Top Best Famous Moral Stories In Hindi
1.प्रेरक प्रसंग- अनुपम दान
यह प्रेरक प्रसंग बंगाल का है। एक बार एक वृद्ध भिखारिन भीख माँगने निकली।
एक घर के आगे रुक कर उसने दरवाजे पर भीख देने के लिए आवाज लगाई।
उसकी आवाज़ सुनकर एक बालक उस दरवाजे से बाहर निकला। बुढ़िया ने उससे भीख में कुछ देने की याचना की।
उस वृद्ध भिखारिन की दयनीय दशा को देखकर बालक को उस पर दया आई।
बालक घर के अंदर अपनी माँ के पास जाकर बोला, "माँ दरवाजे पर एक बूढ़ी भिखारिन आई है।
मुझे बेटा कह कर वह कुछ कुछ माँग रही है ।"
बेटे की बात सुनकर माँ ने बेटे से कहा, "जाओ, बेटा उसे कुछ चावल दे दो।"
माँ की बात सुनकर बालक बोला, "माँ चावल से उसका क्या भला होगा ? माँ आपने जो सोने के कंगन हाथों में पहने हैं यही उतार कर दे दीजिए।
मैं बड़ा होकर आपको दूसरे कंगन बनवा दूँग
बेटे की बात सुनकर माँ ने तुरंत ही अपने कंगन उतारे और बेटे को दे दिए।
लड़के ने बाहर जाकर बूढ़ी भिखारिन को वे कंगन दे दिए। जब वह लड़का बड़ा हुआ तो वह बंगाल का बहुत प्रसिद्ध विद्वान और समाज सुधारक बना।
एक दिन उस लड़के ने अपनी माँ के पास जाकर कहा, "माँ आप अपने हाथों का नाप दे दो। मुझे आपके लिए कंगन बनाने हैं।"
ऐसे महापुरुष जितने महान होते हैं, उनकी मांएं भी उतनी ही महान होती हैं।
माँ ने बेटे को उत्तर दिया, "बेटा !अब मेरी उम्र कंगन पहनने की नहीं है। अगर तुम मेरे कंगन बनवाने की जगह कलकत्ते के गरीबों के लिए एक अस्पताल और यहाँ के बच्चों की पढ़ाई के लिए कॉलेज खुलवा दे।
जहाँ गरीबों को पूरी तरह नि: शुल्क सुविधाएँ मिलें। माँ की बात सुनकर पुत्र ने अपनी माँ की इच्छानुसार वैसा ही किया।
वह महान पुत्र व महापुरुष थे - महान विद्वान और समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर।
2. संकल्प की ताकत
लंदन का एक उपनगर था वालवर्थ। वहाँ के निवासी आपराधिक कृत्यों के लिए बदनाम थे।
अशिक्षित लोगों की इस बस्ती को सभ्य समाज में उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था।
यहाँ के लोग आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने के कारण बहुत बदनाम थे। उन्हें समाज घृणा की दॄष्टि से देखता था।
एक बार वहाँ पर कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़ने वाला एक लड़का यहाँ रहने के लिए आया। उसने यहाँ की दैनिक स्थिति को देखा।
उसे यह सब देखकर बहुत दुःख हुआ और उसने इसे बदलने का निश्चय किया। सबसे पहले उसने वहाँ के बच्चों को इकट्ठा किया और उन्हें पढ़ाना शुरू किया।
धीरे-धीरे पढ़ाई के साथ-साथ उसने उन्हें अच्छे संस्कार देना भी शुरू किया।
यह सब देखकर बस्ती के लोग उससे बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने सोचा कि इस संसार में कोई तो है जो उनके बच्चों की परवाह करता है।
उन्हें अच्छी बातें सीखा रहा है, उन्हें पढ़ा रहा है।
कुछ दिनों के बाद उस युवक ने वहाँ रहने वाले बड़े लोगों को भी रविवार के दिन कक्षा में आने के लिए मना लिया। अब वह उन्हें भी शिक्षा के साथ-साथ अच्छी बातें भी सिखाने लगा।
उन लोगों में भी परिवर्तन आने लगा और वहाँ के सभी लोग उसका बहुत आदर करने लगे।
जब कुछ समय बीत गया तो उसने बस्ती वालों से एक संकल्प लेने के लिए कहा। बस्ती वाले भी संकल्प लेने को तैयार हो गए।
उस लड़के ने उनसे संकल्प लिया कि वे सप्ताह में एक दिन कोई अपराध नहीं करेंगे । बस्ती वालों ने वैसा ही किया इस प्रकार एक दिन अपराध मुक्त जीवन जीकर बस्ती वालों को बहुत अच्छा लगा।
फिर बस्ती वालों ने स्वयं संकल्प लिया कि वे एक दिन नहीं बल्कि सप्ताह में चार दिन कोई अपराध नहीं करेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे बस्ती और बस्ती में रहने वालों की स्थिति में सुधार आने लगा।
बस्ती में रहने वाले लोगों ने अच्छे काम करने शुरू कर दिए। धीरे-धीरे अपराधियों के लिए कुख्यात एक उपनगर की परिस्थिति बदलने लगी और अब वह बस्ती समय के साथ सभ्य लोगों का शहर बन गया था।
कुछ समय बाद वह युवक में भारत आया और यहाँ दीनबंधु एंड्रयूज के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यह प्रेरक प्रसंग हमें यह सीख देता है कि निरंतर प्रयास करने से बड़े-से-बड़े और कठिन-से-कठिन कार्य भी संभव हो जाते है।
3. कृतज्ञता की पराकाष्ठा
आधुनिक हिंदी के पितामाह कहलाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र जी अपनी उदारता के कारण कंगाल हो चुके थे।
एक समय ऐसा भी आया जब उनके पास इतने भी पैसे नहीं थे कि वे टिकट खरीदकर अपने पास आए हुए पत्रों का उत्तर भेज सकें।
उनके पास जो भी पत्र आते थे, वे उनके उत्तर लिखते और फिर उन्हें लिफाफे में बंद करके मेज पर रख देते । उनकी स्थिति ऐसी थी कि वे नहीं खरीद सकते थे, अगर टिकट लगाने के लिए पैसे होते, तो उन पत्रों के जवाब भेजे जाते। धीरे-धीरे उनकी मेज पर पत्रों की एक ढेरी एकत्र होती चली गई ।
उनके एक मित्र ने जब पत्रों की यह ढेरी देखी तो उस मित्र ने उन्हें पाँच रुपए के डाक टिकट लाकर दिए, पत्रों पर डाक टिकट लगाए गए, फिर वह पत्र लेटर बॉक्स में डाले गए।
भारतेंदु जी ने बहुत मुसीबतें देखीं पर उन्होंने मुसीबतों से हिम्मत नहीं हारी।
उनकी ऐसी हिम्मत का परिणाम यह हुआ कि कुछ समय बाद उनकी स्थिति थोड़ी-थोड़ी ठीक होती चली ।
लेकिन जब-जब वह अपने उस मित्र से मिलते थे, तब-तब वे जबरदस्ती अपनी मित्र की जेब में पाँच रुपए डाल देते थे और उनसे कहते, "शायद आपको स्मरण नहीं, कि आपके पाँच रुपए मुझ पर ऋण हैं।"
एक दिन भारतेंदु जी उनके उस मित्र ने कहा, "लगता है कि मुझे अब आपसे मिलना बंद कर देना पड़ेगा।"
मित्र की यह बात सुनकर भारतेंदु बाबू के नेत्र भर आए।
वे मित्र से बोले, "भाई तुमने मुझे उस समय पाँच रुपए दिए थे, जब मैं बड़ी मुसीबत में था।
मैं जीवन भर भी तुम्हें प्रतिदिन पाँच रुपए देता रहूँ, तब भी तुम्हारे ऋण से मुक्त नहीं हो सकता।"
यह थी भारतेंदु जी की 'कृतज्ञता की पराकाष्ठा' कि वे अपने मित्र द्वारा की गई मदद को भूल नहीं पाए ।
कभी भी अपने बुरे वक्त को मत भूलिए और बुरे वक्त में जिन लोगों ने आपकी मदद की उन्हें तो बिल्कुल मत भूलिए।
ऐसा करना आपके उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करता है।
बहुत अच्छी कहानी है।
ReplyDeleteNice story
ReplyDeleteNice story
ReplyDeleteWow nice story
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