पद
कवि परिचय :रैदास
-संत रैदास जो रविदास के नाम से जाने जाते हैं वे भक्ति कालीन काव्यधारा के निर्गुण भक्ति शाखा के विख्यात संत थे और उनका जन्म सन 1388 में बनारस में हुआ था।
- रैदास भी कबीर की तरह मूर्ति पूजा व तीर्थयात्रा आदि कर्म कांडों में विश्वास नहीं करते थे।
- वे हृदय द्वारा अनुभव की गई अनुभूति और मन से की गई श्रद्धा को ही सच्चा धर्म मानते थे।
-रैदास व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं की कद्र करते थे और धर्म के बाहरी आडंबरों को ढोंग समझते थे।
-सिकंदर लोदी इन से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने इन्हें दिल्ली बुलाया।
-रैदास की रचनाओं में कई भाषाओं का मिश्रण है।
-उन्होंने अपनी रचनाओं में अधिकतर व्यवहारिक ब्रज भाषा का ही प्रयोग किया है परंतु खड़ी-बोली, अवधी, -राजस्थानी तथा उर्दू-फ़ारसी भाषाओं के शब्दों की भी छटा उनके काव्य में दिखाई देती है।
-रैदास सरल और सीधे शब्दों में लिखने वाले कवि थे।
-उन्होंने हृदय के भावों को समझकर बड़े ही स्पष्ट रूप में व्यक्त किया है।
-उपमा और रूपक अलंकारों का स्वाभाविक ढंग से प्रयोग करते हुए कवि ने अपनी सहज भक्ति, आत्मनिवेदन और दैन्यभाव को व्यक्त किया है।
- 'गुरुग्रंथ' साहिब में उनके चालीस पद भी सम्मिलित हैं।
-उनका निधन सन 1518 में बनारस में हुआ।
पद -1
अब कैसे छूटे------------------ भक्ति करै रैदासा।।
भावार्थ:
संत रैदास अपने आराध्य देव की स्तुति करते हुए कहते हैं कि
- हे प्रभु! अब आपका नाम रखने की आदत ऐसी पड़ गई है कि वह किसी हाल में और किसी भी तरह छूट ही नहीं सकती।
-कवि कहते हैं कि अब तो मैं आपका अनन्य भक्त बन गया हूँ।
-अब मैं आपकी भक्ति और नाम जपने से कभी विमुख हो ही नहीं सकता। मैं अब आपसे दूर नहीं रह सकता।
-अपने और अपने आराध्य के बीच संबंधों को रैदास अनेक प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि
-जिस प्रकार चंदन का संपर्क प्राप्त कर पानी के कण-कण में सुगंध समा जाती है,
- उसी प्रकार मेरे शरीर के प्रत्येक अंग में यानी अंग-अंग में आपके प्रेम व भक्ति की सुगंध समा गई है।
-हे प्रभु! आप उन आकाश में छाए काले घने बादलों के समान हो और मैं जंगल में नाचने वाले उस मोर के समान हूँ। जो काले घने बादलों को देखकर प्रसन्नता से नाच उठता है।
-प्रभु जिस प्रकार बादलों की आहट सुनते ही मोर नाचने लगते हैं,
-उसी तरह मैं भी आपके दर्शन पाते ही, प्रसन्नता से नाच उठता हूँ अर्थात प्रभु भक्ति में भाव-विभोर हो जाता हूँ।
-जैसे चकोर पक्षी बिना पलकें झपकाए चंद्रमा के सौंदर्य को निहारता रहता है,
-वैसे ही मैं अपने प्रभु के सुंदर रूप को निहारता रहता हूँ।
-हे प्रभु! तुम यदि दीपक के समान हो, तो मैं उस दीपक में दिन-रात जलने वाली रुई की बत्ती के समान हूँ,
-जो प्रति पल जलकर दीपक का प्रकाश बिखेरती है।
- ठीक उसी प्रकार एक भक्त दिन-रात अपने प्रभु की भक्ति के प्रेम में लीन होकर उनकी भक्ति के इस अलौकिक प्रकाश को पूरे संसार में बिखेरता है।
-हे प्रभु! आप मोती के समान पवित्र, उज्ज्वल, सुंदर और बहुमूल्य हो, तो मैं आपका भक्त उस मोती में पिरोया हुआ धागा हूँ।
-हे प्रभु! आपका और मेरा मिलन उस प्रकार का है जैसे सोने में सुहागे को मिलाया जाता है।
-जिस प्रकार सोने में सुहागे को मिला देने से उसमें और निखार आ जाता है तथा वह और अधिक टिकाऊ, खरा और उपयोगी हो जाता है।
-उसी प्रकार प्रभु के संपर्क में आने से हर भक्त की भक्ति और निखर उठती है।
-हे प्रभु! आप मेरे स्वामी हैं, मैं आपका दास हूँ।
-मैं रैदास इसी प्रकार की दास्य भाव की भक्ति अपने प्रभु, अपने ईश्वर को समर्पित करता हूँ।
काव्य-सौंदर्य/शिल्प-सौंदर्य:
(i) ब्रज, अवधी व राजस्थानी मिश्रित भाषा का प्रयोग किया गया है।
(ii) सरल, सहज व रोचक भाषा का प्रयोग किया गया है।
(iii) भावात्मक व उदाहरणात्मक पद की शैली का प्रयोग है।
(iv) उपमा अलंकार द्वारा तुलनात्मक भावों को दर्शाया गया है।
पद -2
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
---------------------ते सभै सरै।।
भावार्थ:
-प्रभु की असीम कृपा का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि
- स्वामी! आपके अतिरिक्त दीन-हीन भक्तों पर ऐसी कृपा और कौन कर सकता है?
-ऐसी कृपा तुम्हारे अलावा कोई ओर नहीं कर सकता है।
-हे गरीब निवाजु! हे स्वामी!! हे प्रभु!! आप ही ऐसे दयालु तथा गरीबों पर दया दृष्टि रखने वाले हो,
-जिसने मेरे जैसे तुच्छ,नीच व अछूत व्यक्ति के सर पर राजाओं के समान छत्र रख दिया है।
-अर्थात जिसे यह संसार अछूत मानता है, आप उसी पर कृपा कर उसे इस संसार में उच्च बना देते हो और उसे राजाओं जैसा सम्मान प्रदान करते हो।
-तुमने मुझ जैसे तुच्छ प्राणी को भक्त के रूप में अपनाकर मुझ पर अपार कृपा की तथा मुझे संसार में उच्च स्थान प्रदान किया है।
-हे स्वामी! आपने अपनी असीम कृपा मुझ जैसे दीन पर की है।
-कवि उन्हें ईश्वर की दयालुता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि
-हे प्रभु! जिसके छूने मात्र से संसार के लोग अपवित्र हो जाते हैं,
-ऐसे मुझ अछूत पर तुम ही द्रवित हुए और तुमने ही अपनी दया दृष्टि दिखाई।
- हे गोविंद! आपने ही मेरे जैसे तुच्छ,नीच और अछूत व्यक्ति को बिना किसी से डरे संसार में इतना उच्च स्थान प्रदान किया है।
-ऐसा करते हुए आपको किसी का भय भी नहीं हुआ।
-आपकी ही कृपा से संत नामदेव, कबीर जैसे जुलाहे, त्रिलोचन जैसे सामान्य, साधना जैसे कसाई और सैनु जैसे नाई संसार रूपी सागर से तर गए अर्थात मुक्त हो गए।
-उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। प्रभु की कृपा और भक्ति के आलोक से उनका जीवन सँवर गया।
- रैदास जी कहते हैं कि यह संतो! सुनो, हरि जी की कृपा से ही सब कुछ संभव है यानी हरि जी सब कुछ करने में समर्थ हैं।
-वे कुछ भी कर सकते हैं। उनकी कृपा से ही निम्नकोटि के भक्त का जीवन भी सँवर जाता है।
काव्य-सौंदर्य/शिल्प-सौंदर्य:
(i) प्रभु की कृपालुता और भक्त वत्सला को वाणी प्रदान की गई है।
(ii) सरल, सरल व रोचक भाषा का प्रयोग किया गया है।
(iii) भावात्मक पद की शैली प्रयोग किया गया है।
(iv) अन्य संत कवियों का उल्लेख प्रशंसनीय है।
(v) अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया गया है।
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