HINDI BLOG : सेवा का फल,सच्चा सहयोगी,मलिन मन - लघु कथाएँ

कहानी 'आप जीत सकते हैं'

'आप जीत सकते हैं एक भिखारी पेंसिलों से भरा कटोरा लेकर ट्रेन स्टेशन पर बैठा था। एक युवा कार्यकारी अधिकारी वहाँ से गुजरा और उसने कटोरे में...

Saturday, 8 May 2021

सेवा का फल,सच्चा सहयोगी,मलिन मन - लघु कथाएँ

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1.सेवा का फल 

 इंग्लैंड के एक गाँव में थॉमसन नामक व्यक्ति अपनी  पुत्री के साथ रहते थे। 
थॉमसन की पुत्री का नाम लिली था। लिली बहुत परोपकारी थी। वह  हर सप्ताह शहर जाती थी और वहाँ से खाने-पीने का सामान लेकर आती थी। 
एक दिन जब वह शहर खाने -पीने का सामान लेने गई थी। 
जब वह अपनी घोड़ा गाड़ी पर सामान लादकर गाँव वापस लौट रही थी तब रास्ते में उसने देखा कि एक व्यक्ति सड़क के किनारे दर्द से कराह रहा था। 
वह व्यक्ति बहुत बीमार लग रहा था। लिली को उस पर दया आ गई। उसने उस बूढ़े व्यक्ति को उठाकर अपनी गाड़ी में बिठा लिया और उसे अपने साथ अपने  घर ले आई। 
पिता और पुत्री दोनों ने उस बूढ़े व्यक्ति की खूब सेवा की। उन दोनों की सेवा रंग लाई।  वह बूढ़ा व्यक्ति कुछ दिनों में ही निरोग हो गया।
ठीक होने के बाद बूढ़ा व्यक्ति उन दोनों का धन्यवाद करके वहाँ से चला गया। 
कुछ दिनों बाद वह बूढ़ा व्यक्ति वापस थॉमसन और उसकी पुत्री लिली के पास आया। वह अपने साथ एक संदूकची लेकर आया। 
उस बूढ़े व्यक्ति ने लिली से कहा, "आपने मेरी बहुत सहायता और सेवा की है। इसलिए आप इसे मेरी तरफ से भेंट स्वीकार करें।"
लिली ने उस संदूकची को खोलकर देखा। उसमें बहुत कीमती गहने थे। गहने देखकर लिली का मन ज़रा भी विचलित नहीं हुआ।
 लिली ने बूढ़े व्यक्ति से कहा -"बाबा,  मुझे इन गहनों की आवश्यकता नहीं है। इन्हें आप अपने पास रखें। हमने तो केवल अपना फ़र्ज पूरा किया है।" 
बूढ़ा व्यक्ति उस संदूकची के साथ वापस अपने घर लौट आया। बूढ़े व्यक्ति की कोई संतान नहीं थी। 
जब उसकी मृत्यु हुई तो उसने अपनी सारी संपत्ति लिली के नाम कर दी। 
लिली को इस बारे में कुछ दिनों बाद पता चला कि वह कितनी धनवान हो गई है। 
इसलिए कहते हैं कि हमें सदा अच्छे कर्म करने चाहिए। शुभ कर्मों का फल हमेशा शुभ ही होता है। 
                                                                                                                2.सच्चा सहयोगी 
अमेरिका के पश्चिमी किनारे पर समुद्र में जहाज बहुत तीव्र गति से चला जा रहा था।  किसको मालूम था कि थोड़ी देर में  मौसम परिवर्तन से जहाज को बचाना कठिन हो जाएगा। 
देखते-ही-देखते तूफान भी आ गया और जहाज के टूट जाने से उसमें बैठे अनेक खलासी समुद्र में डूबने लगे। 
जो अच्छी तरह तैरना जानते थे उनके प्राण बचने की तो कुछ आशा की जा सकती थी, पर जिन्होंने अभी तक अभी हाथ-पैर चलाना ही सीखा था उनके समुद्र में से तैर कर किनारे पर किसी को विश्वास न था।  
 उस समय जहाज पर एक हब्सी गुलाम भी था। वह तुरंत अथाह जल में कूद पड़ा। 
उसने अपने प्राणों की तनिक भी चिंता न की। 
 उसने सोचा कि मनुष्य ही मनुष्य के संकट में सहयोगी न बन पाया तो क्या पशु-पक्षी को उसकी सहायता करने आना पड़ेगा ?
 एक क्षण उसके मन में यह विचार भी आया, कि क्यों जान-बूझकर अपने जीवन को इस संकट में डाला जाए।
पर तुरंत ही उसका विवेक बोल उठा, "यदि दूसरों की सहायता के प्रथम प्रयास में मैं अपने जीवन को खतरे में डालना पड़े, फिर भी चिंता नहीं करनी चाहिए।"
यह सोचकर वह एकदम ही पानी में कूद पड़ा। अपने कठोर परिश्रम से वह पाँच  खलासियों को जीवित बचाने में सफल हो गया। 
अब उसका शरीर थक कर चूर-चूर होने लगा था। छठी बार वह कूदना चाहता था कि जहाज का कप्तान बोला उठा, "बस भाई, तुमने कमाल कर दिया। जाओ, अब तुम मुक्त हुए। 
हब्सी बोला, "मेरी मुक्ति तो अभी थोड़ी देर और प्रतीक्षा कर लेने दो, तब तक मैं एक व्यक्ति की और जान बचा लेता हूँ।"
 इतना कहकर वह गुलाम फिर पानी में कूद पड़ा और सचमुच सदा के लिए जीवन मुक्त हो गया। 


3. मलिन मन
 एक समय की बात है जब आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद फर्रुखाबाद में धर्म प्रचार के लिए रुके हुए थे। 
तभी एक मज़दूर वहाँ आया। उसका जीवन-निर्वाह बड़ी मुश्किल से मजदूरी से ही होता था। वह अपने घर से दाल-चावल बना कर महर्षि के लिए लाया था। 
स्वामी जी ने उसके हाथों से बना भोजन सहज स्वीकार कर लिया बल्कि भोजन के लिए धन्यवाद भी कहा। 
महर्षि से 'धन्यवाद' शब्द सुनते ही वहाँ उपस्थित एक ब्राह्मण ने कहा, "आपने भोजन स्वीकार कर इस पर अहसान किया है किंतु आप भ्रष्ट हो गए हैं। आप संन्यासी हैं। यह हीन कुल का व्यक्ति है।"
महर्षि ने मुस्कुराते हुए पूछ लिया, "भाई यह तो बताओ कि क्या यह अन्न दूषित था ?ब्राह्मण देवता बताओ तो।"
हाँ,  आपको यह स्वीकार नहीं करना चाहिए था क्योंकि यह अन्न दूषित ही था। 
महर्षि दयानंद ने उनसे पूछा, "कैसे दूषित ?"....अन्न दो प्रकार से दूषित होता है। 
एक तो वह जो मनुष्य को तकलीफ देकर, उसका शोषण करके प्राप्त किया जाए। और.....  दूसरा वह जहाँ भोजन बनाते समय कुछ ऐसा पदार्थ पड़ जाए जो खाने योग्य ही न हो। 
अगर ऐसा होता है तो इस हालत में भोजन को भ्रष्ट माना जाता है। परंतु मेरा मानना यह है कि इस व्यक्ति द्वारा लाया गया अन्न दोनों ही श्रेणी में नहीं आता। 
यह तो परिश्रम की कमाई का है। मैं इसे दूषित कैसे मान लूँ ?
 ऐसे में मैं कैसे भ्रष्ट हुआ ? ज़रा बताइए तो। 
संभवतः आपका अपना मन मलीन है। तभी तो आपको दूसरों की चीजें मलिन नज़र  आती हैं। 
आप अपनी इस सोच को बदल लो, तभी अच्छा होगा।  स्वामी जी ने इस प्रकार उस ब्राह्मण को झकझोर दिया। यह सुनकर उस ब्राह्मण की आँखें शर्म से झुक गई। 

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