कृतज्ञता की पराकाष्ठा
1. गुलछर्रे
पूरे दिन धक्के खाने के बाद बड़ी मुश्किल से रामू को एक सवारी मिली।
घर पहुँचकर रीना के हाथ पर दस-दस नोट रखते हुए रामू बहुत ही दुखी स्वर में बोला, "कि आज बस इतने पैसे ही मिले।
इतने कम रुपए देख रीना दुखी हो गई और सोच में पड़ गई मगर रामू को पहले से इतना दुखी देखकर रीना को उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई।
उसने हैंडपंप से निकालकर रामू को एक गिलास पानी पीने को दिया और खुद थैला लेकर सामान लेने के लिए बाजार चली गई।
रीना को राशन का सामान लेने जाते देख उसके भूखे बच्चों को खाना मिलने की एक उम्मीद बंध गई थी।
रीना को समझ में नहीं आ रहा था कि इन 40 रुपयों में से कितने का वह राशन ले, कितने की सब्जी ले और कितने का नमक, मिर्ची।
उसने सोचा कि अगर वह 30 रुपये के चावल और 10 रुपये की दाल ले लेती हूँ। खिचड़ी बना लूँगी। मगर उसे ध्यान आया कि आज घर में नमक भी नहीं है।
किराने की दुकान में 5 रुपये वाला नमक का छोटा पैकेट नहीं था। 40 रुपये में से 16 रुपये की नमक की थैली लेने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी।
काफी देर तक वह इसी उधेड़बुन में खड़ी रही। वह यही सोचती रही कि क्या खरीदूँ और क्या नहीं ?
तभी उसकी नजर गली के एक छोटी-सी दुकान पर गई। जहाँ गर्मागर्म समोसे बनाए जा रहे थे।
उन समोसों की सोंधी-सोंधी महक ने उसे अपनी ओर खींचा। वह उन समोसों की महक से खींची हुई दुकान पर पहुँची।
दुकान पर पहुँचकर उसने दुकानदार से पूछा, "भैया एक समोसा का क्या दाम है ?
दुकानदार ने उसकी ओर देखते हुए कहा, "ले जाओ 4 रुपये समोसा लगा देंगे।"
काफी देर सोचने-समझने के बाद रीना ने 40 रुपये में 10 समोसे लिए और घर की ओर चल दी।
समोसे देखकर बच्चे खुशी से उछल पड़े। रीना ने सबको दो-दो समोसे दिए। सब समोसे खाने लगे।
सबको समोसे खाते देख रीना की मकान मालकिन अपने पति से कहने लगी, "कि यह हर समय पैसों का रोना रोती रहती है।
लेकिन अब देखो गुलछर्रे उड़ाए जा रहे हैं। पूरा परिवार गर्मागर्म समोसे खा रहे हैं।
2. नजर मत चुराओ
एक टी.वी. चैनल का रिपोर्टर सतीश दस-दस किलो आटे की दो थैलियाँ, पाँच किलो दालें, दो किलो चीनी, एक किलो चायपत्ती, दो लीटर वनस्पति घी आदि लेकर अपने घर लौटा और राशन का सब सामान रसोई घर में रखने लगा।
उसे ऐसा करते देख उसकी पत्नी राधिका ने पूछा, "तुम यह सब सामान कहाँ से लाए हो ? तुम्हारे पास तो अभी इतने पैसे नहीं थे ?"
सतीश ने कहा, "आज एक समाज-सेवी संस्था की ओर से राशन का सामान गरीबों में मुफ्त बाँटा गया।
मैं उस संस्था के बुलावे पर अपने चैनल के लिए कवरेज करने वहाँ गया था।
आते समय संस्था के प्रधान ने मेरे मना करने के बावजूद यह सब राशन का सामान मुझे दे दिया।" सतीश ने नज़रे चुराते हुए कहा।
"और तुम यह सामान ले आए ?"
"हाँ!" सतीश शर्म के मारे चाहकर भी अपनी पत्नी राधिका से नजर नहीं मिला पा रहा था।
राधिका ने सतीश से कहा "मेरी तरफ देखो।
ऐसे नजर मत चुराओ ! इस त्रासदी में, इस मुश्किल घड़ी ने अनेक लोगों को भूखों मरने पर मजबूर कर दिया है। तुम्हारी तनख्वाह में भी इस कारण कट कर मिल रही है।
ये तो शुक्र है भगवान का कि तुम्हारी नौकरी अभी तक बची हुई है। हम जैसे-तैसे निर्वाह कर ही रहे हैं। संकट के इस कठिन समय में भी हमें नैतिकता और ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ना चाहिए।"
राधिका बोलती जा रही थी और सतीश नजर झुकाए चुपचाप सुन रहा था।
राधिका ने आगे कहा, "सतीश, जिस राशन के सामान के संकट के मारे कुछ और लोगों की मदद हो सकती है, वह सामान तुम लेकर घर कैसे चले आए ?
यह देश व समाज, न्यायपालिका, मीडिया में शेष बची हुई नैतिकता व ईमानदारी के बल पर ही तो हम आगे बढ़ पा रहा है........ ।"
इससे पहले कि राधिका और कुछ बोलती, वह उठा कर उसकी ओर देखते हुए बोला, "मुझे माफ कर दो राधिका, मुझसे गलती हो गई।
मैं अभी सारा सामान वापस लौटा कर आता हूँ।"
.... और वह दोबारा राशन के उस सामान को अपने स्कूटर पर लादकर घर से रवाना हो गया।
3. कहाँ जा रहे हो ?
दयाराम हाथ में थैला पकड़े और नजर झुकाए पैदल चले जा रहे थे।
रास्ते में एक पुलिस मौके पर एक सिपाही ने अपमानजनक स्वर में सड़क पर पूछा, "ओए, नजर बचाकर किधर चला जा रहा है ?
क्या तुझे पता नहीं कि कोरोना लॉकडाउन में खुलेआम घूमना-फिरना मना है ?"
वैद्य जी ने नजर उठाकर देखा असभ्य ढंग से बोलने वाला सिपाही उम्र में उनके दोनों बेटों से भी छोटा जान पड़ता था।
उसकी हिमाकत पर उन्हें गुस्सा तो आया फिर भी उन्होंने नम्रता भरे स्वर में कहा, "बेटा अपनी दवाओं की दुकान पर जा रहा हूँ।
कोरोना-लॉकडाउन में जिन दुकानों को कुछ समय के लिए खोलने की अनुमति मिली हुई है, उसमें हमारा दवाखाना भी शामिल है।"
'अच्छा, अच्छा, ठीक है। ला, दिखा, इस थैले में क्या है? क्या पता, दवाइयों की आड़ में अवैध शराब बेचने का धंधा करता हो ?"
उस सिपाही के ऐसे शब्द सुनकर नाके पर तैनात अन्य पुलिसकर्मियों के भी कान खड़े हो गए।
"लीजिए बेटा जी, देख लीजिए। थैले में रोटियाँ भरी हुई हैं।" वैद्य जी ने शालीनता के साथ थैले का मुँह खोल कर दिखा दिया।
"बाबा जी, इतनी सारी रोटियाँ साथ में क्यों लिए जा रहे हो ?" एक हवलदार ने आदरपूर्वक पूछा।
वैद्य दयाराम जी ने जी को उस हवलदार के बोलने का ढंग बहुत अच्छा लगा।
उन्होंने उसी को संबोधित करते हुए कहा, "बेटा जी, इस महामारी के संकट में बहुत ही समाज सेवी संस्थाएँ असहाय व बेसहारा लोगों को मुफ्त में भोजन उपलब्ध करवा रही हैं।
लेकिन बेजुबान और बेसहारा जानवरों की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
मेरे दवाखाने के निकट कई आवारा कुत्ते रहते हैं। मैं यह रोटियाँ उन्हीं के लिए ले जा रहा हूँ।"
फिर उन्होंने अभद्रता दिखाने वाले सिपाही की ओर देखते हुए कहा, "अगर आप में से किसी को कुछ रोटियाँ चाहिए, तो वह भी ले सकता है।"
मैम आप की कहानी बहुत अच्छी है।
ReplyDeleteपढ़ने में काफी अच्छा लगा।
धन्यवाद
आभार! आपके लिए ही कुछ अच्छा लिखने का प्रयास करती हूँ ।
DeleteThat's fabulous!
DeleteThe story is amazing .
It's words are so beautifully adapted that when anyone will read it he/she will be amazed .
Thank you for such an interesting , amazing and fabulous story .
धन्यवाद! आपके शब्द मेरा हौंसला बढ़ाते हैं।
Deleteमैम मैं आपके सारे ब्लॉक बढ़ता हूं वह बहुत अच्छे होते हैं
ReplyDeleteआभार ! आप सब इसी तरह मेरा हौंसला बढ़ाते रहें।
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