज्ञता की पराकाष्ठा' कि वे अपने मित्र द्वारा की गई मदद को भूल नहीं पाए ।
 कभी भी अपने बुरे वक्त को मत भूलिए और बुरे वक्त में जिन लोगों ने आपकी मदद की उन्हें तो बिल्कुल मत भूलिए।
 ऐसा करना आपके उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करता है। 

Saturday, 29 May 2021

व्यंग्यपूर्ण लघुकथाएँ - गुलछर्रे, नजर मत चुराओ ,कहाँ जा रहे हो ?

कृतज्ञता की पराकाष्ठा 
1. गुलछर्रे  
पूरे दिन धक्के खाने के बाद बड़ी मुश्किल से रामू  को एक सवारी मिली।
 घर पहुँचकर रीना के हाथ पर दस-दस नोट रखते हुए रामू बहुत ही दुखी स्वर में बोला, "कि आज बस इतने पैसे ही मिले। 
इतने कम रुपए देख रीना दुखी हो गई और सोच में पड़ गई मगर रामू को पहले से  इतना दुखी देखकर रीना को उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। 
उसने हैंडपंप से निकालकर रामू को एक गिलास पानी पीने को दिया और खुद थैला लेकर सामान लेने के लिए बाजार चली गई। 

रीना को राशन का सामान लेने जाते देख उसके भूखे बच्चों को खाना मिलने की एक उम्मीद बंध गई थी। 
रीना को समझ में नहीं आ रहा था कि इन 40 रुपयों में से कितने का वह राशन ले, कितने की सब्जी ले और कितने का नमक, मिर्ची। 
उसने सोचा कि अगर वह 30  रुपये के चावल और 10 रुपये की दाल ले लेती हूँ। खिचड़ी बना लूँगी। मगर उसे ध्यान आया कि आज घर में नमक भी नहीं है। 

किराने की दुकान में 5 रुपये वाला नमक का छोटा पैकेट नहीं था। 40 रुपये में से 16 रुपये की नमक की थैली लेने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। 
काफी देर तक वह इसी उधेड़बुन में खड़ी रही। वह यही सोचती रही कि क्या खरीदूँ और क्या नहीं ?

 तभी उसकी नजर गली के एक छोटी-सी दुकान पर गई। जहाँ गर्मागर्म समोसे बनाए जा रहे थे। 
उन समोसों की सोंधी-सोंधी महक ने उसे अपनी ओर खींचा। वह उन समोसों की महक से खींची हुई  दुकान पर पहुँची। 

 दुकान पर पहुँचकर उसने दुकानदार से पूछा, "भैया एक समोसा का क्या दाम है ?
दुकानदार ने उसकी ओर देखते हुए कहा, "ले जाओ 4 रुपये समोसा लगा देंगे।"

काफी देर सोचने-समझने के बाद रीना ने 40 रुपये में 10 समोसे लिए और घर की ओर चल दी। 

समोसे देखकर बच्चे खुशी से उछल पड़े। रीना ने सबको दो-दो समोसे दिए। सब समोसे खाने लगे। 
सबको समोसे खाते देख रीना की मकान मालकिन अपने पति से कहने लगी, "कि यह हर समय पैसों का रोना रोती रहती है। 
लेकिन अब देखो गुलछर्रे उड़ाए जा रहे हैं। पूरा परिवार गर्मागर्म समोसे खा रहे हैं।

2. नजर मत चुराओ 

 एक टी.वी. चैनल का रिपोर्टर सतीश दस-दस किलो आटे की दो थैलियाँ, पाँच  किलो दालें,  दो किलो चीनी, एक किलो चायपत्ती,  दो लीटर वनस्पति घी आदि लेकर अपने घर लौटा और राशन का  सब सामान रसोई घर में रखने लगा। 
उसे ऐसा करते देख उसकी पत्नी राधिका ने पूछा, "तुम यह सब सामान कहाँ से लाए हो ? तुम्हारे पास तो अभी इतने पैसे नहीं थे ?"

सतीश ने कहा, "आज एक समाज-सेवी संस्था की ओर से राशन का सामान गरीबों में मुफ्त बाँटा गया। 
मैं उस संस्था के बुलावे पर अपने चैनल के लिए कवरेज करने वहाँ गया था। 
आते समय संस्था के प्रधान ने मेरे मना करने के बावजूद यह सब राशन का सामान मुझे दे दिया।" सतीश ने नज़रे चुराते हुए कहा। 
"और तुम यह सामान ले आए ?"

"हाँ!"  सतीश शर्म के मारे चाहकर भी अपनी पत्नी राधिका से नजर नहीं मिला पा रहा था। 
राधिका ने सतीश से कहा  "मेरी तरफ देखो। 
ऐसे नजर मत चुराओ ! इस त्रासदी में, इस मुश्किल घड़ी ने अनेक लोगों को भूखों मरने पर मजबूर कर दिया है। तुम्हारी तनख्वाह में भी इस कारण कट कर मिल रही है।
 ये तो शुक्र है भगवान का कि तुम्हारी नौकरी अभी तक बची हुई है। हम जैसे-तैसे निर्वाह कर ही रहे हैं। संकट के इस कठिन समय में भी हमें नैतिकता और ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ना चाहिए।" 
राधिका बोलती जा रही थी और सतीश नजर झुकाए चुपचाप सुन रहा था। 
राधिका ने आगे कहा, "सतीश, जिस राशन के सामान के संकट के मारे कुछ और लोगों की मदद हो सकती है, वह सामान तुम लेकर घर कैसे चले आए ? 
यह देश व समाज, न्यायपालिका, मीडिया में शेष बची हुई नैतिकता व ईमानदारी के बल पर ही तो हम आगे बढ़ पा रहा है........ ।" 

इससे पहले कि राधिका और कुछ बोलती, वह उठा कर उसकी ओर देखते हुए बोला, "मुझे माफ कर दो राधिका,  मुझसे गलती हो गई। 
मैं अभी सारा सामान वापस लौटा कर आता हूँ।" 

.... और वह दोबारा राशन के उस सामान को अपने स्कूटर पर लादकर घर से रवाना हो गया। 

3. कहाँ जा रहे हो ?
 
दयाराम हाथ में थैला पकड़े और नजर झुकाए पैदल चले जा रहे थे। 
रास्ते में एक पुलिस मौके पर एक सिपाही ने अपमानजनक स्वर में सड़क पर पूछा, "ओए, नजर बचाकर किधर चला जा रहा है ? 
क्या तुझे पता नहीं कि कोरोना लॉकडाउन में खुलेआम घूमना-फिरना मना है ?"

 वैद्य जी ने नजर उठाकर देखा असभ्य ढंग से बोलने वाला सिपाही उम्र में उनके दोनों बेटों से भी छोटा जान पड़ता था। 
उसकी हिमाकत पर उन्हें गुस्सा तो आया फिर भी उन्होंने नम्रता भरे स्वर में कहा, "बेटा अपनी दवाओं की दुकान पर जा रहा हूँ। 
कोरोना-लॉकडाउन में जिन दुकानों को कुछ समय के लिए खोलने की अनुमति मिली हुई है, उसमें हमारा दवाखाना भी शामिल है।" 

'अच्छा, अच्छा, ठीक है। ला, दिखा, इस थैले में क्या है? क्या पता, दवाइयों की आड़ में अवैध शराब बेचने का धंधा करता हो ?" 

उस सिपाही के ऐसे शब्द सुनकर नाके पर तैनात अन्य पुलिसकर्मियों के भी कान खड़े हो गए। 
"लीजिए बेटा जी, देख लीजिए।  थैले में रोटियाँ भरी हुई हैं।" वैद्य जी ने शालीनता के साथ थैले का मुँह खोल कर दिखा दिया। 

 "बाबा जी, इतनी सारी रोटियाँ  साथ में क्यों लिए जा रहे हो ?" एक हवलदार ने आदरपूर्वक पूछा। 
 वैद्य  दयाराम जी ने जी को उस हवलदार के बोलने का ढंग बहुत अच्छा लगा। 
उन्होंने उसी को संबोधित करते हुए कहा, "बेटा जी, इस महामारी के संकट में बहुत ही समाज सेवी संस्थाएँ असहाय व बेसहारा लोगों को मुफ्त में भोजन उपलब्ध करवा रही हैं।
 लेकिन बेजुबान और बेसहारा जानवरों की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।  
मेरे दवाखाने के निकट कई आवारा कुत्ते रहते हैं। मैं यह रोटियाँ उन्हीं के लिए ले जा रहा हूँ।" 

 फिर उन्होंने अभद्रता दिखाने वाले सिपाही की ओर देखते हुए कहा, "अगर आप में से किसी को कुछ रोटियाँ चाहिए, तो वह भी ले सकता है।"

Friday, 28 May 2021

लघु कथाएँ - सुधार की गुंजाइश, चित्रकार की गलती, पिता की प्रार्थना

Top Best Famous Moral Stories In Hindi  
1.सुधार की गुंजाइश 
एक गाँव में एक बहुत ही अच्छा मूर्तिकार रहता था। वह स्वयं तो बहुत अच्छी मूर्तियाँ बनता ही था साथ ही उसने अपने बेटे को भी अपनी तरह मूर्तिकला में निपुण किया ।
दोनों बाप-बेटे मूर्तियाँ  बनाते और बाजार में बेचने ले जाते। 
पिता की मूर्तियाँ को डेढ़-दो रुपए में बिकती लेकिन बेटे की मूर्तियाँ केवल आठ-दस आने में ही बिक पातीं।
 
 जब दोनों घर वापस आते तो पिता अपने पुत्र को उसकी मूर्तियों में रही कमियों को बताता और पुत्र को उन्हें ठीक करने को कहता। लड़का भी समझदार था। 
अपने पिता की बात सुनकर वह मन लगाकर उन कमियों को दूर करता । 
धीरे-धीरे पुत्र की मूर्तियाँ भी डेढ़-दो रुपए बिकने लगीं। पर पिता तब भी उसकी मूर्तियों में रही कमी को बताता रहता और पुत्र से उसे ठीक करने को कहता। 
वह अपनी पूरी मेहनत लगाकर उन मूर्तियों में सुधार करता। इस तरह पिता की बताई कमियों को दूर करते पुत्र को लगभग छह साल बीत गए । इतने सालों तक बार-बार सुधार करते हुए उस लड़के की मूर्तिकला में बहुत ज़्यादा निखार आ गया था । 


अब उसकी बनाई मूर्तियाँ छह-सात रुपये  में बिकने लगीं। लेकिन तब भी पिता ने मूर्तियों में कमियाँ निकालना नहीं छोड़ा । 
वह अपने पुत्र से कहता कि अभी और सुधार की गुंजाइश है । 

एक दिन लड़का  झुँझलाकर बोला, "अब बस करिए, पिताजी । 
मैं अब आपसे भी ज़्यादा अच्छी मूर्तियाँ बनाता हूँ। आपको अपनी मूर्तियों केवल दो-ढाई रुपए मिलते हैं । जबकि मेरी बनाई हुई मूर्तियों से मुझे छह-सात रुपये मिल जाते हैं।"


 पिता ने पुत्र को समझाते हुए कहा, "बेटा तुम्हारी तरह ही एक समय मुझे भी अपनी कला पर बहुत घमंड हो गया था ।
तब मैं तुम्हारी उम्र का था और मैंने मूर्तियों में सुधार करना बिल्कुल बंद कर दिया था। 
इस प्रकार से मैं डेढ़ -दो रुपए से ज़्यादा की मूर्तियाँ नहीं बना सका। 
यानी घमंड के कारण इससे ज़्यादा नहीं कमा सका और आज भी उतने ही कमा रहा हूँ। आगे नहीं बढ़ पाया। 

पिता ने पुत्र से कहा, "बेटा मैंने जो गलती की,वह गलती तुम न करो। 
कार्य या जगह कोई भी हो चाहे पर उसमें हमेशा सुधार की कोई-न-कोई ज़रूरत रहती ही है। पुत्र! तुम्हारी कला में निरंतर निखार आते रहे और तुम ऐसी तरह अपनी कमियों को सुधारते रहो। मैं तो बस यही चाहता और कामना करता हूँ। 
जिससे तुम्हारा नाम बहुमूल्य मूर्तियाँ बनने वाले कलाकारों में शामिल हो जाए क्योंकि जो अपने कार्य में निरंतर सुधार करता रहता है वहीं मंजिल पर पहुँचता है और हमेशा सबसे आगे रहता है ।
 
2.चित्रकार की गलती 
एक बहुत बड़े शहर में एक बहुत ही विख्यात चित्रकार रहता था।
 उसके बनाए चित्रों को देखने के लिए हजारों लोग देश-विदेश से उसकी चित्र-प्रदर्शनी में आते थे।  लोग उसके बनाए चित्रों और उसके काम की प्रशंसा करते नहीं थकते थे।

 एक बार उस चित्रकार के मन में एक शंका उत्पन्न हो गई। उसे लगने लगा कि कहीं लोग मेरे सामने झूठे मुँह मेरी तारीफ करते हो और बाद में मेरी पीठ पीछे वे मेरे काम की कमी निकालते हों। 
यह बात  सोचकर उसने अपनी बनाई हुई एक मशहूर पेंटिंग सुबह-सुबह शहर के एक व्यस्त चौराहे पर लगा दी और नीचे लिख दिया, "कि जिसे भी इस पेंटिंग में कहीं कोई कमी नजर आए वह उस जगह एक निशान लगा दे।" 

शाम को जब वह चौराहे पर आ गया तो पेंटिंग पर सैकड़ों निशान लगे हुए थे। 
वह बहुत निराश हो गया और चुपचाप पेंटिंग उठाकर अपने घर चला गया। 

 एक दिन उसके दोस्त ने उसकी निराशा का कारण पूछा, तब उसने उदास मन से उस दिन की पूरी घटना सुना डाली। 
मित्र ने उसे कहा, "हम एक काम कर सकते हैं। क्यों न एक बार और हम तुम्हारी पेंटिंग को उस चौराहे पर दोबारा रखकर देखें । 
अगली सुबह उन्होंने चौराहे पर एक पेंटिंग लगाई।
पेंटिंग वहाँ रखने के बाद उस चित्रकार के मित्र ने उससे कहा, " पेंटिंग के नीचे इस बार लिखो कि जिस किसी भी व्यक्ति को कहीं भी इस पेंटिंग में कोई कमी दिखे, वे स्वयं ही उसे ठीक कर दे।"

शाम को जब दोनों दोस्त उस पेंटिंग को देखने गए तो उन्होंने देखा कि पेंटिंग जैसी सुबह थी अभी भी बिलकुल वैसी की वैसी है। 
दोस्त चित्रकार को देख कर मुस्कुरा कर बोला, 'कुछ समझे कि कोई भी आसानी से गलतियाँ  तो निकाल सकता है लेकिन गलतियाँ सुधारने वाले बहुत कम लोग होते हैं।

3. पिता की प्रार्थना
एक बार एक पिता और पुत्र जल यात्रा कर रहे थे। 
जलमार्ग द्वारा सफर करते हुए दोनों रास्ता भटक गए। 
मार्ग भटकने के कारण उनकी नौका भी ऐसी जगह पहुँच  गई जहाँ पर दो टापू पास-पास थे। 
जैसे ही उनकी नाव टापू पर पहुँची उसके टुकड़े  गए यानी नाव टूट गई। 

सुनसान टापू टूटी नाव को देखकर पिता ने अपने पुत्र से कहा, "बेटा लगता है कि अब हम दोनों यहाँ से निकल नहीं पाएँगे शायद हमारा आखिरी वक्त करीब है। 
दूर-दूर तक हमें कोई सहारा भी नहीं दिख रहा है।कोई  करने वाला भी नहीं है।" 

पिता अभी पुत्र से बात कर ही रहे थे कि उन्हें एक उपाय सूझा और उन्होंने अपने पुत्र से कहा, "कि वैसे भी हमारी इस जगह पर कोई मदद नहीं कर सकता और हमारा आखिरी वक्त करीब है। तो इस अंतिम समय में क्यों न हम ईश्वर से प्रार्थना करें।" 

पिता ने पुत्र से कहा कि हम अलग-अलग होकर प्रार्थना करते हैं ।
 एक टापू पर तुम चले जाओ और दूसरे टापू पर मैं जाता हूँ। इस तरह पिता-पुत्र ने दोनों टापुओं को आपस में बाँट लिया। 
एक पर पिता और दूसरे पर पुत्र, दोनों अलग-अलग ईश्वर से प्रार्थना करने लगे। 

पुत्र ने ईश्वर से कहा, "हे ईश्वर! इस सुनसान टापू पर बहुत सारे पेड़-पौधे उग जाएँ। 
उन पेड़-पौधे पर लगे फल-फूल से हम अपनी भूख मिटा सकेंगे।
 ईश्वर द्वारा प्रार्थना सुनी गई, तत्काल ही उस टापू पर पेड़-पौधे उग गए और उसमें फल-फूल भी लग  गए।" 

पुत्र ने फिर एक प्रार्थना की, कि हे ईश्वर! एक नाव यहाँ आ जाए और जिसमें सवार होकर हम यहाँ से बाहर निकल सकें। उसकी प्रार्थना सुनी गई। 
तत्काल नाव भी प्रकट हो गई और उसमें सवार होकर पुत्र टापू से बाहर निकलने लगा। 

जब वह नाव में सवार होकर निकलने लगा,तभी ईश्वर द्वारा आकाशवाणी हुई, बेटा तुम अकेले जा रहे हो ? क्या अपने पिता को साथ नहीं लोगे ? 
तो पुत्र ने कहा, "आप मेरे पिता को छोड़िए, प्रार्थना तो उन्होंने भी की लेकिन आपने मेरे पिता की एक भी नहीं सुनी। मेरे पिता को इसका फल भोगने दो शायद उनका मन ही पवित्र नहीं है।"
पुत्र की बात सुनकर आकाशवाणी ने उससे पूछा, "क्या तुम जानते हो कि क्या प्रार्थना की थी तुम्हारे पिता ने ?"
आकाशवाणी की बात सुनकर वह पुत्र बोला, "नहीं" मुझे कैसे पता होगा कि कौन -सी प्रार्थना मेरे पिता की होगी ? 


" पुत्र की बात सुनकर आकाशवाणी ने कहा, सुनो पुत्र! तुम्हारे पिता द्वारा केवल एक ही प्रार्थना की गई , कि हे ईश्वर! मेरा पुत्र आपसे जो भी माँगे, उसकी प्रार्थना जरूर सुनना और उसे वह जरूर दे देना।" 

यह बात सुनकर पुत्र को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने पिता से जाकर अपनी गलती की क्षमा माँगी।

Friday, 21 May 2021

अंतिम शिक्षा - लघुकथा

Top Best Famous Moral Stories In Hindi  
हकीम लुकमान के जीवन की यह अंतिम घटना है। 
वह एक ख्याति प्राप्त विद्वान और सदाचारी व्यक्ति थे। 
जब वह मृत्यु शैय्या पर अंतिम साँसे ले रहे थे तो उन्होंने इशारे से अपने बेटे को पास बुलाकर कहा, "कि बेटा मैंने यूँ तो समय-समय पर अनेक शिक्षाएँ दी हैं, पर जाते-जाते एक अंतिम शिक्षा देना चाहता हूँ। 

इतना कहकर लुकमान ने बेटे को पूजा कक्ष में धूप दान उठाकर लाने को कहा जब वह धूपदान लेकर हाजिर हुआ तो लुकमान ने उसमें से चुटकी भर चंदन लेकर उसके माथे में लगाकर उसके हाथ में थमा दिया और इशारे से बताया कि अब चूल्हे में से कोयला उठाकर ले आओ। 

जब बेटा कोयला लेकर आया तो उन्होंने दूसरी हथेली में कोयला रखने का आदेश दिया। 
कुछ देर बाद फिर लुकमान ने कहा कि "अब इन्हें अपने अपने स्थान पर वापस रख आओ।" उसने ऐसा ही किया। उसकी जिस हथेली में चंदन था, वह उसकी खुशबू से अभी भी महक रही थी और जिस हथेली में कोयला था वह कोयला छोड़ देने पर भी कालिमा दिखाई पड़ रही थी। 

लुकमान ने पुत्र को दोनों हथेलियां दिखाते हुए समझाया बेटे एक बात याद रखना अच्छे आदमियों का संग चंदन जैसा होता है जब तक संग रहेगा तब तक तो खुशबू मिलेगी ही संग छूटने के बाद भी अच्छे विचारों की सुगंध से जिंदगी तरोताजा हो जाएगी। 

दुर्जनों का संग कोयले जैसा होता है, जब तक हाथ में कोयला है तब तक तो हाथ काला ही है किंतु छोड़ देने के बाद ही उसमें कालिमा बनी रहती है।
 कालिमा बनी रहती है। जीवन में सदैव चंदन जैसे संस्कारी आदमियों का ही संग करना और कोयले जैसे दुर्जन व्यक्तियों से दूर रहना। 

शायद इसलिए ही कहा गया है कि 'चंदन की चुटकी भली, गाड़ी भरा न काट' अर्थात चंदन की चुटकी भी मन को खुशी से भर देती है जबकि गाड़ी भर लकड़ी भी ऐसा नहीं कर सकती। 
लुकमान का पुत्र अपने पिता की अंतिम शिक्षा को जीवन भर नहीं भूला। 

Wednesday, 19 May 2021

लक्ष्मी का वास- लघु कथा

Top Best Famous Moral Stories In Hindi  
एक नगर में एक बहुत धनी सेठ रहता था।  
एक रात सोते हुए नींद में उन्होंने सपने में देखा कि लक्ष्मी जी उनसे कह रही हैं कि मैंने बहुत दिनों तक तुम्हारे यहाँ निवास कर लिया है। 
अब तुम्हारे यहाँ रहने का मेरा समय समाप्त हो गया है। 
अब थोड़े दिनों के लिए मैं तुम्हारे यहाँ से चली जाऊँगी। जाने से पहले में तुम्हें कुछ वरदान में देना चाहती हूँ। तुम मुझसे वरदान में जो भी माँगना चाहते हो, वो माँग लो। 

सेठ माँ लक्ष्मी से बोले, "मैं वरदान माँगने से पहले अपने परिवार से सलाह करूँगा। 
मैं परिवार से सलाह करके आपको कल बताऊँगा। सुबह जब सेठ की नींद खुली, तो उसने पूरे परिवार को अपने सपने की सारी बात बताई। 
माँ लक्ष्मी से क्या माँगा जाए ? सेठ के सपने की बात सुनकर सब अपने-अपने विचार प्रकट करने लगे। कोई सदस्य कहता कि इतनी धन-दौलत माँग लो जिससे पूरा जीवन आराम से कट जाएगा, तो कोई कहता कि माँ लक्ष्मी से जीवन भर के लिए अन्न माँग लो, किसी सदस्य की सलाह थी कि माँ लक्ष्मी से बहुत सारी जमीन माँग ली जाए, जिसमें खेती करके अपना जीवन हम आराम से काट लेंगे। 

सेठ की छोटी बहू बहुत बुद्धिमान थी।  वह चुपचाप सबकी बातें सुन रही थी। 
अंततः वह बोली, पिताजी मेरे हिसाब से धन-दौलत और खेती-बाड़ी माँगना ठीक नहीं है क्योंकि यह सब लक्ष्मी जी के साथ ही चला जाएगा।  
आखिर यह सब लक्ष्मी जी का हिस्सा है। हमें इसकी बजाय परस्पर प्रेम का वरदान माँगना चाहिए। 
अगर परिवार के सभी सदस्यों में प्रेम बना रहेगा, तो बड़ी से बड़ी मुसीबत ही आराम से कट जाएगी। 

सेठ को छोटी बहू की बात पसंद आई।
 रात को जब लक्ष्मी जी उसके सपने में आईं, तो उसने वरदान में माँ लक्ष्मी से परिवार का प्रेम माँगा। 
लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न हुईं। 
माँ लक्ष्मी ने सेठ से कहा, जिस परिवार में प्रेम होता है, उस परिवार के सदस्य आपस में प्रेम से रहते हैं।
 उस जगह, उस स्थान से मैं कभी नहीं जा सकती। इस प्रकार माँ लक्ष्मी सदा के लिए सेठ के घर में निवास करने लगी । 

Tuesday, 18 May 2021

माँ की इच्छा -प्रेरक कथा

Top Best Famous Moral Stories In Hindi  
यह कहानी बहुत पुरानी है।
 यानी हमारे दादा-दादी से भी पहले की है। कोहिमा और इंफाल के पहाड़ी प्रदेश में सत्तर वर्ष की एक बुढ़िया और उसका बेटा रहते थे। 
उन्हीं दिनों नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने हर घर में एक व्यक्ति के सेना में भर्ती होने की अपील की ताकि देश को अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलाई जा सके। 
उस बूढ़ी माँ की इच्छा थी कि उसका बेटा भी देश के काम आए। माँ की इच्छा को  जानते हुए, पुत्र ने खुशी-खुशी सेना में भर्ती होने की ठानी। 
अगले ही दिन वह युवक नेताजी की फौज में भर्ती होने के लिए रंगरूटों की पहली पंक्ति में खड़ा था। 
कर्नल के पूछने पर उसने अपना नाम अर्जुन सिंह तथा आयु 20 वर्ष बताई। 
जब कर्नल को पता चला कि वह अपनी माँ का इकलौता पुत्र है, तो कर्नल ने उसे सेना में भर्ती करने से इंकार कर दिया क्योंकि नेता जी की आज्ञा थी कि घर के अकेले युवक को भर्ती न किया जाए। 
उस युवक ने बहुत अनुनय-विनय  किया कि वे उसे सेना में भर्ती कर लें परंतु नेताजी की आज्ञा टाली नहीं जा सकती थी। 
युवक निराश घर लौट आया। पुत्र के सेना में भर्ती न होने से माँ को बहुत दुख हुआ और इस दुख में वह परलोक सिधार गई। 

माँ की मृत्यु के दूसरे दिन युवक फिर रंगरूटों की पंक्ति में जाकर खड़ा हो गया। 
कर्नल को जब यह पता चला कि युवक को सेना में भर्ती न किए जाने के दुख से उसकी माँ यह कहकर मर गई कि मैं तुम्हारी माँ नहीं। 
मैं तो तुम्हारे मार्ग की बाधा हूँ। तुम्हारी असली माँ तो भारत माता है। 
यह सुनकर कर्नल को बहुत दुख हुआ। 
उसने युवक की वीर माँ को सलामी दी और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। कर्नल ने उस युवक को सेना में भर्ती कर लिया और उस वीर युवक को सेना कप्तान बना दिया। 

पद- रैदास अति लघु उत्तरीय प्रश्न......CLASS 9...अतिरिक्त प्रश्न

प्रश्न-उत्तर

1- कवि को किसकी रट लग गई है ?

उत्तर -कवि संत रैदास को राम नाम जपने की रट लगी है। 

2 - पहले पद के अनुसार किसमें किसकी सुगंध समाई हुई है ?

उत्तर - संत रैदास के अनुसार, जिस प्रकार पानी के कण-कण में चंदन की सुगंध समा जाती है, ठीक उसी प्रकार भक्तों के रोम-रोम में प्रभु भक्ति की सुगंध समाई हुई है । 

3 - मोर क्या देखकर नाच उठते हैं ?

उत्तर- मोर काले बादलों को देखकर नाच उठते हैं । 

4- सोने की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए उसमें क्या मिलाया जाता है ?

उत्तर- सोने की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए उसके साथ सुहागा नामक क्षार द्रव्य प्रयोग किया जाता है। 

5 - दूसरे पर में कवि ईश्वर के किस विशेष गुण से प्रभावित हुए ?

उत्तर -दूसरे पद में कवि ईश्वर के 'गरीब-निवाजु अर्थात दीन-दुखियों पर दया करने और उनके समदर्शी स्वभाव के विशेष गुण से अत्यंत प्रभावित हुए। 

6- अछूत लोगों पर किसकी विशेष दया-दृष्टि रहती है?

उत्तर- ईश्वर की विशेष दया-दृष्टि अछूत लोगों पर बनी रहती है। 

 7 - रैदास ने अपने प्रभु को किन-किन रूपों में देखा है ?

उत्तर- कवि रैदास ने ईश्वर के लिए चंदन, घन, चंद्रमा, दीपक, मोती जैसे उपमानों का प्रयोग किया है । 

 8 - पहले पद में रैदास ने सुहागे की उपमा क्यों दी?

उत्तर- संत कवि रैदास ने  प्रभु और अपने अटूट संबंध को अभिव्यक्त किया है। उन्होंने प्रभु और स्वयं के बीच सोने और सुहागे का संबंध बताते हुए स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार सुहागे के संपर्क में आने पर सोने की चमक बढ़ जाती है, उसी प्रकार प्रभु की भक्ति भी भक्त को निखार देती है। 

 9- पहले पद में रैदास ने चाँद और चकोर का उदाहरण क्यों दिया है ?

उत्तर - रैदास ने प्रभु को अपना सर्वस्व माना है और स्वयं को उनकी कृपा पर आश्रित। चकोर जिस तरह बिना पलके झपकाए एकटक चाँद को देखता रहता है उसी तरह  कवि भी प्रभु भक्ति में निरंतर लगे रहते हैं। 

10- रैदास के स्वामी कौन हैं ? वे क्या-क्या कार्य करते हैं?

उत्तर- रैदास के ईश्वर (स्वामी) निराकार प्रभु हैं। उनकी कृपा से नीच भी उच्च और अछूत भी  महान बन जाते हैं।

11-रैदास किसकी भक्ति करते हैं?

उत्तर - रैदास निराकार ईश्वर की भक्ति करते हैं। ईश्वर की असीम कृपा से नीच तथा तुच्छ कहलाने वाला व्यक्ति भी राजा के समान सम्मान प्राप्त करके श्रेष्ठ बन जाता है। 

12- कवि के ईश्वर ने किन-किन का उद्धार किया है ?

उत्तर- रैदास स्वयं को तुच्छ बताते हुए कहते हैं कि प्रभु ने उनके जैसे अनेक नीच लोगों का कल्याण करके उन्हें सम्मान दिलवाया है। संसार उन्हें 'अछूत' समझता था, मगर प्रभु के संपर्क में आकर कबीर जुलाहा, नामदेव, त्रिलोचन, सधना कसाई और सैनु जैसे नाई संसार रूपी भवसागर से तर चुके हैं। 

13 - सोने में सुहागा मिलाए जाने से उसमें क्या परिवर्तन होता है? 

उत्तर -सोने की चमक बढ़ जाती है। सुहागा भी अपना महत्व दर्शा देता है।  अर्थात प्रभु के संपर्क में आने पर भक्त की भक्ति और निखर उठती है। 

लघु उत्तरीय प्रश्न

 1-रैदास ने स्वयं को पानी और प्रभु को चंदन क्यों माना है?

उत्तर- रैदास स्वयं को पानी और प्रभु को चंदन मानते हैं। पानी तो रंग, गंध और स्वाद रहित होता है, लेकिन प्रभु रूपी चंदन में मिलकर रंग और सुगंध पा जाता है। ईश्वर ही सभी गुणों को प्रदान कर अपने भक्तों को गुणवान बना देता है। 

2 -रैदास की भक्ति दास्य-भाव की है- सिद्ध कीजिए। 

उत्तर- दास्य भक्ति के अंतर्गत भक्त स्वयं को लघु, तुच्छ और दास कहता है तथा प्रभु को दीनदयाल, भक्तवत्सल कहता है। कवि अपने आप को  पानी और प्रभु को चंदन मानते हैं। 

कवि अपने-आप को तुच्छ मानते हुए मोर समझते हैं और अपने ईश्वर को घने वन जैसा विराट यानी बड़ा मानते हैं। 

रैदास स्वयं को दास मानते हुए अपने मन के भाव प्रकट करते हुए अपने ईश्वर को गरीब निवाजु, निडर व दयालु कहते हैं। 

3- रैदास को क्यों ऐसा लगता है कि उनके ईश्वर उन पर मेहरबान हैं या उनपर द्रवित हैं?

उत्तर- रैदास का जन्म निम्न जाति में हुआ हुआ था। रैदास अछूत जाति के थे। चमार जाति का होने के कारण उन्हें अछूत समझा जाता था और समाज ऐसे लोगों को छूने में भी पाप समझते थे। 

परंतु ऐसा नीच माने जाने पर भी प्रभु की कृपा उन पर हुई। वे प्रभु के संपर्क में आकर प्रसिद्ध संत बन गए। उन्हें समाज के उच्च वर्ग के लोगों ने भी सम्मान दिया। यह सब ईश्वर के द्रवित होने के कारण ही हुआ था।  

5- सोने के लिए सुहागा कैसे महत्वपूर्ण है?

उत्तर- सुहागा का अपना कोई अस्तित्व नहीं है, परंतु जब उसे सोने के साथ मिलाया जाता है तो वह इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि वह सोने में चमक पैदा करने के साथ उसे मज़बूत बना देता है।

ऐसे ही तुच्छ मनुष्य जब ईश्वर के संपर्क में आते हैं तो उनका भी उद्धार हो जाता है। प्रभु ने अनेक तुच्छ तथा छोटे लोगों को सँवारकर श्रेष्ठ बनाया है। 

6-कवि ने स्वयं को धागे के समान क्यों माना है ?

उत्तर- ईश्वर का स्वरूप तो अमूल्य है। मन में छिपे भक्ति के भावों से उस स्वरूप का गुणगान किया जा सकता है। भक्त तो उस धागे के समान है जो भक्ति के अमूल्य मूर्तियों को ईश्वर नाम के रूप में पिरोता है। 

ईश्वर अपने गुणों से अपने भक्तों को तरह-तरह से प्रभावित करता है। वे सारे गुण ही मोतियों के समान हैं जिन्हें भक्ति भावना रूपी धागे से भक्त पिरोता है इसलिए रैदास ने स्वयं को धागा माना है।

प्रश्न 7 - कवि ने सोने पर सुहागे की बात किस संबंध में कही है व क्यों ?

उत्तर - सोने व सुहागे का आपस में बहुत गहरा संबंध है। लेकिन सुहागे का अपना अलग से कोई अस्तित्व नहीं होता है। परंतु जब वह सोने के साथ मिल जाता है तो उसमें चमक उत्पन्न कर देता है। 

जिस कारण उसका महत्व बढ़ जाता है, उसी प्रकार कवि का स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं था, किंतु ईश्वर की भक्ति करके उसकी आत्मा का परमात्मा से मेल हो गया है। उसका जीवन सफल हो गया। 

प्रश्न 8 - रैदास ने 'गरीब निवाजु' किसे और क्यों कहा है?

उत्तर- कवि 'गरीब निवाजु' ईश्वर को कहता है क्योंकि वही गरीब व दीनों का रखवाला है।

 प्रभु की कृपा से हमारे सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। समाज में हमें सम्मान प्राप्त होता है।

 नीच लोग भी प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगते हैं। ऐसे लोगों पर प्रभु इतनी कृपा बरसाते हैं कि अछूत व नीच होते हुए भी प्रतिष्ठित हो जाते हैं। 

प्रश्न 9- रैदास द्वारा रचित 'अब कैसे छूटे राम नाम रट लागी' पद का प्रतिपाद्य लिखिए। 

उत्तर - प्रस्तुत पंक्ति में कवि रैदास ने ईश्वर के साथ संबंध स्थापित कर लिया है। 

कवि को प्रभु के नाम की धुन लग गई है। वह केवल प्रभु को ही स्मरण करना चाहते  हैं। 

प्रभु के नाम की लगन (रट) को अब वह छोड़ नहीं सकते क्योंकि प्रभु के साथ कवि उसी प्रकार मिल गए हैं जैसे चंदन के साथ पानी मिल जाता है यानी कवि के मन से अब राम नाम कभी नहीं  हटेगा। 

प्रश्न 10- 'जाकि छोति जगत कउ लागै'-  रैदास की पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। 

उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति में कवि रैदास कहते हैं कि कुछ लोगों को संसार में अछूत माना है, नीच तथा तुच्छ माना है, कवि स्वयं के साथ-साथ कबीर, नामदेव, त्रिलोचन, सधना  कसाई तथा सैनु नाई की भी बात कर रहे हैं। 

ऐसे नीच लोगों का उद्धार करके ईश्वर ने उन्हें राजाओं जैसा सम्मान दिलवाया है।

 जिस प्रकार राजा सिर पर छत्र धारण करके प्रतिष्ठित हो जाता है, उसी प्रकार ये लोग भी ईश्वर की कृपा पाकर संसार रूपी सागर से तर चुके हैं। 

प्रश्न 11- कवि रैदास के प्रभु निडर कैसे हैं ? 

उत्तर- रैदास ने प्रभु को निडर इसलिए कहा है क्योंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, दयालु हैं, छोटे-बड़े, नीच-ऊँचे सब पर कृपादृष्टि डालते हैं। 

वे सबका उद्धार करते हैं। निम्न वर्ग के लोगों को उठाकर इस प्रकार प्रतिष्ठित करते हैं कि उनकी तुच्छता उनकी  प्रतिष्ठा के समक्ष टिक नहीं पाती । 

जब ईश्वर सबका उद्धार और कल्याण करते हैं, तो फिर उन्हें डर कैसा?   

प्रश्न 12- 'चंदन की सुगंध अंग-अंग में बसने से' पंक्ति  का भाव स्पष्ट कीजिए। 

उत्तर- कवि ने प्रभु को तथा स्वयं को पानी बताया है। चंदन के साथ पानी मिलने पर, पानी के कण-कण में चंदन की सौगंध बस जाती है। पानी भी सुगंधित हो जाता है।  

उसी प्रकार तुच्छ या नीच लोग जब ईश्वर की कृपा प्राप्त कर लेते हैं, तब वे नीच नहीं रहते। 

उनका उद्धार हो जाता है। 

प्रश्न13- रैदास की भक्ति में से कौन-सा भाव उभरकर सामने आता है ? 'रैदास के पहले पद'  से प्रमाण दीजिए। 

उत्तर- कवि रैदास द्वारा रचित पंक्ति- प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, में कवि द्वारा प्रभु को स्वामी तथा स्वयं को दास या सेवक बताया गया। 

कवि कहते है कि मैं प्रभु का दास हूँ और उनकी कृपा प्राप्त करना चाहता हूँ।

 भगवान के चरणों में कवि अपनी दास्य भक्ति को अर्पित कर रहे हैं। 

प्रश्न 14- 'जैसे चितवत चंद चकोरा' पंक्ति से कवि का क्या अभिप्राय है ?

उत्तर - इस पंक्ति से कवि यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि जिस प्रकार चकोर पक्षी बिना पलकें झपकाए, एकनिष्ठ होकर चंद्रमा की ओर ताकता रहता है, 

-उसी प्रकार भक्त भी एकाग्रचित्त होकर अपने प्रभु के मुख-चंद्र की ओर निहारना चाहता है। 

 इसी कारण भक्त का ध्यान प्रभु-भक्ति से एक पल के लिए भी नहीं हटता। 




Monday, 17 May 2021

शब्दों का प्रभाव/सूझबूझ/तकलीफ़ का अहसास - लघु कथाएँ

 Top Best Famous Moral Stories In Hindi  

शब्दों का प्रभाव

राजा भद्र सिंह प्रजा पालक एवं न्याय प्रिय थे किंतु उनका पुत्र निर्दयी था। राजपूत्र होने के कारण उसकी शिकायत करने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता था लेकिन राजा तक यह बात पहुँच ही गई।राजा ने इसे सुधारने के लिए अनेक उपाय किए परंतु उसे सुधार न सके। राजा बहुत चिंतित हो चुके थे और दुखी रहने लगे थे। सौभाग्य से कुछ दिन बाद औषधाचार्य  नामक एक ऋषि उस राजा के पास रहने आए। ऋषि ने राजा से मुलाकात की। राजा ने ऋषि के सामने अपनी समस्या को रखा। राजा की परेशानी को सुनकर ऋषि ने राजपुत्र को रास्ते पर लाने का निश्चय किया। उन्होंने उसी दिन से  राजपुत्र को सुधारने का प्रयास करना शुरू कर दिया परंतु उनके प्रयास का कोई  परिणाम  न निकला। 

एक दिन औषधाचार्य ऋषि उस राजपूत के साथ उद्यान में भ्रमण कर रहे थे, तभी उस बालक ने एक नन्हे पौधे से पत्तियाँ तोड़कर मुँह में डालकर चबानी शुरू कर दी। पत्तियाँ बहुत कड़वी थीं। क्रोध में आकर उसने पौधों को जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया। इस हरकत से बहुत नाराज हुए और उसे डाँटने लगे। 

उद्दंड बालक बोला कि इसकी पत्तियों की वजह से मेरा सारा मुँह कड़वा हो गया है इसलिए मैंने इसे जड़ से ही उखाड़ दिया। ऋषि की बातें सुनकर कुछ गंभीर हो गए फिर कुछ सोचकर बोले, "पुत्र!  यह तो केवल औषधि का पौधा है। इसके पत्तों के अर्क से औषधि बनाई जाती है जो अनेक असाध्य रोगों को दूर करने का काम करती है। तुम्हें इसकी कड़वाहट तुम्हें पसंद नहीं आई। पर क्या तुमने कभी अपने स्वभाव के बारे सोचा, कि तुम सबसे  कैसा व्यवहार करते हो  ? तुम्हारे इस व्यवहार के कारण तुम्हारे पिता का प्रजा में कितनी निंदा हो रही है।"

ऋषि के शब्दों ने जादू का काम किया। उनके शब्द उस उद्दंड बालक के हृदय को छू गए। और उसी पल, उसी क्षण से उसके जीवन की दिशा बिलकुल बदल गई। अब वह अपने नीतिवान पिता का वास्तविक उत्तराधिकारी बनने के लायक हो गया और सबके साथ उचित व्यवहार करके सबका दिल जीतने का  प्रयास करने लगा। 


सूझबूझ 

 एक नेताजी सुभाष चंद्र बोस इंग्लैंड में आई.पी.एस का इंटरव्यू देने के लिए गए थे। जब उनकी बारी आई तो वे अंग्रेज़ अधिकारियों के सामने पहुँचे।  इंटरव्यू के लिए वे उन अंग्रेज अधिकारियों के सामने बैठते हैं। उन्हें देखकर एक अंग्रेज़ अधिकारी ने व्यंग्य से उनकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए प्रश्न पूछा, "बताओ कि छत पर लगे के पंखे में कुल कितनी पंखुड़ियाँ हैं।"

 इस प्रकार के प्रश्न को सुनकर नेताजी की नजरें यकायक पंखे पर चली गईं। पंखा उस समय पंखा बहुत तेज गति से चल रहा था। वे उस पंखें की तरफ देखते हैं। वहाँ बैठे एक अधिकारी ने कहा कि यदि आप इसकी सही संख्या हमें नहीं बता पाए तो इस इंटरव्यू में फेल हो जाओगे। 

वहीं बैठे एक और सदस्य ने कहा, "भारतीयों में बुद्धि होती ही कहाँ है।" सुभाष चंद्र ने उनकी बातें सुनकर निर्भीकता उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि अगर मैंने इसका सही उत्तर दे दिया तब आप भी मुझसे कोई दूसरा प्रश्न कर ही नहीं पाएँगे  और साथ ही आपको मेरे सामने यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि भारतीय न सिर्फ बुद्धिमान होते हैं बल्कि वे धैर्य और निर्भीकता से हर प्रश्न का उत्तर ढूँढ ही लेते हैं। उनकी बातें सुनकर अंग्रेज काफी आश्चर्यचकित हुए और उन्होंने कहा आप उत्तर तो दें यदि आप उत्तर दे सके तो हम आपकी बात मान लेंगे।  

अंग्रेजो के द्वारा उत्तर माँगने पर सुभाष चंद्र बोस अपनी जगह से उठे और उन्होंने चलता पंखा बंद कर दिया। जैसे ही पंखा रुका उन्होंने पंखे की पंखुड़ियों की संख्या  उन अधिकारियों को बता दी। 

 इस प्रकार सुभाष चंद्र द्वारा दिए गए जवाब से वे आश्चर्यचकित रह गए। सुभाष की विलक्षण बुद्धि, सूझबूझ और साहस को देखकर इंटरव्यू में बैठे बोर्ड के सदस्य फिर उनसे कोई प्रश्न करने लायक नहीं रहे और न ही कोई दूसरा प्रश्न पूछ पाए। इसके साथ उन्हें यह बात भी स्वीकार करनी पड़ी कि भारतीयों के पास बुद्धि, साहस और आत्मविश्वास होता है जिससे वे हर मुसीबत का हल खोज ही लेते हैं। 

तकलीफ़ का अहसास 

 एक राजकुमार की जब आश्रम में शिक्षा पूरी हो गई तो उसके पिता महाराज स्वयं उसे लेने के लिए आश्रम में पहुँचे। उस राजकुमार को शिक्षा दे रहे गुरु ने महाराज से कहा, "राजन! इसकी शिक्षा तो पूरी हो गई है, लेकिन एक सबक अभी भी इसको  देना बाकी रह गया है। वह भी अभी पूरा हो जाएगा।"

यह बात राजन से कहकर वे कुटिया के अंदर गए और एक कोड़ा अपने साथ  लेकर बाहर आए।  उन्होंने ज़ोर से राजकुमार की पीठ पर दो बार कूड़े जड़ दिए। उसके बाद उन्होंने राजकुमार को आशीर्वाद दिया और उसे वहाँ से विदा किया। आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा, "जाओ वत्स! तुम्हारा कल्याण हो।  

वहाँ से जाने से पहले राजा ने गुरु से इसका कारण पूछना चाहा। उन्होंने गुरु से कहा,  "अगर मेरा अपराध क्षमा हो, तो मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि आपने किस कारण से राजकुमार कोड़े जड़े ? गुरुवर! आपका यह व्यवहार मेरी समझ में नहीं आया । 

उनकी बात सुनकर गुरुदेव बोले, "महाराज! इसे आगे चलकर शासन करना है, राजा बनना है और जब यह राजा बनेगा तो न्याय भी करेगा, लोगों को दंड भी देगा। राजन, इसे पता होना चाहिए कि मार की तकलीफ क्या होती है। 

 राजा एक बहुत ही बुद्धिमान और नेक व्यक्ति थे। वे गुरु की बात सुनकर उनकी बात से सहमत हो गए और वे समझ गए कि गुरु उस राजकुमार को क्या सीख देना चाहते हैं।

Sunday, 16 May 2021

जब शेख मेहमान बना -शेखचिल्ली और उसके किस्से

Top Best Famous Moral Stories In Hindi  
 जब शेख मेहमान बना 
शेखचिल्ली की बेगम फौजिया एक महीने के लिए अपने मायके जा रही थी। 
शेख की अम्मी भी उसके साथ जाना चाहती थीं, लेकिन वे शेख को घर में अकेले  छोड़ना भी नहीं चाहती थीं।वे दोनों ही शेख की करामातों को अच्छी तरह से जानती थीं।
 जब शेख को पता चला कि वे दोनों किसलिए परेशान हैं  तो वह बोला, "अम्मी, बेगम, तुम लोग बेकार की चिंता कर रही हो। मैं आराम से घर संभाल लूँगा।
 
" याद है तुमने क्या किया था ? जब पिछली बार हम तुम्हें अकेले छोड़ गए थे तो  घर में आग लगते-लगते बची थी, फौजिया बोली, "हम तुम्हें अकेले कैसे छोड़ सकते हैं वह भी पूरे एक महीने के लिए ?"

 "चिंता न करो, बेगम।" शेख बोला, "मैं अपनी भी देखभाल कर सकता हूँ और इस घर की भी।  
लेकिन अगर तुम लोग फिर भी मुझे अकेला छोड़ना नहीं चाहती हो तो मैं अपने पुराने दोस्त और चचेरे भाई इरफान के घर रहने चला जाऊँगा। 
फिर तुम अपने मायके में जितने दिन चाहो, आराम से रह सकती हो।" 

"हाँ! यह ठीक रहेगा," फ़ौजिया बोली, "परंतु हमारे लौटने से पहले तुम वापिस आ जाना।"

शेखचिल्ली का चचेरा भाई इरफान पास के एक गाँव में अपनी बीवी और दो बच्चों के साथ रहता था। 
उसकी कपड़ों की एक छोटी-सी दुकान थी, जिसके सहारे वह अपना घर चलाता था। 
इरफान ने अपने बचपन के कई दिन शेख और उसकी अम्मी के साथ गुजारे थे।
 
जब इरफान ने देखा कि शेख उसके घर आया है तो वह बहुत खुश हुआ और शेख का स्वागत करता हुआ बोला, " शेख! यहाँ इतने दिनों बाद? पिछली बार हमारी मुलाकात तुम्हारी शादी पर हुई थी। 
लेकिन तुम अकेले आए हो । भाभीजान कहाँ हैं? " 
 " वे दोनों ठीक हैं । बेगम मम्मी के साथ अपने मायके गई हैं । "

"अच्छा! तभी तुम्हें अपने भाई की याद आई है।  
इरफान मुस्कुराकर बोला और शेख  को अपने घर के अंदर ले गया।  
उसे खूब याद था कि जब वह शेख के घर में था तो उसने और अम्मीजान ने उसकी खूब खातिरदारी की थी और उसे खूब प्यार से रखा था। 
आज उसे शेख की आवभगत  करके वह अहसान चुकाने का मौका मिला था। 

शेख के पहले कुछ दिन बहुत खूब आराम से गुजरे। 
लेकिन जब शेख ने कई दिनों तक जाने का नाम नहीं लिया तो इरफान की बीवी परेशान हो गई।
उसने कई बार शेखचिल्ली को दबी जुबान में इशारा भी किया कि उसके इतने दिनों तक टिके रहने से उसे परेशानी हो रही है, लेकिन शेखचिल्ली था कि उसे कुछ समय कि वह कुछ समझने को तैयार नहीं था। 
तंग आकर इरफान की बीवी इरफान के पास जाकर बोली, "तुम्हारा चचेरा भाई कितने दिनों तक यहाँ पड़ा-पड़ा रोटियाँ तोड़ता रहेगा?  
उसे कोई काम-धंधा नहीं है क्या, जो दिन-रात बेशर्मी से यहीं पड़ा रहता है।"

अपनी बीवी की बात सुनकर इरफान हँसता हुआ बोला, "गुस्सा न करो, बेगम! जब मैं छोटा था, तब बहुत दिनों तक शेख और उसकी अम्मी के साथ रहा था और उन्होंने बड़े प्यार से मुझे रखा था। 
आज मुझे उनके उस अहसान का बदला चुकाने का मौका मिला है। फिर तुम चिंता क्यों करती हो ? 
पूरा दिन तो वह मेरे साथ दुकान पर बैठा रहता है और शाम को बच्चों की देखभाल करने में तुम्हारी मदद भी करता है।"

 "वह तो सब ठीक है, लेकिन तुम क्या यह नहीं समझते कि उसके यहाँ पड़े-पड़े खाने से हमारा खर्च बढ़ रहा है। हमें यह भी तो देखना पड़ेगा।"
 "चिंता कैसी, बेगम? मेरे ख्याल से मैं इतना मैं इतना कमाता हूँ कि एक मेहमान के खाने का खर्च आराम से उठा सकता हूँ।"
 लेकिन इरफान की दलीलों का उसकी बीवी पर कोई असर नहीं पड़ा।  
वह बड़बड़ाती हुई वहाँ से चली गई। 
इसी तरह कुछ दिन और गुजर गए। एक दिन जब इरफान दुकान बंद करके लौटा तो उसने देखा कि उसकी बीवी अपनी बच्चों के साथ कहीं जाने की तैयारी कर रही थी। 
यह देखकर इरफान ने हैरत से पूछा, "तुम कहाँ जाने की तैयारी कर रही हो, बेगम ?" तब उसकी बीवी मुस्कुराती हुई बोली, "मैंने शेख को भगाने की एक तरकीब खोज निकाली है।
लेकिन उस तरकीब में मुझे तुम्हारा साथ भी चाहिए।" इरफान ने अपनी बीवी को समझाने की कोशिश की, लेकिन जब वह न मानी तो उसे मजबूरन उसका साथ देने के लिए हामी भरनी पड़ी। 

फिर भी फिर भी दोनों शेख के पास जा पहुँचे। 
इरफान की बीवी शेख से बोली, "भाईजान, अभी-अभी खबर मिली है कि मेरे अब्बा की तबीयत अचानक खराब हो गई है। इसलिए हम दोनों को उन्हें देखने के लिए जाना पड़ेगा।"

"खुदा आपके अब्बा को अच्छी सेहत बक्शे," शेख बोला, "आप घर की चिंता छोड़ कर आराम से जाइए। 
आप लोगों की नामौजूदगी में मैं घर की अच्छी तरह देखभाल करूँगा ।"

शेख की बात सुनकर इरफान की बीवी के चेहरे की मुस्कुराहट गायब हो गई।  
उसका ख्याल था कि उनके जाने की बात सुनकर शेख भी यहाँ से रुखसत होने को कहेगा, लेकिन शेख की बात सुनकर वह घबरा गई। 
वह जानती थी कि किस तरह एक बार शेख ने अपनी अम्मी और बीवी की नामौजूदगी में अपने ही घर में आग लगा दी थी। 
वह फिर बोली, "लेकिन भाईजान आप यहाँ रहेंगे कैसे ? अब तो घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है। 
बेहतर तो यही होगा कि आप अपने घर लौट जाएँ ।"
"बात तो आपकी सोलहों आने दुरुस्त है । लेकिन परेशानी यह है कि मेरे घर में भी इस वक्त कोई नहीं है ।"
उसी रात इरफान अपने परिवार के साथ यात्रा पर चला गया । सुबह घर छोड़ने से पहले शेख के मन में घर की साफ-सफाई करने का ख्याल आया ।जब वह बिस्तर झाड़ रहा था, तभी उसे एक चाबी मिली । वह उस चाबी को तुरंत पहचान गया । वह तो रसोई की अलमारी की चाबी थी। जब उसने अलमारी खोली तो पाया कि उसमें  कई दिनों का राशन मौजूद था । 

अब तो शेख को वहाँ से जाने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी । अब वह आराम से वही बनाता-खाता और चारपाई तोड़ता । 
कुछ दिनों बाद इरफान अपने परिवार के साथ लौट आया।  

शेख को वहीं मौजूद देख कर इरफान की बीवी  भौंचक्की  रह गई, लेकिन उसने उस समय चुप रहना ही मुनासिब समझा। 
इसी तरह कुछ दिन और गुजर गए इरफान की बीवी के सब्र का बांध टूटता जा रहा था। 

एक शाम वह बिस्तर पर लेटकर ज़ोर-ज़ोर से कराहते हुए अपने शोहर से बोली, "उफ़! मेरे सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है। 
यह बिल्कुल वैसा ही दर्द है, जैसा एक बार शेख भाईजान की मम्मी को हुआ था। 
भाईजान से कहिए कि वे जाकर उसी हकीम को खबर करें, जिसने उनकी अम्मी का इलाज किया था। 
उन्हें वापिस आने की तकलीफ करने की भी जरूरत नहीं हैक्योंकि दवाएँ तो हम किसी और को भेजकर भी मंगवा लेंगे। 
हाय! मैं अब यह दर्द और बर्दाश्त नहीं कर सकती।"
जब शेख को अपनी भाभीजान के दर्द का पता चला तो वह भागता हुआ वहाँ आया और उससे बोला, "चिंता न करो, भाभीजान! मैं कल तड़के ही हकीम को लाने के लिए चल दूँगा।  
तुरंत इसी वक्त जाना मुनासिब नहीं है क्योंकि अँधेरा  घिर चुका है लेकिन आप बिल्कुल भी चिंता न करिए। 
आपके लिए हकीम का इंतजाम करने की जिम्मेदारी अब मेरी है।"

अगले दिन तड़के जब इरफान शेख को जगाने के लिए उसके कमरे में गया तो उसने शेख के बिस्तर को खाली पाया। 
यह देखकर उसने तुरंत अपने बेगम को बुलाया, "बेगम शेख तो पहले ही यहाँ से जा चुका है।"
 
उसकी बेगम को तो अपने कानों पर भरोसा ही नहीं हुआ। 
बहुत भागती हुई वहाँ आई और शेख का बिस्तर खाली देखकर हँसते हुए बोली, "मैं कौन-सी बीमार थी? 
मैं तो सिर्फ बीमार होने का ढोंग कर रही थी ।" 

तभी शेख भी बिस्तर के नीचे से बाहर निकल आया और बोला, "तो मैं भी कौन-सा गया था ? 
मैं तो सिर्फ जाने का नाटक कर रहा था रहा था ।"

Saturday, 15 May 2021

ख़ुशी के आँसू - लघुकथा

Top Best Famous Moral Stories In Hindi  

ख़ुशी के आँसू 

गली-गली सब्जी बेचते हुए सब्जी वाला एक गली से गुज़रा उसने एक बड़ी-सी इमारत की पाँचवीं मंजिल के घर की घंटी बजाई।ऊपर से बालकनी का दरवाजा खुला और एक महिला बाहर आई। उस महिला ने नीचे झाँककर देखा...सब्जी वाले ने महिला की और देखते हुए कहा:"बहन! सब्जी लाया हूँ। नीचे आकर सब्जी ले लो ...

बताओ बहन क्या तौलना है? क्या कोई और सब्जी वाला यहाँ सब्जी देने आता है क्योंकि आप तो मुझसे सब्जी लेती थीं पर आपने तो बहुत दिनों से मुझसे कोई सब्जी नहीं खरीदी। 

सब्जी वाला नीचे चिल्लाकर बोला ।सब्जीवाले की बात सुनकर महिला बोली:"रुको भाई! मैं नीचे आकर बात करती हूँ ।"

महिला इमारत से नीचे गली में आई। गली में खड़े सब्जी वाले के पास जाकर वह कहने लगी -"भाई!  अब हमारी घंटी मत बजाना । हमें अभी सब्जियों की ज़रूरत नहीं है।"

"यह कैसी बात कर रही हो आप दीदी! सब्ज़ी खाना तो बहुत ज़रूरी है। सच बोलो दीदी, क्या तुम किसी और से सब्जी लेती हो?" सब्जी वाले ने महिला से कहा।

"नहीं भाई! दरअसल बात यह है कि उनके(पति) पास अभी कोई काम नहीं है और किसी तरह हम खुद को इस हालात में जीवित रख रहे हैं। 

लेकिन जब सब कुछ ठीक होने लगेगा, पति काम पर जाएँगे और घर में कुछ पैसे आने लगेंगे, तब मैं तुमसे ही सब्जी लूँगी । आप इस तरह से घंटी बजाते हो  तो उन्हें बहुत बुरा लगता है, अपनी  मजबूरी पर उन्हें दुख होता है। इसलिए भाई, अब से हमारी घंटी मत बजाना ।" यह बात कहकर वह महिला अपने घर वापस लौटने लगी।

"अरे दीदी! थोड़ा रुको। हम इतने सालों से तुम्हें सब्जियाँ दे रहे हैं। जब आपका दिन अच्छा रहा, तो आपने हमसे बहुत सारी सब्जियाँ और फल ले लिए। अब अगर आपको कोई समस्या है, तो क्या हम आज छोड़ देंगे। तुम ऐसे ही हो?

 अरे दीदी, हम सब्जी वाले हैं, कुछ नेता हैं, जिन्हें आज जब आपको मेरी जरूरत है, तो हम आपको ऐसे ही छोड़ देते हैं, परेशान। दीदी, दो मिनट रुको। ”

और एक बैग में टमाटर, आलू, प्याज, घी, कद्दू और करेला डालने के साथ ही सब्जी वाले ने उसमें धनिया और मिर्च डाली।.यह सब देखकर महिला हैरान रह गई। 

उसने सब्जीवाले से तुरंत कहा- "भैया! इसे तोलो तो सही, तुम मुझे उधार सब्जी दे रहे हो, कम से कम इसे तोलो, और मुझे इसके पैसे भी बताओ। मैं तुम्हारा सब्जी का हिसाब लिख लूँगी । 

भैया जब मेरे हालात ठीक हो जाएँगे, तब आपके सब्जी के सारे पैसे मैं आपको दे दूँगी ।" उस महिला ने सब्जी वाले कहा।"वाह... क्या हुआ बहन ? 

मैंने सब्जी इसलिए नहीं तोली क्योंकि कोई मामा अपनी भतीजी और भतीजे से पैसे नहीं लेता है। और बहन! मैं भी कोई एहसान नहीं कर रहा हूँ। यह सब, यहीं से उसने कमाया है, इसलिए उसने आप में उसका हिस्सा है।

मैं यह थोड़े से 'आम' गुड़िया के लिए और कुछ 'मौसम्बी' भतीजे के लिए सब्जी के साथ रख रहा हूँ ।बच्चों का अच्छे से ख्याल रखना बहन। यह कोरोना रोग बहुत ही बुरा है। और हाँ, एक बात और सुन.लो .. मैं यहाँ से जब भी निकलूँगा तो तुम्हारी घंटी जरूर बजाऊँगा । "

सब्जी वाले ने हँसते हुए उस महिला के हाथ में दोनों थैले पकड़ा दिए। महिला की आँखों में लाचारी व मज़बूरी की जगह स्नेह के आँसू भर आए थे ।

Friday, 14 May 2021

HINDI NCERT SOLUTIONS CLASS 8, 9,10 SPARSH अनुस्वार, अनुनासिक, विसर्ग,नुक्ता परिभाषा व नियम /ANUSVAR, ANUNASHIK, VISRAG, NUKTA

अनुनासिक:

अनुनासिक स्वरों को उच्चारित करते समय वायु मुँह तथा नासिका दोनों से निकलती है। 

* इसका  लिखित चिह्न चंद्रबिंदु है।

जैसे-   

ऊँगली,  काँटा,   पाँव  आदि।

*अनुनासिकता स्वरों का एक गुण है 
*अनुनासिक व्यंजन नहीं है बल्कि स्वर का गुण है।   
*शिरोरेखा के ऊपर मात्रा लगने पर उनमें चंद्रबिंदु की जगह बिंदु का प्रयोग किया जाता है। 

जैसे-

सिंचाई, सींचना, भैंस, घोंसला, रेंगना, धौंस

  

*हिंदी में अनुनासिकता के तीन रूप :

(i) बहुवचन बनाने के लिए :

गुड़िया- गुड़ियाँ


बहू -बहुएँ


तितली-तितलियाँ


नदी - नदियाँ


ii) अर्थ परिवर्तन के संदर्भ में :


सवार-सँवार     


बाट - बाँट


चौक - चौंक


उगल - उँगली


(iii) उच्चारण के संदर्भ में:


हँसी, महँगा, कुँआचाँदलहँगा, लेखकों

                  

    * अनुनासिक के कुछ नियम:

(i)  शिरोरेखा से बाहर मात्राओं का कोई हिस्सा बाहर न होने पर चंद्रबिंदु का

प्रयोग किया जाना चाहिए।  

 जैसे-

गाँव,   ऊँटचाँद  आदि।  


  

(ii) शिरोरेखा के ऊपर अनुनासिक का प्रयोग :

 

कोंपल, में, उन्हें, मैंने, मैं,  हैं, 

 

(iii) अनुनासिक शब्दों का प्रयोग :

अ, आ, उ, ऊ तथा ऋ स्वर के साथ।

जैसे : आँगन, घूँघट, कुँवारा आदि।


अनुस्वार:

जिन स्वरों को उच्चारित करते समय वायु नाक से निकलती है और उस स्वर का उच्चारण ज़ोर से किया जाता है, उसे अनुस्वार कहते हैं।


*अनुस्वार शब्द का अर्थ है -स्वर के बाद आने वाला। इसलिए यह शब्द के मध्य तथा अंत में ही आ सकता है किंतु शुरू में नहीं आ सकता है। इस ध्वनि का अपना कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता। इसका उच्चारण इसके आगे आने वाले व्यंजन से प्रभावित होता है। यह जिस व्यंजन के पहले आता है, उसी व्यंजन के वर्ग की नासिक्य ध्वनि के रूप में इसका उच्चारण करते हैं।

* अनुस्वार के स्थान पर बिंदु रूप का प्रयोग होता है।

जैसे: व्यंजन, ग्रंथ आदि।

* अनुस्वार के पश्चात जो व्यंजन आता है, उसी वर्ग का पाँचवा वर्ण अनुस्वार( ं) के रूप में प्रयोग किया जाता है।


* अनुस्वार का स्थान नासिका  है। 

* उच्चारण की दृष्टि से अनुनासिक प्रायः अनुस्वार का ही समकक्ष है। अनुस्वार भी न् या म् के स्थान में होता है और अनुनासिक भी न् या म् के स्थान में  होता है। अंतर केवल इतना ही है कि अनुस्वार का प्रयोग तो साधारण रूप में सर्वत्र होता है परंतु अनुनासिक का प्रयोग उन्हीं संधि-स्थलों में होता है जहाँ म् को य्, व् और ल के परे होने पर पर परसवर्ण होता है। 

*य, र, ल, व (अंतस्थ) और श, ष, स, ह(ऊष्म) के पहले आने पर अनुस्वार का उच्चारण पाँचवें वर्ण में से किसी भी एक वर्ण की तरह हो सकता है। इसका कोई निश्चित नियम नहीं है। 
*जैसे : संसार में 'न्' की तरह, संवाद में 'म्' की तरह और शब्द के अंत में आने पर 'स्वयं' जैसे शब्द में इसका उच्चारण 'म्' की भाँति होता है। 
संस्कृत में अनुस्वार को 'बिंदु' तथा पंचम व्यंजन दोनों से ही लिखने की परंपरा है। 
*अनुनासिक और अनुस्वार का मुख्य अंतर यह है कि अनुनासिक स्वर (Vowel) है तथा अनुस्वार मूल रूप से व्यंजन (Consonant )है। इन दोनों के प्रयोग से कहीं-कहीं अर्थ भेद पाया जाता है। 

*हिंदी लेखन को सरल और समान बनाने के लिए अनुस्वार की जगह वर्ण के ऊपर बिंदु लगाकर मानक वर्तनी में स्थान दिया गया है। 

विसर्ग (:) 

* विसर्ग को 'ह्' की तरह उच्चारित किया जाता है। 
जैसे - मनःस्थिति 
जो शब्द उसी रूप में प्रचलित हैं उन्हीं का संस्कृत शब्दों में  विसर्ग के रूप में प्रयोग  होता है । 
जैसे - संभवतः 
बीच के विसर्ग को हिंदी में हटा दिया गया है। 
जैसे- संस्कृत के दुःख शब्द को हिंदी में दुख लिखा जाना स्वीकार कर लिया गया है। 

 नुक्ता :
* अंग्रेज़ी भाषा की तरह उर्दू भाषा से अरबी, फ़ारसी शब्दों का हिंदी में सहजता से प्रयोग किया जाता है। इन शब्दों को उच्चारित करने के लिए व्यंजन के नीचे बिंदु का प्रयोग किया जाता है। व्यंजनों के निचले स्थान पर लगाया जाने वाला यह बिंदु 'नुक्ता' कहलाता हैं। 

अभ्यास कार्य :
1. उचित अनुस्वार चिह्न वाले शब्द चुनिए  -
(i) महंगाई, पत्रिकाएं, सकंलित, संतुलन 
(ii) कंपन, सभांवना, महांमत्री, मडंली 
(iii) संकलित, अंत्यत, पडितं, सयोंग 
(iv) व्यजंन, चंचल, कहां, भातिं 
(v) कुजं, आशकां, अत्यंत, ऊंचाई 
(vi) सांप, वीरांगना, असभंव, चद्रं
(vii) रगं, आंशका, संभावना, कपंन 
(viii) अभिनदंन, काव्यशं, गांव, दंत 
(ix) दडिंत, संगम, कचंन, सचंय 
(x) मयंक, प्रसगं, सारांश, अकं 
(xi) कँस, कंस, बांस, कबंल 
(xii) कँघा, दंभ, दंभ, दँभ 


उत्तर- (i) संतुलन          (ii) कंपन            (iii) संकलित 
         (iv) चंचल           (v) अत्यंत            (vi) वीरांगना
         (vii) संभावना     (viii) दंत              (ix) संगम
              (x) 
सारांश          (xi) कंस              (xii) दंभ

2.उचित अनुनासिक चिह्न वाले शब्द चुनिए  - 
(i) व्यँजन, ऊँचाई, ऊचाँई, मँहगाई 
(ii) रँगाई, पूँछिए, चँचल, प्रतिज्ञाएं 
(iii) सँभव, पत्रिकाएं, कारवाँ, मँडली 
(iv) साँप, कँहा, आखँ, आँक 
(v) मँहगाई, वस्तुँए, बासँ, बाँस 
(vi) दिनाँक, साँस, गँगा, पूछँ 
(vii) पूँजीपति, सासँ, मनोरँजन, सँतुलन  
(viii) सँहार, चौंक, सँग्राम, अत्यँत
(ix) उँट, आगँन, आँगन, अँधकार 
(x) धुँधले, उगँली, सँगम, काव्याँश
(xi) सँवाद, फूँकना, दाँया, गवाँर  
(xii)आवँला, पँचतन्त्र,सँस्मरण, गाँठ  

उत्तर- (i) ऊँचाई          (ii) रँगाई            (iii) कारवाँ
         (iv) साँप             (v) बाँस             (vi) साँस
         (vii) पूँजीपति     (viii)चौंक           (ix)आँगन
          (x) धुँधले            (xi) फूँकना         (xii) गाँठ